The Third Eye Chapter 1

अध्याय एक गृह निवास के प्रारम्भिक दिन ऐ! ऐ! चार साल के बच्चे होकर भी तुम घोड़े पर ठीक से नहीं बैठ सकते, तुम कभी आदमी नहीं बन पाओगे, तुम्हारे श्रेष्ठ पिता क्या कहेंगे ? ऐसा कहते हुए बूढ़े त्सू ने पोनी (खच्चर) को पीछे से, जोर की थाप मारी और उसके भाग्यहीन घुड़सवार को पीठ पर ठोका और गुस्से से धूल में थूका। पोटाला की स्वर्णिम छतें और गुम्बज सुनहरी धूप में चमक रहे थे नजदीक ही सर्प मंदिर (snake temple) की झील के नीले पानी में बतखों के तैरने के निशान, लहर बने हुए थे पथरीले रास्ते के साथ-साथ, बहुत दूर से, धीमे चलने वाले याकों, जो ल्हासा से बाहर जा रहे थे, के सवारों की ऊँची आवाजें और चीखें सुनाई दे रही थीं। पड़ौस में से छाती को दहला देने वाली बम, बम, की तुरही (trumphet) की गहरी आवाजें आ रही थीं, जो मैदान में भीड़ से अलग हटकर अभ्यासार्थी संगीतज्ञ लामाभिक्षुओं के द्वारा की जा रही थीं । परंतु मेरे पास रोजाना घटने वाली ऐसी चीजों के लिए समय नहीं था । मेरा मुश्किल और गंभीर काम अनिच्छुक पोनी की पीठ के ऊपर सवार होना था । नक्किम ( पोनी) के दिमाग में कुछ और था। वह अपने सवार से, घास चरने, धूल में लेटने तथा हवा में दुलत्ती झाड़ने के लिए, स्वतंत्र होना चाहता था। बूढा त्सू, गंभीर और कठोर प्रशिक्षक था। उसका पूरा जीवन कठोर रहा था, और अब चार साल के बच्चे के संरक्षक और घुड़सवारी सिखाने वाले प्रशिक्षक के रूप में, तनाव के समय में, उसका धैर्य जवाब दे जाता था। खाम के दूसरे निवासियों में से उसे अन्यों के साथ, उसके कद काठी और सामर्थ्य के कारण, इस काम के लिए चुना गया था । वह लगभग सात फीट लम्बा और चौड़े सीने वाला था। मांसल कंधे उसके चौड़ेपन की प्रकृति को बढ़़ा देते थे पूर्वी तिब्बत में एक जिला है, जहाँॅ के आदमी असामान्य रूप से लम्बे और मजबूत होते हैं। उनमें से कई, सात फुट से भी ज्यादा लम्बे होते हैं, जिनको लामामठों में पुलिस भिक्षु के रूप में कार्य करने के लिये चुना जाता है। अपने आकार को बड़ा दिखाने के लिए, वे अपने कंधों के ऊपर गद्दियाँ (pads) लगाते हैं, भयानक दिखाने के लिए, अपने चेहरे को काला करते हैं, और अपने साथ लम्बे हथियार रखते हैं, ताकि उन्हें किसी भी दुर्भाग्यपूर्ण, बुरी परिस्थिति, में उपयोग में ला सकें। त्सू एक पुलिस भिक्षु रह चुका था, परंतु अब वह एक राजवंशी के लिए रूखे संरक्षक के रूप में था। वह अधिक दूर तक चलने से बुरी तरह लाचार था । अतः उसकी अधिकतर यात्रायें, घोड़े की पीठ पर ही होती थीं । सन् 1904 में ब्रिटिश कर्नल यंगहसबेंड (Colonel Younghusband)' की अगुवाई में ब्रिटेन ने तिब्बत को रौंदा, और बुरी तरह नुकसान पहुँचाया। हमारी दोस्ती और हमारी संपत्ति को पाने का, और हमारे लोगों