Vidur Neeti Part 3

सर्वाणां सुस्वागतम्..
विदुर नीति Part 3
Audiobook By Li Books
anyonyasamupastambhaadanyoyaanyaapaashrayen च।
ज्ञातयः सम्प्रवर्धन्ते सरसीवोत्पलान्युत
लेकिन मिलजुलकर, एक-दूसरे की सहायता से सगे-संबंधी उसी प्रकार बढ़ते हैं, जैसे सरोवर में कमल।

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अवध्या ब्राह्मणा गावो ज्ञातयः शिशवः त्रियः।

येषां चान्नानि भुञ्जीत ये च स्यु शरणागताः।।66।।

राजन्! ब्राह्मण, गाय, संबंधी, बच्चे, त्री, भोजन देनेवाला तथा शरण में आया-इन्हें कभी नहीं मारना चाहिए। ये सब शात्रों के अनुसार अवध्य की श्रेणी में आते हैं।

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न मनुष्ये गुणः कश्चिद् राजन् सधनतामृते।

अनातुरत्वाद् भद्रं ते मृतकल्पा हि रोगिणः।।67।।

महाराज! धन और स्वास्थ्य ही मनुष्य के दो सबसे बड़े गुण हैं। विद्वानों ने रोगी को मुरदे के समान कहा है। मेरी कामना है कि आप सदैव इन दो गुणों से भरे-पूरे रहें।

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अव्याधिजं कटुं शीर्षरोगि पापानुबन्धं परुषं तीक्ष्णमुष्णम्।

सतां पेयं यन्न पिबन्त्यसन्तो मन्युं महाराज पिब प्रशाम्य।।68।।

हे राजन! क्रोध एक तीक्ष्ण विष है जो कड़वा, सिर-दर्द पैदा करने वाला, पापी, क्रूर और प्रकृति में गरम है। दुष्ट प्रकृति के लोग इसे नहीं पी सकते, सज्जन पी जाते हैं। मेरी विनती है, इस क्रोध को आप पी जाएँ और शांत हो जाएँ।

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रोगार्दिता न फलान्याद्रियन्ते न वै लभन्ते विषयेषु तत्त्वम्।

दुखोपेता रोगिणो नित्यमेव न बुध्यन्ते धनभोगान्न सोख्यम्।।69।।

रोगी मनुष्य को न तो फल अच्छे लगते हैं न भोग विलास। हर तरह के सुख से दूर, हर वस्तु में वे केवल दुख-ही-दुख पाते हैं।

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पुरा हयुत्तंक्त नाकरोस्त्वंवचो मे द्यूते जितां द्रौपदीं प्रेक्ष्य राजन्।

दुर्योधनं वारयेत्यक्षवत्यां कितवत्वं पण्डिताः वर्जयन्ति।।70।।

महाराज! द्रौपदी को जुए में विजित देखकर मैंने पहले ही आपसे कहा था कि इस अनर्थ को रोकिए। ज्ञानीजन जुए जैसी बुरी लत को प्रोत्साहन नहीं देते। लेकिन आपने दुर्योधन को नहीं रोका।

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न तद् बलं यन्मृदुना विरुध्यते सूक्ष्मो धर्मस्तरसा सेवितव्यः।

प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्रीर्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान्।।71।।

अन्याय का तक्षण विरोध करना चाहिए तथा बल का दमन दृढ़तापूर्वक करना चाहिए। अन्याय से अर्जित धन ज्यादा समय तक नहीं ठहरता, जबकि न्याय द्वारा अर्जित धन कई पीढि़यों तक चलता है।

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धार्तराष्ट्राः पाण्डवान् पालयन्तु पाण्डो सुतास्तव पुत्रांश्च पान्तु।

एकारिमित्राः कुरवो ह्येककार्या जीवन्तु राजन् सुखिनः समृद्धाः।।72।।

महाराज! मेरी तो यही अभिलाषा है कि कौरव और पांडव मिलजुलकर रहें, एक-दूसरे की रक्षा करें, उनके मित्र भी समान हों और वैरी भी। उनका राज्य समृद्धि करे। वे सुखपूर्वक राज्य करें और चिंरजीवी रहें।

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मेढीभूतः कौरवाणां त्वमद्य त्वमद्य त्वय्याधीनं कुरुकुलमाजमीढ।

पार्थान् बालान् वनवासप्रतप्तान् गोपायस्व सं् यशस्तात रक्षन्।।73।।

धृतराष्ट्र! आज आप ही कौरव कुल के रक्षक और सर्वेसर्वा हैं। आपका दायित्व है कि आप कौरव और पांडव दोनों की रक्षा करें। वनवास में पांडव बहुत कष्ट झेल चुके हैं। अब आप पिता के रूप में उनकी रक्षा और पालन कीजिए।

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सन्धत्स्व त्वं कौरव पाण्डुपुत्रैर्मा तेऽन्तरं रिपवः पार्थयन्तु।

सत्ये स्थितास्ते नरदेव सर्वे दुर्योधन स्थापय त्वं नरेन्द्र।।74।।

राजन्। सबकी भलाई इसी में है कि आप पांडवों के साथ संधि कर लें। शत्रु इस फूट का लाभ न उठा पाएँ। महाराज! पांडव सत्य के रास्ते चल रहे हैं; आप दुर्योधन को सँभालिए।

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।।चौथा अध्याय समाप्त।।






5. विदुर उवाच

सप्तदेशेमान् राजेन्द्र मनु स्वायम्भुवोऽब्रवीत्।

वैचित्रवीर्यं पुरुषान् आकाशं मुष्टिभिर्घ्नतः।।1।।

दानवेन्द्रस्य च धनुरनाम्यं नमतोऽब्रवीत्।

अथ मरीचिनः पादान् अग्राह्यान् गृह्लतस्तथा।।2।।

यश्चाशिष्यं शास्ति वै यश्च तुष्येद् यश्चातिवेलं भजते द्विषन्तम्।

त्रियश्च यो रक्षतिभद्रमश्नुते यश्चायाच्यं याच्यते कत्थते च।।3।।

यश्चाभिजातः प्रकरोत्यकार्यं यश्चाबलो बलिना नित्यवैरी।

अश्रद्दधानाय च यो ब्रवीति यश्चाकाम्यं कामयते नरेन्द्र।।4।।

वध्वावहासं श्चशुरो मन्यते यो वध्वाऽवसन्नभयो मानकामः।

परक्षेत्रे निर्वपति यश्च बीजं त्रियं च यः परिवदतेऽतिवेलम्।।5।।

यश्चापिलब्ध्वा न स्मरामीतिवादी दत्त्वा च यः कत्थतियाच्यमानः।

यश्चासतः सत्त्वमुपानयीत एतान् नयन्ति निरयं पाशहस्ताः।।6।।

वि दुर ने आगे कहा-हे धृतराष्ट्र! स्वायंभुव मनु ने कहा है कि सत्रह प्रकार के लोगों को नरक में कठोर दंड मिलता है। ये लोग हैं-(1) आकाश को घूँसों से मारने वाले, (2) इंद्रधनुष को तोड़ने का प्रयास करने वाले, (3) सूर्य की किरणों को पकड़ने का प्रयास करने वाले, (4) अयोग्य शासक, (5) मर्यादाहीन व्यक्ति, (6) शत्रु-सेवक, (7) निर्बलों की रक्षा करके आजीविका चलाने वाले, (8) अयोग्य व्यक्ति से कुछ माँगने वाले और आत्म प्रशंसक, (9) कुलीन होकर भी नीच कार्य करने वाले, (10) अपने से बलवान से वैर करने वाले, (11) अश्रद्धालु के साथ अमर्यादित व्यवहार करने वाले (12) दुर्लभ वस्तु के इच्छुक, (13) पुत्रवधू के साथ अमर्यादित व्यवहार करने वाले, (14) परत्री से संबंध रखने वाले, (15) त्री-निंदक, (16) अमानत हड़पनेवाले तथा (17) अपने दान का बखान करके झूठ को सत्य सिद्ध करनेवाले।

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यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यस्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्म।

मायाचारो मायया वर्तितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युपेयः।।7।।

राजन! जैसे के साथ तैसा ही व्यवहार करना चाहिए। कहा भी गया है, जैसे को तैसा। यही लौकिक नीति है। बुरे के साथ बुरा ही व्यवहार करना चाहिए और अच्छों के साथ अच्छा।

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जरा रूपं हरति धैर्यमाशा मृत्यु प्राणान् धर्मचर्यामसूया।

कामो हियं वृत्तमनार्यसेवा क्रोधः श्रियं सर्वमेवाभिमानः।।8।।

बुढ़ापा सुंदरता का नाश कर देता है, उम्मीद धीरज का, ईर्ष्या धर्म-निष्ठा का, काम लाज-शर्म का, दुर्जनों का साथ सदाचार का, क्रोध धन का तथा अहंकार सभी का नाश कर देता है।

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धृतराष्ट्र उवाच

शतायुरुत्तक्तः पुरुषः सर्ववेदेषु वै यदा।

नाप्नोत्यथ च तत् सर्वमायु केनेह हेतुना।।9।।

धृतराष्ट्र ने कहा-विदुर! जब सभी वेदों में मनुष्य की आयु सौ वर्ष की कही गई है तो वह इतना जीता क्यों नहीं?

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विदुर उवाच

अतिमानोऽतिवादश्च तथाऽत्यागो नराधिप।

क्रोधश्चात्मविधित्सा च मित्रद्रोहश्च तानि षट्।।10।।

विदुर बताने लगे-महाराज! घोर अहंकार, वाचालता, भोग प्रवृत्ति, क्रोध, स्वउदरपोषण और मित्र से घात-ये छह सतत् अवगुण मनुष्य की आयु को क्षीण करते हैं।

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एत एवासयस्तीक्ष्णाः कृन्तन्त्यायूषि देहिनाम्।

एतानि मानवान् घ्नन्ति न मृत्युर्भद्रमस्तु ते।।11।।

मृत्यु मनुष्य की आयु को कम नहीं करती, ये छह अवगुण तीखी तलवारें हैं जो आयु क्षीण करते हैं। हे महाराज! आप कल्याण चाहनेवाले हैं। आप इन अवगुणों से बचेंगे।

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विश्चस्तस्यैति यो दारान् यश्चापि गुरुतल्पगः।

वृषलीपतिर्द्विजो यश्च पानपश्चैव भारत।।12।।

आदेशकृद् वृत्तिहन्ता द्विजानां प्रेषकश्च यः।

शरणागतहा चैव सर्वे ब्रह्महणः समाः।

एतै समेत्य कर्त्तव्यं प्रायश्चित्तमिति श्रुतिः।।13।।

जो किसी का विश्वास तोड़कर परत्री से संबंध बनाता है, गुरु की पत्नी से संबंध बनाता है, ब्राह्मण होकर अधम त्री से संबंध बनाता है, मदिरापान करता है, बुजुगऱ्ों को आदेश देता है, दूसरों की आजीविका छीनता है, ज्ञानीजन का अनादर करता है, शरण में आनेवालों को मारता-पीटता है-इन्हें वेदों में ब्रह्म-हत्यारा कहा गया है। इनका साथ हो जाने पर प्रायश्चित्त जरूरी है।

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गृहीतेवाक्यो नयविद् वदान्यः शेषान्नभोत्तक्ता ह्यविहिंसकश्च।

नानार्थकृत्याकुलितः कृतज्ञः सत्यो मृदु स्वर्गमुपैति विद्वान्।।14।।

आज्ञाकारी, नीति-निपुण, दानी, धर्मपूर्वक कमाकर खाने वाला, अहिंसक, सुकर्म करने वाला, उपकार मानने वाला, सत्यवादी तथा मीठा बोलने वाला पुरुष स्वर्ग में उत्तम स्थान पाता है।

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सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः।

अतियस्य तु पथ्यस्य वत्तक्ता श्रोता च दुर्लभः।।15।।

राजन! दुनिया में मीठा बोलने वालों की तो कोई कमी नहीं है, लेकिन जो मीठा भी बोले और हितकारी भी, ऐसे बोलनेवाले और सुननेवाले दोनों ही कठिनाई से मिलते हैं।

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यो हि धर्मं समाश्रित्य हित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये।

अप्रियाण्याह पथ्यानि तेन राजा सहायवान्।।16।।

जो इस बात की चिंता नहीं करता कि राजा को उसकी बात अच्छी लगेगी या बुरी और अप्रिय होने पर भी केवल सच्ची और हितकारी बात करता है, वही राजा का सच्चा सहायक व हितैषी है।

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त्यजेत् कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुं त्यजेत्।

ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।।17।।

समुदाय के कल्याण के लिए एक व्यक्ति का त्याग कर देना चाहिए, गाँव के कल्याण के लिए कुल का, राज्य के कल्याण के लिए गाँव का तथा अपने कल्याण के लिए सारी धरती को भी छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए।

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आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि।

आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि।।18।।

मुसीबत के लिए धन जमा करना चाहिए। त्री पर कोई मुसीबत आ पड़े तो धन-बल से उसकी रक्षा करनी चाहिए। जब स्वयं की रक्षा करनी हो, या स्वयं को मुसीबत से छुड़ाना हो तो इसके लिए त्री और धन दोनों की सहायता लेने पड़े तो लेनी चाहिए।

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द्यूतमेतत् पुराकल्पे दृष्टं वैरकरं नृणाम्।

तस्माद् द्यूं न सेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान्।।19।।

जुए को प्राचीन समय से ही एक बुराई के रूप में देखा गया है, इसलिए समय बिताने के लिए भी जुआ नहीं खेलना चाहिए।

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उत्तंक्त मया द्यूतकालेऽपि राजन् नेदं युत्तंक्त वचनं प्रातिपेय।

तदौषधं पथ्यमिवातुरस्य न रोचते तव वैचित्रवीर्य।।20।।

महाराज! धृतराष्ट्र! कौरवों और पांडवों के बीच जुए का खेल शुरू होते समय ही मैंने आपको सावधान किया था कि इस अनर्थ को रोकिए। लेकिन आपने मेरी बात अनसुनी कर दी-वैसे ही जैसे रोगी को कड़वी दवा अच्छी नहीं लगती।

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काकैरिमांश्चित्रबर्हान् मयूरान् पराजयेथाः पाण्डवान् धार्तराष्ट्रै।

हित्वासिंहान् क्रोष्टुकान्गूहमानः प्राप्तेकाले शेचिता त्वंनरेन्द्र।।21।।

आप उम्मीद करते हैं कि कौवों के जैसे गुणधर्म वाले कौरव मोर जैसे गुणधर्म वाले पांडवों को पराजित कर देंगे। यह आपकी भयंकर भूल होगी। आप सिंहरूपी पांडवों की बजाय गीदड़ों का पक्ष ले रहे हैं। इसके लिए बाद में आपको पछताना पड़ेगा।

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यस्तात न क्रुध्यति सर्वकालं भृत्यस्य भत्तक्तस्य हिते रतस्य।

तस्मिन् भृत्या भर्तरि विश्चसन्ति न चैनमापत्सु परित्यजन्ति।।22।।

भाई धृतराष्ट्र! जो पुरुष अपने सच्चे सेवक पर कभी क्रोध नहीं करता, मुसीबत पड़ने पर ऐसा सेवक सच्चा हमदर्द सिद्ध होता है। कभी अपने मालिक को छोड़कर नहीं जाता।

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न भृत्यानां वृत्तिसंरोधनेन राज्यं धनं सञ्जिघक्षेदपूर्वम्।

त्यजन्तिह्येन वञ्चितावै विरुद्धाः स्निग्धाह्यमात्याः परिहीनभोगाः।।23।।

न तो कभी अपने किसी सेवक की आजीविका छीननी चाहिए, न किसी का धन और राज्य। जिनकी आजीविका छिन जाती है, वे आपके हितैषी होने पर भी आपका साथ छोड़कर चले जाते हैं।

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कृत्यानि पूर्वं परिसंख्याय सर्वाण्यायव्यये चानुरूपां च वृत्तिम्।

सङ्गृहृयादनुरूपान् सहायान् सहायसाध्यानि हि दुष्कराणि।।24।।

महाराज! किसी भी काम को पूरी करने में सहायकों की जरूरत पड़ती है। सहायकों की भरती से पहले उनके कार्य तय करें, फिर अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनका वेतन तय करें। इस प्रकार सहायक रखने पर वे आपका कठिन-से-कठिन कार्य पूरा करने में सहायक होते हैं।

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अभिप्रायं यो विदित्वा तु भर्तुः सर्वाणि कार्याणि करोत्यतन्द्री।

वत्तक्ता हितानामनुरत्तक्त आर्य शत्तिक्तज्ञ आत्मेव हि सोऽनुकम्प्यः।।25।।

जो सेवक स्वामी की बात के मर्म को समझकर स्फूर्ति से सभी कार्य करता है; जो स्वामी के भले की बात कहता है; जो स्वामी-भक्त व सज्जन है तथा स्वामी के बलाबल से पूरी तरह परिचित होता है; उसे अपने समान समझकर समतुल्य व्यवहार करना चाहिए।

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वाक्यं तु यो नाद्रियतेऽनुशिष्टः प्रत्याह यश्चापि नियुज्यमानः।

प्रज्ञाभिमानी प्रतिकूलवादी त्याज्यः स तादृव्क्त त्वरयैव भृत्यः।।26।।

जो सेवक आज्ञापालक न हो, बहस करता हो, जुबान लड़ाता हो, अपनी बुद्धि पर इतराता हो, ऐसे सेवक को शीघ सेवा से हटा देना चाहिए।

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अस्तब्धमक्लीबमदीर्घसूत्रं सानुक्रोशं श्लक्ष्णमहार्यमन्यै।

अरोगजातीयमुदारवाक्यं दूं वदन्त्यष्टगुणोपपन्नम्।।27।।

(1) अहंकार (2) शून्यता, (3) दयालुता, (4) निर्मल मन, (5) मन की बात गुप्त रखना, (6) स्वास्थ्य, (7) मृदुभाषा तथा (8) कार्य को शीघ पूरा करना-जिस व्यक्ति में ये आठ गुण होते हैं, उसे दूत के कार्य सौंपने चाहिए। ये आठ दूत के गुण कहे गए हैं।

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न विश्चासाज्जातु परस्य गेहे गच्छेन्नरश्चेतयानो विकाले।

न चत्वरे निशि तिष्ठेन्निगूढो न राजकाम्यां योषितं प्रार्थयीत।।28।।

जो व्यक्ति विश्वास करके असमय किसी के घर चला जाए, रात्रि में छिपकर ताक-झाँक करता हो, राजा जिस त्री को चाहे उस पर कुदृष्टि रखता हो-ऐसे व्यक्ति से राजा को दूर रहना चाहिए।

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न निह्नवं मत्रगतस्य गच्छेत् संसृष्टमत्रस्य कुसङगतस्य।

न च ब्रूयान्नाश्चसिमित्वयीति सकारणं व्यपदेशं तु कुर्यात्।।29।।

जो व्यक्ति राज्यसभा की गुप्त बातों को न छिपा सके, जो राजा की हाँ-में-हाँ मिलाए, उसकी गलत बातों का विरोध न करे, ऐसे व्यक्ति से राजा को दूर रहना चाहिए।

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घृणी राजा पुँश्चली राजभृत्यः पुत्रो भाता विधवा बालपुत्रा।

सेनाजीवी चोद्धृतभूतिरेव व्यवहारेषु वर्जनीयाः स्युरेते।।30।।

अति दयालु राजा, वेश्या, पुत्र, भाई, राजसेवक, विधवा, सैनिक तथा अधिकार से वंचित अधिकारी-इन सब से लेन-देन का व्यवहार नहीं करना चाहिए।

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अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च श्रुं दमश्च।

पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशत्तिक्त कृतज्ञता च।।31।।

बुद्धि, उच्च कुल, इंद्रियों पर काबू, शात्रज्ञान, पराक्रम, कम बोलना, यथाशक्ति दान देना तथा कृतज्ञता-ये आठ गुण मनुष्य की ख्याति बढ़ाते हैं।

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एतान् गुणांस्तात महानुभावान् एको गुणः संश्रयते प्रसह्य।

राजा यदा सत्कुरुते मनुष्यं सर्वान् गुणानेष गुणो बिभर्ति।।32।।

राजन! एक गुण इन सबसे अनन्य है, जो इन सभी गुणों से श्रेष्ठतर है। वह गुण है राज सम्मान। जब राजा भरे दरबार में किसी को सम्मानित करता है तो इससे राजा और सम्मान पानेवाले दोनों की शोभा में चार चाँद लग जाते हैं।

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गुणा दश स्नानशीलं भजन्ते बलं रूपं स्वरवर्णप्रशुद्धिः।

स्पर्शश्च गन्धश्चविशुद्धता च श्री सौकुमार्यं प्रवराश्चनार्य।।33।।

प्रतिदिन स्नान करनेवाले व्यक्ति को दस लाभ प्राप्त होते हैं। ये दस लाभ हैं-(1) उत्तम स्वास्थ्य, (2) बल, (3) रूप, (4) मीठी वाणी, (5) सुंध (6) कोमलता, (7) चमक, (8) शोभा, (9) पवित्रता तथा (10) आकर्षक त्रियाँ।

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गुणाश्च षण्मितभुत्तंक्त भजन्ते आरोग्यमायुश्च बलं सुखं च।

अनाविलं चास्य भवत्यपत्यं न चैनमाद्यून इति क्षिपन्ति।।34।।

जीने लायक भोजन करने वाले को ये छह गुण प्राप्त होते हैं-(1) उत्तम स्वास्थ्य, (2) दीर्घायु, (3) बल, (4) सुखी जीवन, (5) सुंदर संतान तथा (6) ‘पेटू’ होने की निंदा से मुक्ति।

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अकर्मशीलं च महाशनं च लोकद्विष्टं बहुमायं नृशंसम्।

अदेशकालज्ञमनिष्टवेषमेतान् गृहे न प्रतिवासयेत।।35।।

आलसी, पेटू, ईर्ष्यालु, कुटिल, क्रूर, मूढ़ तथा भद्दे पहनावे वाले व्यक्ति को अपने घर में न रुकने दें।

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कदर्यमाक्रोशकमश्रुं च वनौकसं धूर्तममान्यमानिनम्।

निष्ठूरिणं कृतवैरं कृतघ्नमेतान् भृशार्तोऽपि न जातु याचेत्।।36।।

मूर्ख, कंजूस, जंगली, कुटिल, नीच का सेवक, क्रूर, शत्रु और कृतघ्न; इन लोगों से मुसीबत में भी सहायता नहीं माँगनी चाहिए।

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सङ्क्लिष्टकर्माणमतिप्रमादं नित्यानृं चादृढभत्तिक्तकं च।

विसृष्टरागं पटुमानिनं चाप्येतान् न सेवेत नराधमान् षट्।।37।।

अत्याचारी, झूठे, धोखेबाज, चालाक, कपटी तथा आलसी-इन छह प्रकार के लोगों से सदैव दूर रहना चाहिए।

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सहायबन्धना ह्यर्था सहायाश्चर्थबन्धनाः।

अन्योऽन्यबन्धनावेतौ विनान्योऽन्यं न सिध्यतः।।38।।

सहायक की सहायता से धन कमाया जा सकता है और धन देकर सहायक को अपने साथ जोड़े रखा जा सकता है। ये दोनों परस्पर पूरक हैं; दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।

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उत्पाद्य पुत्राननृणांश्च कृत्वा वृत्तिं चे तेभ्योऽनुविधाय काञ्चित्।

स्थाने कुमारी प्रतिपाद्य सर्वा अरण्यसंस्थोऽथ मुनिर्बुभूषेत्।।39।।

संतान उत्पन्न करके, उनके सारे कर्ज उतारकर, उनकी आजीविका का समुचित प्रंध करके, बेटियों का यथायोग्य विवाह करके मनुष्य गृहस्थ धर्म छोड़कर वन में मुनि बनकर रहने को तैयार रहे।

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हिंत यत् सर्वभूतानामात्मनश्च सुखावहम्।

तत् कुर्यादीश्चरे ह्येतन्मूं सर्वाथसिद्धये।।40।।

जो कार्य अपने एवं सबके लिए लाभकारी और सुखद हो केवल वही करना चाहिए। इससे मनुष्य को चारों पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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वृद्धिः प्रभावस्तेजश्च सत्त्वमुत्थानमेव च।

व्यवसायश्च यस्य स्यात् तस्यावृत्तिभयं कुतः।।41।।

जिस व्यक्ति में उन्नति की चाह, प्रभाव, बल, कार्य करने की ललक, दृढ़ निश्चय और विवेक-बुद्धि हो; उसकी आजीविका को कोई नहीं छीन सकता।

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पश्य दोषान् पाण्डर्वेर्विग्रहे त्वं यत्र व्यथेयुरपि देवाः सशक्राः।

पुत्रैवैरं नित्यमुद्विग्नवासो यशःप्रणाशो द्विषतां च हर्ष।।42।।

महाराज धृतराष्ट्र! जरा सोचिए, पांडवों से युद्ध छिड़ने पर क्या कोई चैन से बैठ पाएगा? उससे इंद्र आदि देवगण भी दुखी होंगे। पुत्रों से दुश्मनी आपको भी बेचैन करेगी। आपका मान-सम्मान धूल में मिल जाएगा। हाँ, आपके दुश्मन इससे जरूर आनंदित होंगे।

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भीष्मस्य कोपस्तव चैवेन्द्रकल्प द्रोणस्य राजश्च युधिष्ठिरस्य।

उत्सादयेल्लोकमिमं प्रवृद्धः श्वेतो ग्रहस्तिर्यगिवापतन् खे।।43।।

राजन्! भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, युधिष्ठिर और आपका सामूहिक क्रोध इस धरती को वैसे ही नष्ट कर सकता है, जैसे तिरछी गति से आकाश में चलता हुआ धूमकेतु पृथ्वी का सर्वनाश कर डालता है।

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तव पुत्रशतं चैव कर्ण पञ्च च पाण्डवाः।

पृथिवीमनुशासेयुरखिलां सागराम्बराम्।।44।।

धृतराष्ट्र! आपके सौ पुत्र, कर्ण तथा पाँचों पांडव हिल-मिलकर इस धरती पर शासन करें। इसी में सबका कल्याण है।