को मारने का, उन्हें ये आसान तरीका लगा त्सू बचाव करने वालों में से एक था, 1 अनुवादक की टिप्पणी : लेफ्टिनेंट कर्नल यंगहसबेंड (31 मई 1863 से 31 जुलाई 1942); अंग्रेज सेना के एक अफसर थे। वह घुमक्कड़, अन्वेषक, आध्यात्मिक लेखक थे। उन्होंने सुदुर पूर्व तथा मध्य एशिया में अनेक यात्रायें की थीं विशेषकर 1904 में तिब्बत के अभियान में तिब्बत सिक्कम सीमा विवाद को हल करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही थी। वे रॉयल ज्योग्राफिकल सोसायटी के अध्यक्ष भी रहे उन्होंने एक दर्जन से अधिक पुस्तके लिखी हैं। और इस लड़ाई में उसके बॉये कूल्हे का एक भाग, गोली से उड़ गया था। मेरे पिता, तिब्बती सरकार में अगुवाओं में से एक थे उनका और मेरी मॉ का परिवार, तिब्बत के ऊपरी दस घरानों में से था, इसलिए उनके बीच, मेरे माता-पिता का, देश के मामलों में काफी प्रभाव था। बाद में, मैं तिब्बत की सरकार के स्वरूप के बारे में और विस्तृत जानकारी दॅँगा । पिताजी बड़े भारी और लगभग छैः फुट लम्बे थे। उनकी ताकत देखने लायक थी । अपनी जवानी में वह खरच्चर को जमीन से उठा लेते थे, और वे उन कुछ लोगों में से थे, जो खाम के लोगों के साथ कुश्ती लड़कर उनको हरा सकते थे। ज्यादातर तिब्बती लोगों के बाल काले, और ऑखें गहरी भूरी, होती हैं । पिताजी इनमें अपवाद थे। उनके बाल अखरोट जैसे भूरे, और ऑँखे स्लेटी थीं। अक्सर उन्हें क्रोध का आकस्मिक उबाल आता था, जिसका हमको कोई कारण नहीं दिखता था। हमने पिताजी का कोई बड़ा व्यवहार नहीं देखा । तिब्बत में उस समय मुश्किल समय चल रहा था। ब्रिटेन ने 1904 में तिब्बत में घुसपैठ की, और दलाईलामा', मेरे पिताजी और मंत्रिमंडल के दूसरे लोगों को, अपनी अनुपस्थिति में शासन् करने के लिए छोड़ कर, मंगोलिया के लिए उड़ गए । 1909 में पेकिंग होते हुए दलाईलामा ल्हासा वापस लौटे । 1910 में ब्रिटेन की घुसपैठ की सफलता से उत्साहित होकर, चीन ने ल्हासा को तूफानी तौर से रौंद दिया। दलाईलामा, इस बार फिर भारत को भाग खड़े हुए। चीनी क्रांति के समय 1911 में चीनियों को ल्हासा से खदेड़ दिया गया, परंतु उससे पहले वे जनता के खिलाफ भयानक अपराध कर चुके थे। 1912 में दलाईलामा फिर ल्हासा लौटे। वह पूरे समय अनुपस्थित रहे । भयानक मुसीबत के उन दिनों में, पिताजी और मंत्रिमंडल के दूसरे साथियों पर, तिब्बत का शासन करने की पूरी जिम्मेदारी रही। माताजी कहा करती थीं कि पिताजी का स्वभाव, उसके बाद वैसा फिर कभी नहीं रहा। निश्चित रूप से, उनके पास हम बच्चों के लिए समय नहीं था और न हीं हमें उनसे कभी पिता का प्यार मिला। विशेष रूप से मैं, उनके गुस्से को बढ़ा देता था और जैसा पिताजी कहते थे, मुझे त्सू की दया के ऊपर 'बनाओ या बिगाड़ो (make or break )' के लिए छोड़ दिया गया था । त्सू ने, मेरी पोनी की खराब सवारी को, अपने व्यक्तिगत अपमान के रूप में लिया। तिब्बत में उच्च वर्ग के बच्चों को सामान्यतः उनके अपने पैरों पर चलना सीखने से पहले ही घुड़सवारी करना सिखाया जाता है। ऐसे देश में, जिसमें पहिये वाले वाहन न हों, घुड़सवारी की कुशलता अनिवार्य है। यहाँ सभी यात्रायें या तो पैदल की जाती हैं अथवा घोड़े की पीठ पर बैठकर । उच्च वर्ग के तिब्बती लोग, घुड़सवारी का अभ्यास, घण्टों-घण्टों और दिनों-दिनों तक, लगातार करते रहते हैं । वे छलोग भरते घोड़े की लकड़ी की तंग रकाब पर घण्टों खड़े रह सकते हैं, और पहले, किसी भी गतिमान लक्ष्य को बन्दूक से भेद सकते हैं, फिर बाद में बन्दूक और तीर कमान को आपस में बदल सकते हैं । कई बार, कुशल सवार, पंक्तियों में चलते हुए छलांगें भरते हैं, और एक घोड़े से दूसरे घोड़े पर, रकाब से रकाब में, बदलते चलते हैं। मैं चार साल की उम्र में, एक रकाब पर खड़े होना ही मुश्किल पाता था। मेरा पोनी निक्किम, झबरीला और लम्बी पूंछवाला था । उसका सॅकरा सिर, काफी प्रखर बुद्धि का था। वह असावधान सवार को गिराने के, अनेक आश्चर्यजनक तरीके जानता था। उसका एक पसंदीदा तरीका था, कि वह आगे की तरफ को कुछ दूर दौड़ता था, एवं अचानक विराम में रुक जाता था, और अपने सिर को नीचे झुका लेता था। मैं जैसे ही असहाय होकर, आगे की ओर उसकी गर्दन पर, सिर की तरफ फिसलता, वह अपने सिर को झटके के साथ ऊपर उठाता, जिससे मैं पूर्ण रूप से धड़ाम होकर जमीन पर गिर जाता। तब वह खड़ा होता और मेरी ओर प्रसन्नतापूर्ण संतुष्टि के साथ ताकता। तिब्बती, कभी पोनी के साथ-साथ पैदल नहीं चलते। पोनी छोटे होते हैं, और चलते हुए पोनी के ऊपर सवार हुए, हास्यास्पद दिखते हैं । पोनी का अधिकतर धीमी चाल से चलना ही काफी होता है, और उसे छलॉग मार कर चलाना, कभी- कभी, केवल अभ्यास के लिए ही, किया जाता है । तिब्बत मानवतावादी देश था। हमें कभी बाहरी दुनियाँ की तरह, उन्नति की आकॉक्षा नहीं थी । हम केवल ध्यान लगाने योग्य होना, और शरीर की सीमाओं से बाहर आना ही चाहते थे हमारे विद्वान लोग, काफी पहले यह समझ चुके थे, कि पश्चिम के लोग हमारे तिब्बत की धनाढ्यता को पाने की इच्छा रखते हैं, और यह भी जानते थे, कि यदि विदेशी आए, तो हमारी शॉति चली जाएगी। अब तिब्बत में साम्यवादियों की घुसपैठ ने इसे ठीक साबित कर दिया है । मेरा घर लिंगखोर के फैशनेबल जिले, ल्हासा में, मुद्रिका पथ (ring road), जो ल्हासा के चारों एक तरफ था, और चोटी की छाया में पड़ता था। अनुवादक की टिप्पणी : दलाईलामा तिब्बत के शासक और लामामत के सर्वोच्च धार्मिक अधिकारी हैं। दलाईलामा एक पद है, जिसको उनके क्रमानुसार बताया जाता है। यहाँ पर जिन दलाईलामा का जिक्र है. वे 13वें दलाईलामा हैं