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धार्तराष्ट्रा वनं राजन् व्याघाः पाण्डुसुता मताः।

मां वनं छिन्धि सव्याघं मा व्याघा नीनशन् वनात्।।45।।

न स्याद् वनमृते व्याघान् व्याघा न स्युऋर्ंते वनम्।

वनं हि रक्ष्यते व्याघैर्व्याघान् रक्षति काननम्।।46।।

राजन! आपके पुत्र वन के समान हैं और पांडव शेर के समान। आप वन और शेर दोनों को नष्ट होने से रोकिए, क्योंकि वन से शेर सुरक्षित रहते हैं और शेरों से वन। ये दोनों एक-दूसरे के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हैं।

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न तथेच्छन्ति कल्याणान् परेषां वेदितुं गुणान्।

यथैषा ज्ञातुमिच्छन्ति नैर्गुण्यं पापचेतसः।।47।।

बुरे लोगों की रुचि दूसरों के गुणों से ज्यादा उनके दुर्गुणों के बारे में जानने में होती है।

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अर्थसिद्धिं परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेत्।

न हि धर्मादपैत्यर्थ स्वर्गलोकादिवामृतम्।।48।।

जो व्यक्ति धन, संपत्ति और ऐश्वर्य का इच्छुक है, उसे अपना पूरा जीवन धर्माचरण में बिताना आवश्यक है, क्योंकि धर्म धन के साथ वैसे ही जुड़ा है जैसे स्वर्ग के साथ अमृत।

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यस्यात्मा विरतः पापात् कल्याणे च निवेशितः।

तेन सर्वमिदं बुं प्रकृतिर्विकृतिश्च या।।49।।

जो व्यक्ति जीवन में सदैव बुरे कर्मों से दूर रहता है, जो धर्म-कर्म को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लेता है; उसे लोक-परलोक की सारी अच्छाइयों-बुराइयों का ज्ञान हो जाता है।

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यो धममर्थं कामं च यथाकालं निषेवते।

धमार्थकामसंयोग सोऽमुत्रेह च विन्दति।।50।।

जो पुरुष धर्म, अर्थ और काम का तय समय पर शात्रानुसार उपभोग करता है, वह जीते जी और मृत्यु के बाद भी इन तीनों का उपभोग करता है।

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सन्नियच्छति यो वेगमुत्थितं क्रोधहर्षयो।

स श्रियो भाजनं राजन् यश्चापत्सु न मुह्यति।।51।।

राजन्! जो पुरुष क्रोध और हर्ष में अपनी भावनाओं को छिपाकर शांत बना रहता है और मुसीबत में भी धैर्य नहीं खोता, वही राजलक्ष्मी पाने का सच्चा अधिकारी होता है।

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बलं पञ्चविधं नित्यं पुरुषाणां निबोध मे।

यत्तु बाहुबलं नाम कनिष्ठं बलमुच्यते।।52।।

महाराज! अब मैं आपको मनुष्यों के पाँच प्रकार के बलों के बारे में बताता हूँ। इनमें शारीरिक बल सबसे निकृष्ट बल होता है।

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अमात्यलाभो भद्रं ते द्वितीय बलमुच्यते।

तृतीयं धनलाभं तु बलमाहुर्मनीषिणः।।53।।

गुणी और हितैषी मंत्री का मिलना दूसरा बल है। धन-संपत्ति की मौजूदगी को विद्वान तीसरा बल कहते हैं।

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यत्त्वस्य सहजं राजन् पितृपैतामहं बलम्।

अभिजातबलं नाम तच्चतुर्थं बलं स्मृतम्।।54।।

परिवार के बुजुगऱ्ों से जो स्वाभाविक बल प्राप्त होता है उसे ‘अभिजात’ बल कहते हैं; जो चौथा बल है।

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येन त्वेतानि सर्वाणि सङ्गृहीतानि भारत।

यद् बलानां बलं श्रेष्ठं तत् प्रज्ञाबलमुच्यते।।55।।

पाँचवाँ और सबसे श्रेष्ठ बल बुद्धिबल है, जो शरीर के अन्य सभी बलों को नियंत्रित करता है।

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महते योऽपकाराय नरस्य प्रभवेन्नरः।

तेन वैरं समासज्य दूरस्थोऽमीति नाश्चसेत्।।56।।

शत्रु चाहे राज्य से बहुत दूर बैठा हो तो भी राजा को उससे सदा सावधान रहना चाहिए। थोड़ी सी भी चूक और उदासीनता राजा को बड़ा नुकसान पहुँचा सकती है।

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त्रीषु राजसु सर्पेषु स्वाध्यायप्रभुशत्रुषु।

भोगेष्वायुषि विश्चासं कः प्राज्ञः कर्तुर्महति।।57।।

बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे त्री, राजा, सर्प, शत्रु, भोग, धातु तथा लिखी बात पर आँख मूँदकर भरोसा न करें।

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प्रज्ञाशरेणाभिहतस्य जन्तोश्चिकित्सकाः सन्ति न चौषधानि।

न होममात्रा न च मङगलानि नाथर्वणा नाप्यगदाः सुसिद्धाः।।58।।

जिस व्यक्ति को बुद्धिबल से मारा जाता है, उसके उपचार में योग्य चिकित्सक, औषधियाँ, जड़ी-बूटियाँ, यज्ञ, हवन, वेद मंत्र आदि सारे उपाय व्यर्थ हो जाते हैं।

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‘एका केवलमेव साधनविधौ सेनाशतेभ्योऽधिका।

नन्दोन्मूलनदृष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मागान्मम’।।

सर्पाश्चाग्निश्च सिंहश्च कुलपुत्रश्च भारत।

नावज्ञेया मनुष्येण सर्वे ह्येतेऽतितेजसः।।59।।

हे भरतवंशी! अग्नि, सर्प, सिंह तथा अपने कुल में जनमें व्यक्तियों का कभी अनादर नहीं करना चाहिए; क्योंकि इनका तेज प्रतिशोध स्वरूप जलाकर खाक कर सकता है।

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अग्निस्तेजो महल्लोके गूढस्तिष्ठति दारुषु।

न चोपयुङ्ते तद्दारु यावन्नोद्दीप्यते परै।।60।।

स एव खलु दारुभ्यो यदा निर्मथ्य दीप्यते।

तद्दारु च वनं चान्यन्निर्दहत्याशु तेजसा।।61।।

अग्नि संसार का एक महानतम तेज है। अग्नि लकड़ी में छिपी रहती है, लेकिन जब तक लोग उसे जलाएँ नहीं, वह काठ को नहीं जलाती। जब दो लकडि़यों को रगड़कर अग्नि पैदा की जाती है तो वह अपने साथ-साथ सारे जंगल को भी जलाकर खाक कर देती है।

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एवमेव कुले जाता पावकोपमतेजसः।

क्षमावन्तो निराकाराः काष्ठेऽग्निरिव शेरते।।62।।

श्रेष्ठ कुल में जनमें पांडव भी काष्ठ में छिपी सुसुप्त अग्नि की भाँति शांत बने हुए हैं, लेकिन यदि उन्हें उद्वेलित किया गया तो वे लपटों की तरह भड़क भी सकते हैं।

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लताधर्मा त्वं सपुत्रः शालाः पाण्डुसुत्ता मताः।

न लता वर्धते जातु महाद्रुममनाश्रिता।।63।।

हे राजन्! आपके पुत्र दुर्योधनादि और आप कमजोर बेलों के समान हैं और युधिष्ठिर, अर्जुन आदि पाँच पांडव विशाल वृक्ष के समान हैं। स्मरण रखें, बेलें बिना वृक्ष के सहारे आगे नहीं बढ़ सकतीं।

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वनं राजंस्तव पुत्रोऽम्बिकेय सिंहान् वने पाण्डवांस्तात विद्धि।

सिंहैर्विहीनं हि वनं विनश्येत् सिंहाः विनश्येयुऋर्ंते वनेन।।64।।

धृतराष्ट्र आप अपने पुत्रों को वन के समान समझिए और पांडवों को शेर के समान। शेर वन में रहकर वन की रक्षा करते हैं। लोग उसे काटने से डरते हैं अतः उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाते। इसी प्रकार वन शेर का आश्रय है, उसके कटने पर शेर भी नष्ट हो जाएँगे। दोनों के बचाव के लिए दोनों की रक्षा जरूरी है।

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।।पाँचवाँ अध्याय समाप्त।।






6. विदुर उवाच

ऊर्ध्व प्राणा हयुक्रामन्ति यूनः स्थविर आयति।

प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते।।1।।

‘अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्’।।

वि दुर ने कहा-जब कोई बुजुर्ग या आदरणीय पुरुष किसी युवा व्यक्ति के निकट आता है तो उस युवा के प्राण अपने स्थान से विचलित होने लगते हैं; उसे बहुत घबराहट होती है और वह उस बुजुर्ग पुरुष के स्वागत, सम्मान में उठ खड़ा होता है तो उसके प्राण वापस ठीक स्थान पर आ जाते हैं और उसकी घबराहट व बेचैनी भी समाप्त हो जाती है। अर्थात् बुजुगऱ्ों का आशीर्वाद कल्याणकारी है।

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पीठं दत्त्वा साधवेऽभ्यागताय आनीयापः परिनिर्णिज्य पादौ।

सुखं पृष्ट्वा प्रतिवेद्यात्मसंस्थां ततो दद्यादन्नमवेक्ष्य धीरः।।2।।

मनुष्य का यह कर्तव्य है कि घर आए अतिथि को योग्य आसन देकर आदरपूर्वक बैठाए, उसकी कुशलता पूछे और अपनी कुशलता बताए फिर यथाशक्ति उसे भोजन कराए।

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यस्योदकं मधुपर्कं च गां च न मत्रवित् प्रतिगृह्लाति गेहे।

लोभाद् भयादथ कार्पण्यतो वा तस्यानर्थं जीवितमाहुरार्या।।3।।

जिस घर का अतिथि आतिथेय स्वीकार नहीं करता, वहाँ भोजन ग्रहण नहीं करता, न दान-दक्षिणा लेता है, शात्रों ने उस गृहस्थ का जीवन व्यर्थ कहा है।

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चिकित्सकः शल्कर्ताऽवकीर्णी स्तेनः क्रुरो मद्यपो भूणहा च।

सेनाजीवी श्रुतिविक्रायकश्च भृशं प्रियोऽप्यतिथिर्नोदकार्ह।।4।।

बिकाऊ चिकित्सक, दूसरों को दुख पहुँचानेवाले, भोगी, चोर, क्रूर, शराबी, गर्भ-हत्या करनेवाले, सैनिक तथा ज्ञान बेचने वाले हालाँकि सम्मान के योग्य नहीं हैं, फिर भी घर आने पर इनका अतिथि सत्कार करना चाहिए।

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अविक्रयं लवणं पक्वमन्नं दधि क्षीरं मधु तैलं घृं च।

तिला मांसं फलमूलानि शाकं रत्तंक्त वासः सर्वगन्धा गुडाश्च।।5।।

दूध, दही, नमक, पका भोजन, शहद, तेल, घी, मांस, तिल, फल, जड़ें, रक्त, लाल वत्र, इत्र-सुंध, गुड़ आदि वस्तुएँ नहीं बेचने चाहिए। प्राचीन काल में इन वस्तुओं का मुफ्त में आदान-प्रदान होता था। आज इनका व्यापार होता है। हाँ, रक्त आज भी नहीं बेचा जाता।

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आरोषणो यः समलोष्टाश्मकाञ्चनः प्रहीणशोको गतसन्धिविग्रहः।

निन्दाप्रशंसोपरतः प्रियाप्रिये त्यजन्नुदासीनवदेष भिक्षुकः।।6।।

संन्यासी उसी व्यक्ति को कहा जा सकता है जो क्रोध नहीं करता; सुख-दुख, शोक-हर्ष से परे हो; मिट्टी-पत्थर और सोने को एक समान समझता हो; जो न किसी से प्रेम करता हो न किसी से घृणा और शत्रुता; जो न किसी की बुराई करता हो न प्रशंसा।

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नीवारमूलेङगदशाकवृत्तिः सुंयतात्माग्निकार्येषु चोद्यः।

वने वसन्नतिथिष्वप्रमत्तो धुरन्धरः पुण्यकृदेष तापसः।।7।।

जो मन को नियंत्रित रखकर जंगली बीज, कंद, मूल, फल, शाक, भाजी आदि से जीवन निर्वाह करता है। नियमित यज्ञ, हवन और जप करता है तथा अभाव में भी अतिथि सेवा को सदा तत्पर रहता है, वही श्रेष्ठ तपस्वी कहलाता है।

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अपकृत्य बुद्धिमतो दूरस्थोऽस्मीति नाश्चसेत्।

दीघौ बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिंसति हिंसितः।।8।।

सज्जन पुरुष की बुराई करके आप चाहे जितनी दूर जाकर छिप जाएँ, वह आपको ढूँढ़ ही लेगा। और फिर आपको कोई भी नहीं बचा पाएगा। वह आपको आपकी बुराई का दंड देगा।

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न विश्चसेदविश्चस्ते विश्चस्ते नातिविश्चसेत्।

विश्चासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति।।9।।

जो व्यक्ति भरोसे के लायक नहीं है, उस पर तो भरोसा न ही करें, लेकिन जो बहुत भरोसेमंद है, उस पर भी अंधे होकर भरोसा न करें, क्योंकि जब ऐसे लोग भरोसा तोड़ते हैं तो बड़ा अनर्थ होता है।

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अनीषुर्गुप्तदारश्च संविभागी प्रिंवदः।

श्लक्ष्णो मधुरवाव्क्त त्रीणां न चासां वशगो भवेत्।।10।।

मनुष्य को चाहिए कि समाज में मिलजुलकर रहे, सबको न्यायपूर्वक सबका हिस्सा दे, मीठा बोले, त्रियों का आदर करे, लेकिन उनके अधीन न हो।

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पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः।

त्रियः श्रियो गृहस्योत्तक्तास्तस्माद् रक्ष्या विशेषतः।।11।।

त्रियों को घर की शोभा, पवित्रा, सौभाग्यशालिनी, पूजनीया तथा घर की लक्ष्मी कहा गया है। इसलिए इनकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए।

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पुरन्तःपुं दद्यात् मातुर्दद्यान्महानसम्।

गोषु चात्मसमं दद्यात् स्वयमेव कृषिं व्रजेत्।।

भृत्यैवर्णणिज्यचारं च पुत्रः सेवेत च द्विजान्।।12।।

पिता को घर की रक्षा का कार्य करना चाहिए, वफादार सेवक को गायों की सेवा में लगाना चाहिए, माता को रसोईघर का कार्य करना चाहिए, नौकर व्यापारिक कार्य करें, पिता स्वयं खेती के कार्य करे और पुत्र ब्राह्मणों-विद्वानों की सेवा।

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अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम्।

तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति।।13।।

पानी से आग, ब्राह्मण से क्षत्रिय तथा पत्थर से लोहे की उत्पत्ति हुई है, लेकिन अपने मूल स्थान पर ये शांत बने रहते हैं, वैसे पूरे ब्रह्मांड में इनका तेज व्याप्त रहता है।

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नित्यं सन्तः कुले जाताः पावकोपमतेजसः।

क्षमावन्तो निराकाराः काष्ठेऽग्निरिव शेरते।।14।।

जैसे काष्ठ में अग्नि छिपी रहती है वैसे ही सज्जन पुरुष की सज्जनता, तेज, क्षमाशीलता और कुशीलता उसके अंदर छिपे रहते हैं। अर्थात् वह इनका प्रकटीकरण नहीं करता।

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यस्य मत्रं न जानन्ति ब्राह्याश्चाभ्यन्तराश्च ये।

स राजा सर्वतश्चक्षुश्चिरमैश्चर्यमश्नुते।।15।।

जो राजा अपनी गुप्त नीतियों को पास के, दूर के सब लोगों से छिपाए रखता है तथा पूरे राज्य पर कड़ी नजर रखता है, उसका राज्य स्थायी होता है।

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करिष्यन्न प्रभाषेत कृतान्येव तु दर्शयेत्।

धर्मकामार्थकार्याणि तथा मत्रो न भिद्यते।।16।।

जो राजा कार्य करने से पहले उसका बखान न करे तथा कार्य हो जाने पर ही उसे सार्वजनिक करे, उसे नीतिवान राजा कहा जाता है।

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गिरिपृष्ठमुपारुह्य प्रासादं वा रहोगतः।

अरण्ये निःशलाके वा तत्र मत्रो विधीयते।।17।।

पहाड़ के शिखर पर, महल के एकांत कक्ष में या वन में निर्जन स्थान पर विशेष कार्यों की मंत्रणा करनी चाहिए।

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अपण्डितो वापि सुहृत् पण्डितो वाप्यनात्मवान्।।

नापरीक्ष्य महीपालः कुर्य्यात् सचिवमात्मनः।।18।।

महाराज! जो मित्र न हो, उसे अपनी गुप्त नीति न बताएँ। इसी प्रकार मूर्ख मित्र तथा चंचल स्वभाव वाले विद्वान को भी अपनी गुप्त नीति न बताएँ। इसलिए राजा जिसे भी मंत्री बनाए, उसकी अच्छी तरह जाँच-परख कर ले।

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अमात्ये ह्यर्थलिप्सा च मत्ररक्षणमेव च।

कृतानि सर्वकार्याणि यस्य पारिषदा विदु।।19।।

धर्मे चार्थे च कामे च स राजा राजसत्तमः।

गूढमत्रस्य नृपतेस्तस्य सिद्धिरसंशयम्।।20।।

जो राजा अपने सभी कार्यों को जब पूरे करके सार्वजनिक करता है, तभी सभा के लोग जान पाते हैं। वह राजा श्रेष्ठ राजा कहलाता है। उसके सभी कार्य स्वतः पूरे होते रहते हैं।

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अप्रशस्तानि कार्याणि यो मोहादनुतिष्ठति।

स तेषां विपरिभंशाद् भंश्यते जीवितादपि।।21।।

जो मोह-माया में पड़कर अन्याय का साथ देता है, वह अपने जीवन को नरक-तुल्य बना लेता है।

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कर्मणां तु प्रशस्तानामनुष्ठानं सुखावहम्।

तेषामेवाननुष्ठानं पश्चात्तापकरं मतम्।।22।।

अच्छे कार्य करने से जीवन में अच्छा फल मिलता है। बुरे कार्य करने से पाप मिलता है जिसका पछतावा करना पड़ता है।

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अनधीत्य यथा वेदान् न विप्र श्राद्धमर्हति।

एवमश्रुतषाड्गुण्यो न मत्रं श्रोतुमर्हति।।23।।

जैसे वेद-पुराण-उपनिषद् आदि धर्म-ग्रंथों के अध्ययन के बिना ब्राह्मण को कहीं सम्मान नहीं मिलता, वैसे ही जिस व्यक्ति को राजनीति के छह नियम-संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव तथा समाश्रय का ज्ञान न हो उसे निजी मंत्री नहीं बनाना चाहिए।

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स्थानवृद्धिक्षययज्ञस्य षाड्गुण्यविदितान्मनः।

अनवज्ञातशीलस्य स्वाधीना पृथिवी नृप।।24।।

जो राजा राजनीति के छहों नियम-संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव तथा समाश्रय-जानता है, जो अपने बल, आकार और कमियों को जानता है, प्रजा जिसकी प्रशंसा करती है, उसी राजा का राज्य स्थायी होता है।

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अमोघक्रोधहर्षस्य स्वयं कृत्यान्ववेक्षिणः।

आत्मप्रत्ययकोशस्य वसुदैव वसुन्धरा।।25।।

जो राजा बेकार में न तो खुश होता है, न किसी पर कुद्ध होता है, जो कार्य को कई बार जाँचता-परखता है और स्वयं पर भरोसा रखता है, उसका खजाना हमेशा धन से भरा रहता है।

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नाममात्रेण तुष्येत छत्रेण च महीपतिः।

भृत्येभ्यो विसृजेदर्थान्नैकः सर्वहरो भवेत्।।26।।

राजा तभी तक ‘राजा’ बना रह सकता है, जब तक कि उसके सेवक उससे संतुष्ट रहें। अतः अपना ‘राजछत्र’ बचाए रखने के लिए राजा के लिए यह आवश्यक है कि वह धन और मान से अपने सेवकों को संतुष्ट रखे, ताकि वे उसके स्वामीभक्त बने रहें और उसके लिए कोई चुनौती न खड़ी करें।

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ब्राह्मणं ब्राह्मणो वेद भर्ता वेद त्रियं तथा।

अमात्यं नृपतिर्वेद राजा राजानमेव च।।27।।

समतुल्य लोग ही एक-दूसरे को ठीक प्रकार से जान-समझ पाते हैं जैसे ज्ञानी को ज्ञानी, पति को पत्नी, मंत्री को राजा तथा राजा को प्रजा। अतः अपनी बराबरी वाले के साथ ही संबंध रखना चाहिए।

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न शत्रुर्वशमापन्नो मोत्तक्तव्यो वध्यतां गतः।

न्यूग्भूत्वा पर्युपासीत वध्यं हन्याद् बले सति।।28।।

कटु शत्रु को मौका मिलते ही मार देना चाहिए। यदि वह आपसे अधिक बलवान हो तो नम्रता से उसकी हाँ-में-हाँ मिलानी चाहिए और मौका मिलते ही मार देना चाहिए। क्योंकि यदि शत्रु को जीवित छोड़ा गया तो वह आपके नाश का कारण बनता है।

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दैवतेषु प्रयत्नेन राजसु ब्राह्मणेषु च।

नियन्तव्यः सदा क्रोधो वृद्धबालातुरेषु च।।29।।

ब्राह्मणों, बुजुगऱ्ों, देवी-देवताओं, राजा, बच्चों और रोगियों पर क्रोध आए भी तो उसे दबा लेना चाहिए। इससे जग में यश मिलता है।

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निरर्थं कलहं प्राज्ञो वर्जयेन्मूढसेवितम्।

कीर्तिं च लभते लोके न चानर्थेन युज्यते।।30।।

बिना बात के मूर्ख लोग झगड़ा करते हैं; बुद्धिमान को इस बुराई से बचना चाहिए। इससे लोक में यश मिलता है और संकटों से मुक्ति मिलती है।

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प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः।

न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव त्रियः।।31।।

न जिसकी प्रशंसा से कोई खुश होता है, न जिसके क्रोध से किसी को भय लगता है-ऐसा राजा वैसा ही होता है जैसा किसी त्री का नपुंसक पति। अर्थात् उसे कोई नहीं चाहता।

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न बुद्धिर्धनलाभाय न जाडयमसमृद्धये।

लोकपर्यायवृत्तान्तं प्राज्ञो जानाति नेतरः।।32।।

यह जरूरी नहीं कि मूर्ख व्यक्ति दरिद्र हो और बुद्धिमान धनवान। अर्थात् बुद्धि का अमीरी या गरीबी से कोई संबंध नहीं है। जो ज्ञानी पुरुष लोक-परलोक की बारीकियों को समझते हैं; वे ही इस मर्म को समझ पाते हैं।

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विद्याशीलवयोवृद्धान् बुद्धिवृद्धांश्च भारत।

धनाभिजातवृद्धांश्च नित्यं मूढोऽवमन्यते।।33।।

हे भरतश्रेष्ठ! मूर्ख लोग कभी अपने से बड़े और सम्मानित लोगों का आदर नहीं करते। इनसे दूर रहना चाहिए।

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अनार्यवृत्तमप्राज्ञमसूयकमधार्मिकम्।

अनर्था क्षिप्तमायान्ति वाग्दुष्टं क्रोधनं तथा।।34।।

महाराज! चरित्रहीन, दूसरों की बुराई करने वाले, क्रूर, कटु भाषी, अच्छाई में बुराई ढूँढ़ने वाले मूढ़ लोग सदा संकट और दुख-दरिद्रता में डूबे रहते हैं।

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अविसंवादनं दानं समयस्याव्यतिक्रमः।

आवर्तयन्ति भूतानि सम्यव्क्तप्रणिहिता च वाव्क्त।।35।।

ईमानदार, दानी, अपनी बात पर दृढ़ रहने वाले, कर्तव्यपरायण और मदुभाषी लोग शत्रुओं को भी अपना बना लेते हैं।

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अविसंवादको दक्षः कृतज्ञो मतिमानृजु।

अपि सक्षीणकोशोऽपि लभते परिवारणम्।।36।।

सच्चा, निःस्वार्थी, कृतज्ञ, चतुर, बुद्धिमान और सरल स्वभाव का राजा खजाना खाली होने पर भी वफादार लोगों को अपने साथ जोड़े रखता है।

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धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।

मित्राणां चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।37।।

महाराज! शात्रों में सात गुण धन-संपत्ति की बढ़ोतरी में सहायक कहे गए हैं। ये सात गुण हैं-(1) धीरज, (2) पवित्रता, (3) मन का संयम,

(4) इंद्रिय-संयम, (5) उदारता, (6) मीठी वाणी तथा (7) शुद्ध आचरण।

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असंविभागी दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।

तादृङ्नराधिपो लोके वर्जनीयो नराधिप।।38।।

राजन्। जो राजा दुर्जन, कृतघ्न और निर्लज्ज है; जो प्रजा को कष्ट देकर अपना खजाना भरता है; जो अपने सेवकों की उपेक्षा करता है, ऐसा राजा त्याग देने के लायक है और उसका राज्य अधिक समय तक नहीं चलता।

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न च रात्रौ सुखं शेते ससर्प इव वेश्मनि।

यः कोपयति निर्दोषं सदोषोऽभ्यन्तरं जनम्।।39।।

जो स्वयं बुरा आदमी होता है, लेकिन अपने अच्छे संबंधियों की बुराई करता है, वह कभी चैन की नींद नहीं सो पाता। उसके सीने पर रात भर साँप लोटते रहते हैं।

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येषु दुष्टेषु दोषः स्याद् योगक्षेमस्य भारत।

सदा प्रसादनं तेषां देवतानामिवाचरेत्।।40।।

राजन्! जिन लोगों की बुराई करने से संकट की स्थिति पैदा हो जाती है, ऐसे सज्जनों को सदैव देवता की भाँति पूजा जाना चाहिए, ताकि राज्य विपदा से बचा रहे।

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येऽर्था त्रीषु समायुत्तक्ताः प्रमत्तपतितेषु च।

ये चानार्ये समासत्तक्ताः सर्वे ते संशयं गताः।।41।।

आलसी, अधम, दुर्जन तथा त्री के हाथों सौंपी संपत्ति बरबाद हो जाती है। इनसे सावधान रहना चाहिए।

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यत्र त्री यत्र कितवो बालो यत्रानुशासिता।

मज्जन्ति तेऽवशा राजन् नद्यामश्मप्लवा इव।।42।।

महाराज! जिस राज्य पर जुआरी, बच्चे या त्री का शासन हो, वहाँ के लोग पत्थर की नाव पर सवार होकर नदी पार करने की कोशिश में डूब मरते हैं। अर्थात् इन लोगों का शासन क्षण-भंगुर होता है।

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प्रयोजनेषु ये सत्तक्ता न विशेषेषु भारत।

तानहं पण्डितान् मन्ये विशेषा हि प्रसङिगनः।।43।।

जो लोग जरूरत के मुताबिक काम करते हैं, लोभ में पड़कर अधिक के पीछे नहीं भागते, वे मेरी दृष्टि में ज्ञानी हैं, क्योंकि अधिक के पीछे भागने से संघर्ष पैदा होते हैं।

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यं प्रशंसन्ति कितवा यं प्रशंसन्ति चारणाः।

यं प्रशंसन्ति बन्धक्यो न स जीवति मानवः।।44।।

चापलूस, जुआरी और गंदी त्रियाँ जिसकी बड़ाई करती हैं, ऐसा व्यक्ति जीते-जी मुरदे के समान है। अर्थात् उसका जीवन बेकार है।

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हित्वा तान् परमेष्वासान् पाण्डवानमितौजसः।

अहितं भारतैश्चर्यं त्वया दुर्योधने महत्।।45।।

तं द्रक्ष्यसि परिभष्टं तस्मात् त्वमचिरादिव।

ऐश्चर्यमदसम्मूं बलिं लोकत्रयादिव।।46।।

राजन्! आपने राजा बनने के योग्य तेजस्वी और पराक्रमी पांडवों को त्याग कर दुर्योधन के हाथ में राज्यलक्ष्मी सौंपकर बहुत बड़ी गलती की है। अब आपको पछताना होगा, जब आप दुर्योधन को राजा बलि की भाँति नष्ट होता देखेंगे।

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।।छठा अध्याय समाप्त।।






7. धृतराष्ट्र उवाच

अनीश्चरोऽयं पुरुषो भवाभवे सूत्रप्रोता दारुमयीव योषा।

धात्रा तु दिष्टस्यवशे कृतोऽयं तस्माद् वदत्वं श्रवणे धृतोऽहम्।।1।।

धृ तराष्ट्र ने कहा-महात्मा विदुर! धन-संपत्ति और मृत्यु मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं पा सकता। मनुष्य को भगवान् ब्रह्मा ने भाग्य से बाँध रखा है। इस विषय में मैं तुम्हारी व्याख्या सुनना चाहता हूँ।

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विदुर उवाच

अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन्।

लभते बुद्धयवज्ञानमवमानं च भारत।।2।।

विदुर ने कहा-राजन्! समय खराब हो तो देवगुरु बृहस्पति की भी कोई नहीं सुनता। उन्हें भी अज्ञानी ठहराया जाता है और उन्हें अपमान सहना पड़ता है।

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प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः।

मत्रमूलबलेनान्यो यः प्रियः प्रिय एव सः।।3।।

कोई पुरुष दान देकर प्रिय होता है, कोई मीठा बोलकर प्रिय होता है, कोई अपनी बुद्धिमानी से प्रिय होता है; लेकिन जो वास्तव में प्रिय होता है, वह बिना प्रयास के प्रिय होता है।

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द्वेष्यो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डितः।

प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेष्ये पापानि चैव ह।।4।।

जो प्रिय लगता है उसके बुरे काम भी अच्छे लगते हैं; लेकिन जो अप्रिय है, वह चाहे बुद्धिमान, सज्जन या विद्वान हो, बुरा ही लगता है।

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उत्तंक्त मया जातमात्रेऽपि राजन् दुर्योधनं त्यज पुत्रं त्वमेकम्।

तस्य त्यागात् पुत्रशतस्य वृद्धिरत्यागात् पुत्रशतस्य नाशः।।5।।

महाराज! दुर्योधन के जन्म के समय ही मैंने आपको सावधान किया था कि यह पुत्र आपके कुल का नाश कर देगा, इसे त्याग दें, लेकिन मोहवश आपने मेरी बात नहीं मानी। अगर आप एक दुर्योधन को त्याग देते तो आपके सौ पुत्र उन्नति करते, अब उनका नाश अवश्यंभावी है।

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न वृद्धिर्बहु मन्तव्या या वृद्धिः क्षयमावहेत्।

क्षयोऽपि बहु मन्तव्यो क्षयो वृद्धिमावहेत्।।6।।

न स क्षयो महाराज यः क्षयो वृद्धिमावहेत्।

क्षयः स त्विह मन्तव्यो यं लब्ध्वा बहु नाशयेत्।।7।।

राजन्! जो लाभ भविष्य में बड़े विनाश का कारण बने, उसे त्याग देना चाहिए। और जो हानि भविष्य में बड़े लाभ का कारण बने, उसका सम्मान करना चाहिए। वास्तव में हम जिसे हानि कहते हैं, यदि वह लाभ का कारण हो, तो वह हानि है ही नहीं। परंतु उस लाभ को भी हानि ही मानना चाहिए, जो बड़ी क्षति का कारण बने।

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समृद्धा गुणतः केचिद् भवन्ति धनतोऽपरे।

धनवृद्धान् गुणैर्हीनान् धृतराष्ट्र विवर्जय।।8।।

धृतराष्ट्र! कुछ लोग धन से बड़े होते हैं, कुछ लोग गुणों से। विद्वानों ने कहा है कि धनी लोग भी यदि गुणहीन हैं तो उन्हें छोड़ देना चाहिए।

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धृतराष्ट्र उवाच

सर्वं त्वमायतोयुत्तंक्त भाषसे प्राज्ञसम्मतम्।

न चोत्सहे सुं त्यक्तु यतो धर्मस्ततो जयः।।9।।

धृतराष्ट्र ने कहा-विदुर! तुम्हारी बात शात्र-सम्मत है और इसके परिणाम भी सदैव लाभदायक होते हैं। यह भी ठीक है कि धर्म के मार्ग पर चलनेवालों की ही जीत होती है, तो भी मैं अपने पुत्र दुर्योधन को नहीं त्याग सकता।

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विदुर उवाच

अतीवगुणसम्पन्नो न जातु विनयान्वितः।

सुसूक्ष्ममपि भूतानामुपमर्दमुपेक्षते।।10।।

जो पुरुष सज्जन और गुणी होता है, वह थोड़े लोगों की मृत्यु को भी अनदेखा नहीं कर सकता। अर्थात् थोड़ी हानि ही बड़ी हानि की ओर ले जाती है।

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परापवादनिरताः परदुखोदयेषु च।

परस्परविरोधे च यतन्ते सततोत्थिताः।।11।।

सदोषं दर्शनं येषां संवासे सुमहद् भयम्।

अथादाने महान् दोषः प्रदाने च महद् भयम्।।12।।

ये वै भेदनशीलास्तु सकामा नित्रपाः शठाः।

ये पापा इति विख्याताः संवासे परिगर्हिताः।

युत्तक्ताश्चान्यैर्महादोषैर्ये नरास्तान् विवर्जयेत्।।13।।

दूसरों की बुराई करनेवाले, लोगों को दुख देनेवाले, आपसी मतभेद पैदा करनेवाले, अशुभ देखनेवाले, अपराधी, आचरणहीन, लज्जाहीन, लोभी, पापी, अत्याचारी और क्रूर लोग असामाजिक माने गए हैं, इनका त्याग कर देना चाहिए।

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निवर्तमाने सौहार्दे प्रीतिर्नीचे प्रणश्यति।

या चैव फलनिर्बृत्तिः सौहृदे चैव यत् सुखम्।।14।।

यतते चापवादा यत्नमारभते क्षये।

अल्पेऽप्यपकृते मोहान्न शान्तिमधिगच्छति।।15।।

तादृशै सङगतं नीचैर्नृशंसैरकृतात्मभिः।

निशम्य निपुणं बुद्धया विद्वान् दूराद् विवर्जयेत्।।16।।

जो लोग स्वार्थी होते हैं, वे मतलब निकल जाने पर दोस्ती तोड़ लेते हैं; उनका प्रेम भी समाप्त हो जाता है। ऐसे स्वार्थी फिर अपने दोस्त की ही निंदा आरंभ कर देते हैं और उसके नाश से भी नहीं चूकते। ऐसे अशांत, मतलबी, क्रूर, इंद्रिय-लोलुप व्यक्ति से दूर रहने में ही भलाई है।

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यो ज्ञातिमनुगृह्लाति दरिद्रं दीनमातुरम्।

स पुत्रपशुभिर्वृद्धिं श्रेयश्चानन्त्यमश्नुते।।17।।

दीन-दुखियों, रोगियों, दरिद्रों, अपने संबंधियों आदि के कल्याण में लगा व्यक्ति-संपन्न और सुखी जीवन बिताता है।

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ज्ञातयो वर्धनीयास्तैर्य इच्छन्यात्मनः शुभम्।

कुलवृद्धिं च राजेन्द्र तस्मात् साधु समाचर।।18।।

श्रेयसा योक्ष्यते राजन् कुर्वाणो ज्ञातिसक्रियाम्।

विगुणा ह्यपि संरक्ष्या ज्ञातयो भरतर्षभ।

किं पुनर्गुणवन्तस्ते त्वत्प्रसादाभिकाक्षिणः।।19।।

महाराज! जो लोग अपना कल्याण चाहते हैं, उन्हें अपने कुटुंबियों की उन्नति के लिए उनकी सहायता करनी चाहिए। कुटुंबी चाहे गुणहीन ही क्यों न हों, उनकी सहायता करनी चाहिए और यदि कुटुंबी गुणी हों, फिर तो उनकी पूजा करनी चाहिए। इससे निश्चित ही वंश-वृद्धि और राजलक्ष्मी मिलती है।

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प्रसादं कुरु वीराणां पाण्डवानां विशाम्पते।

दीयतां ग्रामकाः केचित् तेषां वृत्त्यर्थमीश्चर।।20।।

राजन्! मेरी प्रार्थना है, पांडवों को आपकी सहायता की आवश्यकता है, आप उन पर दया कीजिए। उनके जीवन निर्वाह के लिए उन्हें कुछ गाँव दे दीजिए।

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एवं लोके यशः प्राप्तं भविष्यति नराधिप।

वृद्धेन हि त्वया कार्यं पुत्राणां तात शासनम्।।21।।

मेरे भाई! ऐसा करने से चारों ओर आपकी कीर्ति फैलेगी। आप बुजुर्ग हैं, आपके पुत्रों को आपकी बात माननी चाहिए। उन्हें सद्मार्ग पर चलाना आपका कर्तव्य है।

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मया चापि हितं वाच्यं विद्धि मां त्वद्धितैषिणम्।

ज्ञातिभिर्विग्रहस्तात न कर्तव्यः शुभार्थिना।

सुखानि सह भोज्यानि ज्ञातिभिर्भरतर्षभ।।22।।

मेरा भी यह कर्तव्य है कि मैं सदा आपके भले की बात करूँ। मैं आपकी भलाई चाहता हूँ इसलिए कहता हूँ कि अपने संबंधियों से लड़ाई मोल न लें। अपने सुख-दुख उनके साथ बाँटें।

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सम्भोजनं सकथनं सम्प्रीतिश्च परस्परम्।

ज्ञातिभिः सह कार्याणि न विरोधः कदाचन।।23।।

महाराज! कुटुंबियों का कभी विरोध न करें। उनसे प्रेम करें, उनके साथ विचारों का आदान-प्रदान करें और प्रेम से मिल-बैठकर भोजन करें, इसी में सबका कल्याण है।

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ज्ञातयस्तारयन्तीह ज्ञातयो मज्जयन्ति च।

सुवृत्तास्तारयन्तीह दुर्वत्ता मज्जयन्ति च।।24।।

राजन्! कुटुंबी लोग तारनेवाले भी होते हैं और डुबोनेवाले भी। जो कुटुंबी सज्जन होते हैं वे ‘तारक’ होते हैं और वो कुटुंबी दुर्जन होते हैं वे ‘मारक’।

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सुवृत्तो भव राजेन्द्र पाण्डवान् प्रति मानद।

अधर्षणीयः शत्रूणां तैर्वृस्त्वं भविष्यसि।।25।।

महाराज धृतराष्ट्र! आप पांडवों का मान-सम्मान करें। अगर आपको उनकी सुरक्षा मिल गई तो फिर संसार में आपको कोई नहीं हरा सकेगा।

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श्रीमन्तं ज्ञातिमासाद्य यो ज्ञातिरवसीदति।

दिग्धहसं् मृग इव स एनस्तस्य विन्दति।।26।।

जैसे हिरन तीर से मारा जाता है, लेकिन पाप शिकारी को लगता है, वैसे ही यदि आपके किसी पुत्र के कारण आपके कुटुंबियों को कष्ट पहुँचेगा तो उसका पाप आपको ही लगेगा। कुफल आपको ही भोगना पड़ेगा।

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पश्चादपि नरश्रेष्ठ तव तापो भविष्यति।

तान् वा हतान् सुतान् वापि श्रुत्वा तदनुचिन्तय।।27।।

नरेंद्र! क्या पांडवों या अपने पुत्रों की मृत्यु की खबर सुनकर आपको खुशी होगी? मेरे संकेत को समझिए।

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येन खट्वां समारूढः परितप्येत कर्मणा।

आदावेव न तट् कुर्यादधुवे जीविते सति।।28।।

जो काम करके अंत काल में अकेले बैठकर पछताना पड़े, उसे शुरू ही नहीं होने देना चाहिए।

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न कश्चिन्नापनयते पुमानन्यत्र भार्गवात्।

शेषसम्प्रतिपत्तिस्तु बुद्धिमत्स्वेव तिष्ठति।।29।।

जीवन में अनीतिपूर्ण कार्य आम मनुष्य से हो ही जाते हैं। लेकिन अब तक जो अनीतियाँ हो चुकी हैं, उन्हें भूलकर आगे नीतियों के उल्लंघन पर रोक लगनी चाहिए। मुझे विश्वास है आप बुद्धिमानी से इस पर विचार करेंगे।

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दुर्योधनेन यद्येतत् पापं तेषु पुरा कृतम्।

त्वया तत् कुलवृद्धेन प्रत्यानेयं नरेश्चर।।30।।

महाराज धृतराष्ट्र! आप कौरव और पांडवों के बुजुर्ग हैं, अगर दुर्योधन के पांडवों के साथ छल-कपट दिया है तो यह आपका दायित्व है कि आप उनके साथ न्याय करें। अर्थात् अगर दुर्योधन ने छलपूर्वक राज्य हड़प लिया है तो उसे पांडवों को वापस दिलाएँ।

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तांस्त्वं पदे प्रतिष्ठाप्य लोके विगतकल्मषः।

भविष्यसि नरश्रेष्ठ पूजनीयो मनीषिणाम्।।31।।

फिर आप पांडवों को उनका राज्य वापस दिलवा देते हैं तो आप पर लगा पाप का पक्षधर होने का कलंक धुल जाएगा और संसार में आपकी प्रतिष्ठा होगी।

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सुव्याहृतानि धीराणां फलतः परिचिन्त्य यः।

अध्यवस्यति कार्येषु चिरं यशसि तिष्ठति।।32।।

महाराज! जो व्यक्ति बात के मर्म को समझकर उसी के अनुसार कार्य करता है, संसार में उसकी कीर्ति अक्षुण्ण रहती है।

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असम्यगुपयुत्तंक्त हि ज्ञानं सुकुशलैरपि।

उपलभ्यं चाविदितं विदितं चाननुष्ठितम्।।33।।

वह ज्ञान बेकार है जिससे कर्तव्य का बोध न हो; और वह कर्तव्य भी बेकार है जिसकी कोई सार्थकता न हो।

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पापोदयफलं विद्वान् यो नारभति वर्धते।।34।।

यस्तु पूर्वकृत पापमविमृश्यानुवर्तते।

अगाधपङेक दुर्मेधा विषमे विनिपात्यते।।35।।

जो मनुष्य गलत कार्यों से दूर रहता है, उसकी वृद्धि निश्चित है। किंतु जो पाप करता जाता है, उसके परिणाम के बारे में नहीं सोचता, उसे नरक की कष्टकारी यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं।

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मत्रभेदस्य षट् प्राज्ञो द्वाराणीमानि लक्षयेत्।

अर्थसन्ततिकामश्च रक्षेदेतानि नित्यशः।।36।।

मदं स्वप्नमविज्ञानमाकारं चात्मसम्भवम्।

दुष्टामात्येषु विश्रम्भं दूताच्चाकुशलादपि।।37।।

धन-संपत्ति और मान-सम्मान की रक्षा के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह छह बातों के प्रति सावधान रहे। वे छह बाते हैं-(1) मदिरापान, (2) कुटिल मंत्रियों पर भरोसा, (3) नींद, (4) गुप्तचरों की नियुक्ति, (5) आँख-मुँह के विकार तथा (6) मूर्ख दूत पर भरोसा।

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द्वाराण्येतानि यो ज्ञात्वा संवृणोति सदा नृप।

त्रिवर्गाचरणे युत्तक्तः स शत्रूनधितिष्ठति।।38।।

महाराज! जो पुरुष इन छह बातों के प्रति सदा सावधान रहता है, वह राज्य के सारे ऐश्वर्य भोगता है और उसके शत्रु भी उसके नियंत्रण में रहते हैं।

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न वै श्रुतविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य वा।

धर्मार्थौं वेदितुं शक्यौ बृहस्पतिसमैरपि।।39।।

राजन्! कोरे शात्र ज्ञान से राजधर्म नहीं निभता। इसके लिए व्यावहारिक ज्ञान भी आवश्यक है। व्यावहारिक ज्ञान बुजुगऱ्ों की सेवा से अर्जित होता है।

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नष्टं समुदे पतितं नष्टं वाक्यम शृण्वति।

अनात्मनि श्रुं नष्टं हुतमनग्निकम्।।40।।

समुद्र में गिरी हुई वस्तु और ग्रहण न करने पर ज्ञान की बात नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार अनाचारी का शात्र ज्ञान और बिना अग्नि के किया गया यज्ञ नष्ट हो जाता है।

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मत्या परीक्ष्य मेधावी बुद्धया सम्पाद्य चासकृत्।

श्रुत्वा दृष्ट्वाथ विज्ञाय प्राज्ञैमैत्रीं समाचरेत्।।41।।

विद्वानों से मित्रता करने से पूर्व उनकी भली प्रकार से परीक्षा करें। इसके लिए उनके पुराने कार्यों, योग्यताओं और उपलब्धियों की भी पड़ताल करें।

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अकीर्ति विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः।

हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम्।।42।।

सज्जनता से अपकीर्ति दूर की जा सकती है, बल से संकट टाले जा सकते हैं, क्षमा से क्रोध को शांत किया जा सकता है तथा शिष्ट व्यवहार से बुरी आदतों को बदला जा सकता है।

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परिच्छदेन क्षेत्रेण वेश्मना परिचर्यया।

परीक्षेत कुं राजन् भोजनाच्छादनेन च।।43।।

हे राजन्! खान-पान, जन्म-स्थान, घर-बार, व्यवहार, भोजन तथा कपड़ों से किसी के वंश की परीक्षा करनी चाहिए।

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उपस्थितस्य कामस्य प्रतिवादो न विद्यते।

अपि निर्मुत्तक्तदेहस्य कामसत्तक्तस्य किं पुनः।।44।।

अभिमान रहित व्यक्ति भी इच्छित वस्तु को सामने देखकर उसे खुशी-खुशी ग्रहण कर लेता है, तो जो उसका इच्छुक है उसका तो कहना ही क्या।

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प्राज्ञोपसेविनो वैद्यं धार्मिकं प्रियदर्शनम्।

मित्रवन्तं सुवाक्यं च सुहृदं परिपालयेत्।।45।।

ज्ञानियों के सेवक, चिकित्सक, धर्मनिष्ठ, मधुर-भाषी, मन को हरने वाले, निर्मल मित्रों की हमेशा रक्षा और सहायता करनी चाहिए।

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दुष्कुलीनः कुलीनो वा मर्यादां यो न लुर्हृमान्।

धर्मापेक्षी मृदुर्हृमान् स कुलीनशतात् वरः।।46।।

जो मनुष्य मान-मर्यादा का पालन करता है, धर्मनिष्ठ है, अपनी सज्जनता नहीं त्यागता, वह चाहे उत्तम कुल में पैदा हुआ हो या नीच कुल में, हजारों कुलीनों से श्रेष्ठ है।

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ययोश्चित्तेन वा चित्तं निभृं निभृतेन वा।

समेति प्रज्ञया प्रज्ञा तयोमैत्री न जीवर्यति।।47।।

दो व्यक्तियों की मित्रता तभी स्थायी रह सकती है जब उनके मन से मन, गूढ़ बातों से गूढ़ बातें तथा बुद्धि से बुद्धि मिल जाती है।

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दुर्बुद्धिमकृतप्रं छन्नं कूं तृणैरिव।

विवर्जयति मेधावी तस्मिन् मैत्री प्रणश्यति।।48।।

बुद्धिमान व्यक्ति को दुष्टों तथा मूखऱ्ों की संगति घास से ढँके कुओं के समान छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि इनकी संगति से सदैव हानि होती है।

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अविलप्तेषु मूर्खेषु रौद्रसाहसिकेषु च।

अथैवापेतधर्मेषु न मैत्रीमाचरेत् बुधः।।49।।

जो व्यक्ति अहंकारी, क्रोधी, क्रूर, नास्तिक तथा मूर्ख लोगों से मैत्री नहीं करता, वही बुद्धिमान है।

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कृतज्ञं धार्मिकं सत्यमक्षुद्रं दृढभत्तिक्तकम्।

जितेन्द्रिं स्थितं स्थित्यां मित्रमत्यागि चेष्यते।।50।।

सच्चे, धर्मनिष्ठ, कृतज्ञ, दयालु, संयमी, सदाचारी तथा पेमी पुरुष को अपना मित्र बनाना चाहिए। इनकी मित्रता स्थायी होती है।

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इन्द्रियाणामनुत्सगऱ्ौं मुत्युनापि विशिष्यते।

अत्यर्थं पुनरुत्सर्ग सादयेद् दैवतानपि।।51।।

इंद्रियों को अपने इच्छित कार्यों से सर्वथा दूर रखना तो मृत्यु को जीतने से भी कठिन है, लेकिन उन्हें बेलगाम छोड़ दिया जाए तो वे शीलवान देवगण को भी नष्ट कर देती हैं।

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मार्दवं सर्वभूतानामनसूया क्षमा धृतिः।

आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणां चावमानना।।52।।

प्राणिमात्र के प्रति नरम व्यवहार, केवल गुण देखना, धीरज, क्षमाशीलता, तथा मित्रों का आदर करना-विद्वानों के अनुसार ये सभी सद्गुण दीर्घायु में सहायक हैं।

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अपनीतं सुनीतेन योऽर्थं प्रत्यानिनीषते।

मतिमास्थाय सुदृढां तदकापुरुषव्रतम्।।53।।

अन्याय और उत्पीड़न से छीने गए ऐश्वर्य को जो धीर पुरुष सोच-समझकर, धैर्यपूर्वक, राजनीति के बल पर पुनः प्राप्त करना चाहता है, वह सच्चा वीर है।

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आयत्यां प्रतिकारज्ञस्तदात्वे दृढनिश्चयः।

अतीते कार्यशेषज्ञो नरोऽर्थैर्न प्रहीयते।।54।।

जो पुरुष भूतकाल की अपनी गलतियों को जानता है, जो अपने वर्तमान कर्तव्य को समर्पित भाव से करता है और जो भावी दुखों को टालने की विधि जानता है-वह कमी ऐश्वर्यहीन नहीं होता।

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कर्मणा मनसा वाचा यदभीक्ष्णं निषेवते।

तदेवापहरत्येनं तस्मात् कल्याणमाचरेत्।।55।।

मन, वचन और कर्म से हम लगातार जिस वस्तु के बारे में सोचते हैं, वही हमें अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। अतः हमें सदा शुभ चीजों का चिंतन करना चाहिए।

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मङगलालम्भनं योगः श्रुतमुत्थानमार्जवम्।

भूतिमेतानि कुर्वन्ति सतां चाभीक्ष्णदर्शनम्।।56।।

मांगलिक चीजों (रत्न, मूर्तियाँ आदि) का स्पर्श, स्वभाव की चंचलता पर नियंत्रण, धर्म-ग्रंथों का श्रमण-मनन-चिंतन, सज्जनता, कर्तव्य-परायणता और महापुरुषों का सानिध्य-ये बातें शुभ और कल्याणकारी हैं।

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अनिर्वेदः श्रियो मूं लाभस्य च शुभस्य च।

महान् भवत्यनिर्विण्णः सुखं चानन्त्यमश्नुते।।57।।

अपने काम में लगे रहनेवाला व्यक्ति सदा सुखी रहता है। धन-संपत्ति से उसका घर भरा-पूरा रहता है। ऐसा व्यक्ति यश-मान-सम्मान पाता है।

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नातः श्रीमत्तरं किञ्चिदन्यत् पथ्यतमं मतम्।

प्रभविष्णोर्यथा तात क्षमा सर्वत्र सर्वदा।।58।।

मेरे भाई! योग्य और सामर्थ्यवान पुरुष का सबसे बड़ा गुण ‘क्षमा’ को माना गया है। जो हर स्थिति में क्षमा को तत्पर है, लक्ष्मी कभी उसका साथ नहीं छोड़ती।

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क्षमेदशत्तक्तः सर्वस्य शत्तिक्तमान् धर्मकारणात्।

अर्थानर्थौं समो यस्य तस्य नित्यं क्षमा हिता।।59।।

जो पुरुष असमर्थ है, सबको क्षमा करना उसकी मजबूरी है, जो समर्थ है, वह धर्म की दृष्टि से विचार कर सबको क्षमा करे तथा जिसके लिए क्या अच्छा, क्या बुरा-सब समान है, उस अबोध को क्षमा करने में ही उसकी भलाई है।

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यत् सुखं सेवमानोऽपि धर्मार्थाभ्यां न हीयते।

कामं तदुपसेवेत न मूढव्रतमाचरेत्।।60।।

व्यक्ति को यह छूट है कि वह न्यायपूर्वक और धर्म के मार्ग पर चलकर इच्छानुसार सुखों का भरपूर उपभोग करे, लेकिन उनमें इतना आसक्त न हो जाए कि अधर्म का मार्ग पकड़ ले।

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दुखर्त्तेषु प्रमत्तेषु नास्तिकेष्वलसेषु च।

न श्रीर्वसत्यदान्तेषु ये चोत्साहविवर्जिताः।।61।।

निठल्लों, असंतुष्टों, असंयमी, निस्तेज, दुखी, पीडि़त, नास्तिक तथा पागलों के घरों से लक्ष्मी दूर रहती हैं।

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आर्जवेन नरं युत्तक्तमार्जवाद् सव्यपत्रपम्।

अशक्तं मन्यमानास्ते धर्षयन्ति कुबुद्धयः।।62।।

धीर पुरुष सरल, संयमी, विनयी और लज्जाशील होते हैं, जिन्हें दुर्जन लोग कमजोर मानकर तिरस्कृत करते हैं। लेकिन इसकी दुर्जनों को बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।

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अत्यार्यमतिदातारमतिशूरमतिव्रतम्।

प्रज्ञाभिमानिनं चैव श्रीर्भयान्नोपसर्पति।।63।।

श्रेष्ठ दानवीर, श्रेष्ठ योद्धा, श्रेष्ठ आस्तिक, श्रेष्ठ ज्ञानी लेकिन अहंकारी और सर्वश्रेष्ठ पुरुष के पास जाने से लक्ष्मी बचती हैं, क्योंकि वे इन्हें अति से बचाना चाहती हैं।

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न चातिगुणवत्स्वेषा नान्यन्तं निर्गुणेषु च।

नेषा गुणान् कामयते नैर्गुण्यान्नानुरज्यते।

उन्मत्ता गौरिवान्धा श्री क्वचिदेवावतिष्ठते।।64।।

लक्ष्मी न तो प्रंड ज्ञानियों के पास रहती हैं, न नितांत मूखऱ्ों के पास। न तो इन्हें ज्ञानियों से लगाव है न मूखऱ्ों से। जैसे बिगड़ैल गाय को कोई-कोई ही वश में कर पाता है, वैसे ही लक्ष्मी भी कहीं-कहीं ही ठहरती हैं।

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अग्निहोत्रफला वेदाः शीलवृत्तफलं श्रुतम्।

रतिपुत्रफला नारी दत्तभुत्तक्तफलं धनम्।।65।।

यज्ञ, हवन और अनुष्ठान-वेदों के फल हैं। शिष्टता, सदाचार और सुलक्ष्ण-शात्र-अध्ययन के फल हैं। शारीरिक सुख एवं संतान-प्राप्ति-पत्नी के फल हैं तथा दान एवं उपभोग-धन के फल हैं।

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अधर्मोपार्जितर्थैर्य करोत्यौर्ध्वदेहिकम्।

न स तस्य फलं प्रेत्य भुङ्तेऽर्थस्य दुरागमात्।।66।।

जो व्यक्ति गलत कार्यो से धन कमाकर श्राद्ध, यज्ञ, हवन आदि अनुष्ठान करता है, मृत्यु के बाद उसे इन कर्मों का सुफल नहीं मिलता, क्योंकि अधर्म से कमाए धन से धर्म अर्जित नहीं होता।

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कान्तारे वनदुर्गेषु कृच्छ्सा्वापत्सु सम्भमे।

उद्यतेषु च शत्रेषु नास्ति सत्त्ववतां भयम्।।67।।

जिस पुरुष का अपने मन पर नियंत्रण होता है, वह मुसीबत में, युद्ध के समय, दुर्गम वन में, कठिन परिस्थिति में-न तो धैर्य खोता है, न भयभीत होता है।

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उत्थानं संयमो द्राक्ष्यमप्रमादो धृतिः स्मृतिः।

समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूं भवस्य तु।।68।।

कर्तव्यनिष्ठा, इंद्रियनिग्रह, कौशल, सावधानी, धीरज, बुद्धिमानी और विचारशीलता-ये गुण उन्नति के मूलाधार हैं।

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तपोबलं तापसानां ब्रह्म ब्रह्मविदां बलम्।

हिंसा बलमसाधूनां क्षमा गुणवतां बलम्।।69।।

तपस्वियों का बल तप है, वेद जाननेवालों का बल वेद है, दुष्टों का बल हिंसा है और गुणियों का बल क्षमा है।

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अष्टौ तान्यव्रतघ्नानि आपो मूं फलं पयः।

हबिर्ब्राह्मणकाम्या च गुरोर्वचनमौषधम्।।70।।

जल पीने, कंदमूल खाने, फल खाने, दूध पीने, घी खाने, ब्राह्मण की बात रखने के लिए खाने, गुरु की आज्ञा मानकर खाने से व्रत भंग नहीं होता।

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न तत् परस्य सन्दध्यात् प्रतिकूं यदात्मनः।

सङ्ग्रहेणैष धर्म स्यात् कामादन्यः प्रवर्तते।।71।।

अगर धर्म के सार को जानना है तो वह यही है कि जो काम आपको स्वयं के लिए अच्छा न लगे, उसे दूसरे के लिए न करें।

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अक्रोधेन जयेत् क्रोधमसाधुं साधुना जयेत्।

जयेत् कदर्यं दानेन जयेत् सत्येन चानृतम्।।72।।

क्रोध को प्रेम से, दुष्ट को सद्व्यवहार से, कंजूस को दान से तथा झूठ को सच से जीतना चाहिए।

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त्रीधूर्त्तकेऽलसे भीरौ चण्डे पुरुषमानिनि।

चौरे कृतघ्ने विश्चासो न कार्यो न च नास्तिके।।73।।

नौ लोगों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। ये नौ लोग हैं-(1) कायर, (2) चोर, (3) कृतघ्न, (4)नास्तिक, (4) त्री, (5) कुटिल, (6) क्रोधी, (7) अहंकारी, (8) धूर्त तथा (9) आलसी।

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अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि सम्प्रवर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।74।।

बड़ों की सेवा तथा विद्वानों का मान-सम्मान करने वालों की कीर्ति, आयु, ज्ञान और पराक्रम बढ़ते हैं।

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अतिक्लेशेन येऽर्था स्युर्धर्मस्यातिक्रमेण वा।

अरेर्वा प्रणिपातेन मा स्म तेषु मनः कृथाः।।75।।

कष्ट से, अधर्म से तथा शत्रुओं की सेवा करके कमाए धन से अनादर व अपयश मिलता है। इससे दूर रहना चाहिए।

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अविद्यः पुरुषः शोच्यः शोच्यं मैथुनमप्रजम्।

निराहाराः प्रजाः शोच्याः शोच्यं राष्ट्रमराजकम्।।76।।

विद्या के बिना मनुष्य, संतान के बिना रति-कर्म, भूखी प्रजा तथा राजा रहित राज्य दुख उठाते हैं।

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अध्वा जरा देहवतां पर्वतानां जलं जरा।

असम्भोगो जरा त्रीणां वाक्शल्यं मनसो जरा।।77।।

ज्यादा चलने से मनुष्य बूढ़ा होता है, ज्यादा पानी गिरने से पहाड़ों की आयु घटती है, रति-कर्म न करने से त्रियों का बुढ़ापा जल्दी आता है और कड़वी बोली से मन बुढ़ा जाता है।

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अनाम्नायमला वेदा ब्राह्मणस्याव्रं मलम्।

मलं पृथिव्या बाह्लीकाः पुरुषस्यानृं मलम्।

कौतूहलमलाः साध्वी विप्रवासमलाः त्रियः।।78।।

नियमित पठन-पाठन-अध्ययन न करना वेदों का मल है, नियमित व्रत-पूजन न करना ब्राह्मणों का मल है, बाह्वीक देश (बलख-बुखारा) धरती का मल है, सच न बोलना मनुष्य का मल है, ताक-झाँक करना विवाहिता का मल है तथा परदेश में रहना त्रियों का मल है।

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सुवर्णस्य मलं रूप्यं रूप्यस्यापि मलं त्रपु।

ज्ञेयं त्रपुमलं सीसं सीसस्यापि मलं मलम्।।79।।

चाँदी सोने का मल है, राँगा चाँदी का मल है, सीसा धातु राँगे का मल है तथा सीसे का मल उसी का मल है।

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न स्वप्नेन जयेन्निद्रं न कामेन जयेत् त्रियः।

नेन्धनेन जयेदग्निं न पानेन सुरां जयेत्।।80।।

सोकर नींद को नहीं जीता जा सकता, शारीरिक तुष्टि द्वारा त्री को नहीं जीता जा सकता, लकड़ी डालकर आग को नहीं जीता (बुझाया) जा सकता तथा शराब पीकर इसकी लत को नहीं जीता जा सकता।

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यस्य दानजितं मित्रं शत्रवो युधि निर्जिताः।

अन्नपानजिता दाराः सफलं तस्य जीवितम्।।81।।

जो पुरुष दान से मित्र को जीत लेता है, युद्ध से शत्रु को जीत लेता है तथा पालन-पोषण से त्री को जीत लेता है, उसका जीवन सफल है।

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सहस्रिणोऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनस्तथा।

धृतराष्ट्र विमुञ्चेच्छां न कथञ्चिन्न जीव्यते।।82।।

महाराज धृतराष्ट्र! जो हजारों कमाता है वह जीता है और जो सैकड़ों कमाता है वह भी जीता है। इसलिए अधिक की इच्छा न करें। यह न सोचें के अधिक नहीं होगा तो जीवन ही नहीं चलेगा।

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यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः त्रियः।

नालमेकस्य तत् सर्वमिति पश्यन्न मुह्यति।।83।।

महाराज! लोभी के लिए तो पृथ्वी की सारी संपत्ति, धन, धान्य, पशु, ऐश्वर्य-सब-के-सब कम पड़ जाएँगे। जो यह बात समझ जाता है, वह लोभ में नहीं पड़ता।

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राजन् भूयो ब्रवीमि त्वां पुत्रेषु सममाचर।

समता यदि ते राजन् स्वेषु पाण्डुसुतेषु च।।84।।

राजन्। मेरी पुनः आपसे प्रार्थना है, अगर आप पांडवों को भी अपने पुत्रों के समान समझते हैं, वैसा ही प्रेम करते हैं तो उन्हें उनका अधिकार दे दीजिए।

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।।सातवाँ अध्याय समाप्त।।






8. विदुर उवाच

येऽभ्यर्चितः सरिसज्जमानः करोत्यर्थं शत्तिक्तमहापयित्वा।

क्षिपं यशसं् समुपैति सन्तमलं प्रसन्न हि सुखाय सन्तः।।1।।

वि दुर कहते हैं-जो पुरुष यथाशक्ति अपने कार्य में लगा रहता है, जो कर्म का फल ईश्वर के ऊपर छोड़ देता है, जिसके कार्य की संतजन भी प्रशंसा करते हैं, उस पुरुष की कीर्ति-पताका चारों कोनों में फहराती है।

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महान्तमप्यर्थमधर्मयुत्तंक्त यः सन्त्यजत्यनपाकृष्ट एव।

सुखं सुदुखान्यवमुच्य शेते जीर्णां त्वचं सर्प इवावमुच्य।।2।।

जो पुरुष बेईमानी के धन को ठुकरा देता है, वह रात को उसी प्रकार चैन से सोता है जैसे काँचली को त्यागने के बाद सर्प।

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अनृते च समुत्कर्षो राजगामि च पैशुनम्।

गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया।।3।।

गलत कार्यों से तरक्की करना, अपने हितचिंतक की चुगली करना तथा बुजुगऱ्ों से छल करना-ये तीनों कार्य ब्रह्म-हत्या के समान पापदायक हैं।

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असूयैकपदं मृत्युरतिवादः श्रियो वधः।

अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवत्रयः।।4।।

अच्छाई में बुराई देखना मृत्यु जैसा कष्टकारी अवगुण है। बढ़-चढ़कर बोलना धन-हानि का कारक है। जल्दबाजी, बात पर ध्यान न देना तथा आत्मप्रशंसा-ये तीन अवगुण ज्ञान के शत्रु हैं।

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आलसं् मदमोहौ च चापलं गोष्ठिरेव च।

स्तब्धता चाभिमानित्वं तथा त्यागित्वमेव च।

एते वै सप्त दोषाः स्यु सदा विद्यार्थिनां मताः।।5।।

विद्यार्थियों को सात अवगुणों से दूर रहना चाहिए। ये हैं-(1) आलस, (2) नशा, (3) चंचलता, (4) गपशप, (5) जल्दबाजी, (6) अहंकार और (7) लालच।

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सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।

सुखार्थी वा त्यजेत् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।6।।

सुख चाहने वाले से विद्या दूर रहती है और विद्या चाहने वाले से सुख। इसलिए जिसे सुख चाहिए, वह विद्या को छोड़ दे और जिसे विद्या चाहिए, वह सुख को।

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नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः।

नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना।।7।।

लकडि़याँ आग को तृप्त नहीं कर सकतीं; नदियाँ समुद्र को तृप्त नहीं कर सकतीं; सभी प्राणियों की मृत्यु यम को तृप्त नहीं कर सकती तथा पुरुषों से कामी त्री की तृप्ति नहीं हो सकती। अर्थात् तृप्ति के पीछे भागना व्यर्थ है।

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आशा धृतिंहन्ति समृद्धिमन्तकः क्रोधः श्रियं हन्ति यशः कदर्यता।

अपालनं हन्ति पशूंश्चराजन्नेकः क्रद्धोब्राह्मणो हन्ति राष्ट्रम्।।8।।

महाराज धृतराष्ट्र! उम्मीद धैर्य का विनाश कर देती है, मृत्यु भोगों का, क्रोध धन-संपत्ति का, कायरता कीर्ति का, देखभाल का अभाव पशु-धन का नाश कर देता है और अगर एक अकेला, ब्राह्मण रुष्ट हो जाए तो वह बड़े-से-बड़े राज्य का नाश कर देता है।

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अजाश्च कांसं् रजतं च नित्यं मध्वाकर्ष शकुनिः श्रोत्रियश्च।

वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीन एतानि ते सन्तु गृहे सदैव।।9।।

राजन्! आपके यहाँ बकरियाँ, चाँदी व काँसे के बरतन, शहद का भंडार, विष-परीक्षण का यंत्र, शकुन-अपशकुन बताने वाला पक्षी, व्रती ब्राह्मण, बुजुर्ग तथा दुखी कुटुंबजन सब-के-सब रहें। अर्थात् इन सबके आपसी सहयोग से ही एक सुखी कुटुंब का निर्माण होता है।

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अजोक्षा चन्दनं वीणा आदर्शो मधुसर्पिषी।

विषमौदुम्बरं शङ्खः स्वर्णनाभोऽथ रोचना।।10।।

गृहे स्थापयितव्यानि धन्यानि मनुरब्रवीत्।

देव ब्राह्मणपूजार्थमतिथीनां च भारत।।11।।

हे धृतराष्ट्र! मनु महाराज ने कहा है कि देव, ब्राह्मण तथा अतिथियों के पूजन-वंदन के लिए घर में बकरियाँ, बैल, चंदन, वीणा, दर्पण, शहद, घी, लोहे व ताँबे के बरतन, शंख, शालिग्राम तथा सिंदूर आदि वस्तुएँ होनी चाहिए।

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इदं च त्वां सर्वपरं ब्रवीमि पुण्यं पदं तात महाविशिष्टम्।

न जातुकामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं जह्याज्जीवितस्यापि हेतो।।12।।

भाता धृतराष्ट्र! अब मैं आपको एक विशेष हितकारी बात बताता हूँ। इसे ध्यान देकर सुनें। मनुष्य को अपनी जीवन-रक्षा के बिना किसी भी स्थिति में अधर्म का सहारा नहीं लेना चाहिए।

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नित्यो धर्म सुखदुखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः।

त्यक्त्वा नित्यंप्रतिष्ठिस्व नित्ये सन्तुष्य त्वं तोषपरो हि लाभः।।13।।

राजन्! संसार में धर्म ही शाश्वत (निरंतर रहनेवाला) है, सुख-दुख अशाश्वत हैं; जीव शाश्वत है, लेकिन इसका कारण यह शरीर अशाश्वत् है। अतः आपके लिए यही उपयुक्त है कि आप शाश्वत में अपना मन लगाएँ, क्योंकि इसी में संतुष्टि और श्रेष्ठता है।

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महाबलान् पश्य महानुभावान् प्रशास्य भूमिं धनधान्यपूर्णाम्।

राज्यानि हित्वा विपुलांश्च भोगान् गतान्नरेन्द्रान् वशमन्तकस्य।।14।।

महाराज! तनिक उन बलवान राजा-महाराजाओं के बारे में सोचिए जो राज्य, ऐश्वर्य और श्री का भोग करके सब वैभव यहीं छोड़कर यमलोक चले गए।

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मृं पुत्रं दुखपुष्टं मनुष्य उक्षिप्य राजन् स्वगृहान्निर्हरन्ति।

तं मुत्तक्तकेशाः करुणं रुदन्ति चितामध्ये काष्टमिव क्षिपन्ति।।15।।

अन्यो धनं प्रेतगतस्य भुङ्ते वयांसि चाग्निश्च शरीरधातून्।

द्वाभ्यामयं सह गच्छत्यमुत्र पुण्येन पापेन च वेष्टयमानः।।16।।

मनुष्य जिस पुत्र को बड़े कष्ट उठाकर पालता-पोसता है, उसकी मौत पर उसे उठाकर घर से बाहर कर दिया जाता है। कुछ देर उसके लिए विलाप किया जाता है फिर चिता में झोंककर राख कर दिया जाता है या उसके शव को पशु-पक्षी नोचते हैं। उसकी धन-दौलत पर दूसरे लोग भोग करते हैं। मृतक के साथ केवल उसके अच्छे और बुरे कर्म जाते हैं।

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उत्सृज्य विनिवर्तन्ते ज्ञातयः सुहृदः सुताः।

अपुष्पानफलान् वृक्षान् यथा तात पतत्रिणः।।17।।

उसे वैसे ही छोड़ दिया जाता है, जैसे सूख जाने पर पंछी पेड़ को छोड़कर उड़ जाते हैं।

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अग्नौ प्रासं् तु पुरुषं कर्मान्वेति स्वयं कृतम्।

तस्मात्तु पुरुषो यत्नात् धर्म सञ्चिनुयाच्छनै।।18।।

महाराज! जीवन में निरंतर केवल पुण्य कमाना चाहिए, क्योंकि अग्नि में जलने के बाद परलोक में जीव के साथ केवल उसके पाप और पुण्य जाते हैं।

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अस्माल्लोकादूर्ध्वममुष्य चाद्यो महत्तमस्तिष्ठति ह्यन्धकारम्।

तद्वै महामोहनमिन्द्रियाणां बुध्यस्व मा त्वां प्रलभेत राजन्।।19।।

महाराज! पृथ्वी लोक के ऊपर तथा नीचे के लोक गहन अंधकार में डूबे हैं, अर्थात् हम इतने ज्ञानशून्य हैं कि इन लोकों की सच्चाई को नहीं जानते। इस कारण हम मोह-माया से ग्रस्त रहते हैं। आप इनकी वास्तविकता समझिए जिससे आपको पछताना न पड़े।

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इदं वचः शक्ष्यसि चेद् यथावन्निशम्य सर्वं प्रतिपत्तुमेव।

यशः परंप्राप्स्यसि जीवलोके, भयं न चामुत्र न चेह तेऽस्ति।।20।।

अगर आप मेरी बात को ठीक से समझकर विचार करेंगे तो पृथ्वी पर आपकी कीर्ति बुंद होगी तथा परलोक में आप शांत और निर्भय होंगे।

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आत्मा नदी भारत पुण्यकर्मा सत्योदका धृतिकूला दयोर्मि।

तस्यां स्नातः पूयते पुण्यकर्मा पुण्यो ह्यात्मा नित्यमलोभएव।।21।।

महाराज! हमारे शरीर में स्थित आत्मा को एक नदी समझिए। यह नदी ईश्वर के शरीर से निकली है। धैर्य इसके किनारे हैं, करुणा इसकी लहरें हैं, पुण्य इसके तीर्थ हैं, जो मनुष्य सदा पुण्य कर्मों में लिप्त रहता है, वह इस नदी में स्नान करके पवित्र होता है। लोभरहित आत्मा को सदा पवित्रा कहा गया है।

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कामक्रोधग्राहवतीं पञ्चेन्द्रियजलां नदीम्।

नावं धृतिमयीं कृत्वा जन्मदुर्गाणि सन्तर।।22।।

काम-क्रोध जैसे मगरमच्छों और पाँच इंद्रियों के जल से पूरित संसार रूपी यह नदी ‘जन्म और मरण’ के अनेक पड़ावों से भरी है। इस नदी को धैर्य की नाव से ही पार किया जा सकता है।

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प्रज्ञावृं धर्मवृं स्वबन्धुं विद्यावृं वयसा चापि वृद्धम्।

कार्याकार्ये पूजयित्वाप्रसाद्य यः सम्पृच्छेन्न स मुह्येत् कदाचित्।।23।।

जो व्यक्ति अपने बुजुगऱ्ों का आदर करता है तथा उनसे परामर्श करता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। वह कभी मोह-माया में नहीं फँसता।

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धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत् पाणिपादं च चक्षुषा।

चक्षु श्रोत्रे च मनसा मनो वाचं च कर्मणा।।24।।

धैर्य से विषय-वासनाओं तथा भूख को नियंत्रित करें, हाथ-पैरों को आँखों से नियंत्रित व रक्षित करें, मन से आँखों तथा कानों का नियंत्रण व रक्षा करें तथा अच्छे कार्यों से वाणी को नियंत्रित व रक्षित करें।

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नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायी पतितान्नवर्जी।

सत्यं बुवन् गुरवे कर्म कुर्वन् न ब्राह्मणश्च्यवते ब्रह्मलोकात्।।25।।

जो ब्राह्मण नियमित स्नान व ईश वंदना करता है, जनेऊ नहीं उतारता, व्रतों का पालन करता है, धर्मों-अधर्मों से कुछ नहीं लेता, सदा सत्य बोलता है तथा गुरुजन का सम्मान करता है, वह ब्रह्मलोक में स्थान पाता है।

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अधीत्य वेदान् परिसंस्तीर्य चाग्नीनिष्ट्वा यज्ञै पालयित्वा प्रजाश्च।

गोब्राह्मणार्थं शत्रपूतान्तरात्मा हतः सङ्ग्रामे क्षत्रियः स्वर्गमेति।।26।।

धर्म का जानकार, धर्म का भली-भाँति पालन करने वाला, अपनी प्रजा का हित साधने वाला, गायों तथा ब्राह्मणों के लिए युद्ध-भूमि में अपना बलिदान दे देने वाला अत्रिय स्वर्ग में स्थान पाता है।

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वैश्योऽधीत्य ब्राह्मणान् क्षत्रियांश्च धनै काले संविभज्याश्रितांश्च।

त्रेतापूं धूममाघाय पुण्यं प्रेत्य स्वर्गे दिव्यसुखानि भुत्तेक्त।।27।।

शात्रों का अध्ययन करके, माँगने पर या बिना माँगे सभी की धन से सहायता करके तथा यज्ञ-अनुष्ठानों में भाव लेकर मृत्यु के बाद वैश्य स्वर्ग में सुख भोगता है।

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ब्रह्म क्षत्रं वैश्यवर्णं च शूद्र क्रमेणैतान्न्यायतः पूज्यमानः।

तुष्टेष्वेतेष्वव्यथो दग्धपापस्त्यक्त्वा देहं स्वर्गसुखानि भुङत्तेक्त।।28।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की आदरपूर्वक सेवा करके, इनके आशीर्वाद से सभी पापों से मुक्त होकर, मृत्यु के बाद शूद्र स्वर्ग में श्रेष्ठ स्थान पाता है।

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चातुर्वर्ण्यस्यैष धर्मस्तवोत्तक्ताह्य हेतुं चानुब्रुवतो मे निबोध।

क्षात्राद् धर्माद्वीयते पाण्डुपुत्रसं् त्वं राजन् राजधर्मं नियुक्ष्व।।29।।

राजन्! मैंने चारों वर्णों की गति आपको इसलिए बताई है, क्योंकि संकोचवश युधिष्ठिर अपने क्षत्रिय धर्म के निर्वाह से पीछे हट रहा है। मेरी प्रार्थना है कि उसका राज्य उसे सौंपकर आप उसे पुनः क्षत्रिय धर्म में लगा दें।

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धृतराष्ट्र उवाच

एवमेतद् यथा त्वं मामनुशासति नित्यदा।

ममापि च मतिः सौम्यः भवत्येवं यथात्थ माम्।।30।।

धृतराष्ट्र ने कहा-हे विदुर! तुम्हारी बातें धर्म-सम्मत और न्याय को पुष्ट करनेवाली हैं। मैं तुम्हारी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ और चाहता हूँ कि जैसा तुम कहते हो, वैसा करूँ।

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सा तु बुद्धिः कृताप्येवं पाण्डवान् प्रति मे सदा।

दुर्योधनं समासाद्य पुनर्विपरिवर्तते।।31।।

मैं भी यह चाहता हूँ कि पांडवों को उनका राज्य वापस मिल जाए, लेकिन दुर्योधन से मिलकर मेरा विचार फिर बदल जाता है।

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न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं भूतेन केनचित्।

दिष्टमेव धुं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम्।।32।।

विदुर! भाग्य का लिखा अटल है उसे कोई नहीं बदल सकता। मैं भाग्य को ही बली मानता हूँ, कर्म-कर्तव्य को नहीं। अर्थात् धृतराष्ट्र ने घुमा-फिराकर पांडवों को राज्य देने से इनकार कर दिया।

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।।आठवाँ अध्याय समाप्त।।

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