इनका नाम थुवतेन ग्यास्तो (Thubten Gyasto) था इनका जन्म 12 फरवरी 1876 को कृषक परिवार में हुआ था। इन्हें 1878 में दलाईलामा के अवतार के रूप में पहचान लिया गया था तथा 1879 में इन्होंने पोटाला महल में प्रवेश किया, तब इन्हें राजप्रमुख बना दिया गया, परंतु वास्तविक शासन 1895 में, जब ये वयस्क हुए, तब प्राप्त हुआ। थूवतेन ग्यास्तो एक चतुर प्रशासक तथा सुधारक रहे हैं। जब ब्रिटिश साम्राज्य और रूसी साम्राज्यों के राजनैतिक खेल में इन्हें शतरंज का मोहरा बनाया गया तो इन्होंने बड़ी चतुराई के साथ मामले को सुलझाया। ब्रिटेन के साथ सिक्किम तथा तिब्बत सीमा विवाद को सुलझाने में कर्नल यंगहसबेंड की प्रमुख भूमिका रही। दलाईलामा का निधन 17 दिसम्बर 1933 (57 वर्ष की आयु में) ल्हासा तिब्बत में हुआ।  यहाॅ भीतरी और बाहरी सड़कों के तरफ जाता है, तीन वृत हैं। लिंगखोर की बाहरी सड़क का अधिकतम उपयोग, तीर्थयात्रियों द्वारा किया जाता है । जब मैं पैदा हुआ, ल्हासा के दूसरे घरों की तरह हमारा घर भी दो मंजिल ऊँचा और सड़क की ओर मुँह किए हुए था। शोभा यात्रा में, कोई भी दलाईलामा की ओर नहीं देख सके, इसलिए सभी घरों की अधिकतम ऊँचाई की सीमा दो मंजिलों की थी। ऊँचाई की ये बंदिश, वास्तव में एक साल में एक जलूस के लिए ही थी, इसलिए ग्यारह महीने में ही, अनेक घर लकड़ी के ढाँचे को तोड़कर, उनकी छतों पर ऊँचे बना लिए गए थे। हमारा घर पत्थर का था और कई सालों में बना था । ये खोखले वर्गाकार रूप में था, जिसमें अंदर एक बड़ा ऑगन था। हमारे पालतू जानवर, भूतल पर ही रहते थे, और हम ऊपर रहते थे। हम जमीन से उचटने वाले पत्थरों की मार से बचे रहने में सौभाग्यशाली थे। अधिकतर तिब्बती घरों में अथवा किसानों की कुटियाओं में, एक सीढ़ी होती है। खंबे पर खाँचे बना कर, सीढ़ियाँ बनाई जाती हैं। जान जोखिम में डाल कर, इनका उपयोग किया जाता है । ये खॉँचेदार खम्बे, वास्तव में, याक के मक्खन लगे हाथों से उपयोग में लाए जाने पर, चिकने हो जाते हैं । जो किसान इसे भूल जाते हैं, वे खम्बे पर चढ़ते वक्त तेजी से फर्श पर नीचे जा गिरते हैं । 1910 में चीनी घुसपैठ के समय, हमारा घर आंशिक रूप से चटक गया था, और घर की अंदर की दीवार गिरा दी गई थी। पिताजी ने इसे चार मंजिला ऊँचा बना दिया था । उन्होंने मुद्रिका को अनदेखा नहीं किया, जिससे हम जब दलाईलामा का जलूस निकलता, तो उनके सिर की ओर नहीं देख सकते थे। इसलिए किसी को कोई शिकायत नहीं थी । हमारे घर का द्वार जो हमारे बीच के ऑगन की ओर रास्ता देता था, बहुत भारी था, और समय के साथ काला पड़ चुका था। चीनी घुसपैठिए, उसके ठोस लकड़ी के दंड को तोड़ नहीं सके थे, इसलिए उन्होंने बदले में, एक दीवार को तोड़ दिया था । प्रवेश द्वार के ठीक ऊपर हमारे परिचारक (steward) का कार्यालय था, जो हमारे यहाॅ सभी आने जाने वालों को देख सकता था। वह यह देखते हुए कि, घर का कामकाज पूरी कुशलता से चले, स्टॉफ को नौकरी पर रख अथवा निकाल सकता था। उसकी खिड़की पर, संध्या के समय, जब मठों से तुरहियों बजती थीं, ल्हासा के भिखारी, जीवनयापन के लिए, अपना खाना जिले के गरीबों के लिए, व्यवस्था बनाई हुई थी। अधिकतर, बेड़ियों में जकड़े हुए अपराधी भी आते, क्योंकि तिब्बत में जेलें काफी कम थीं, और सजायाफ्ता लोग सड़कों पर घूमते रहते थे, और भीख मॉग प्राप्त करने के लिए, रात तक आते रहते थे सभी प्रमुख संभ्रांत लोगों ने, अपने कर खाते थे। तिब्बत में सजायाफ्ता लोगों को तिरस्कृत नहीं समझा जाता, और उनका बहिष्कार भी नहीं किया जाता। हम अनुभव करते थे, कि हम में से अधिकतर, यदि हम बाहर पाए जाऐं, तो, अपराधी हो सकते हैं। इसलिए भाग्यहीनों के साथ भी उचित व्यवहार किया जाता था । सहायक के दॉयी ओर के कमरे में दो भिक्षु पुजारी रहते थे ये घरेलू पुजारी थे, जो हमारी गतिविधियों की दैवीय अनुमोदन के लिए, प्रतिदिन प्रार्थनायें किया करते थे । कम संभ्रांत व्यक्तियों के पास एक भिक्षु पुजारी होता था, परंतु हमारी सामाजिक स्थिति, दो पुजारियों की मॉग करती थी। किसी भी उल्लेखनीय घटना से पहले इन भिक्षु पुजारियों को पूछा जाता था, और भगवान से समर्थन प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की जाती थी हर तीन साल बाद, ये भिक्षु पुजारी, लामामठों को वापस चले जाते थे, और दूसरे दो आ जाते थे। हमारे घर की हर दीर्घा में एक छोटा मंदिर (chapel) था, जिसमें नक्काशी की गई लकड़ी की बेदी के सामने, हमेशा याक के घी के दिए, लगातार जलते रहते थे पवित्र जल के सातों कटोरे, दिन में कई बार साफ किये जाते और भरे जाते थे। इनको साफ रखना आवश्यक था, क्योंकि भगवान कभी भी जल को पीने के लिए आ सकते थे। पुजारियों को अच्छा खिलाया जाता था। जैसा घर खाते थे, वैसा खिलाया जाता था, ताकि वे अच्छी तरह से प्रार्थना कर सकें, और भगवान को बता सकें कि खाना अच्छा था। लोग सहायक के बॉयी ओर कानूनी विशेषज्ञ रहते थे जिनका कार्य घरेलू कामकाज को देखना, और यह देखना था कि, घर ठीक तरह से, कानूनी ढंग से चल रहा है या नहीं । तिब्बती लोग कानून के मानने वाले होते हैं, और पिताजी को कानून को पालन करने के उत्कृष्ट कोटि के उदाहरण प्रस्तुत करने होते थे। हम सभी बच्चे, मेरा भाई पाल्ज्योर, बहन यशोधरा और मैं, नवीन खण्ड में रहते थे, जो सड़क से दूर और ऑगन के एक ओर था । हमारे बॉयी ओर एक छोटा घरेलू मंदिर था, दॉयीं ओर पाठशाला थी, जिसमें सेवकों के बच्चे भी पढ़ते थे। हमारे पाठ लम्बे और विविध प्रकार के होते थे । पाल्ज्योर, लंबे समय तक शरीर में नहीं रह सका (अर्थात मर गया)। वह कमजोर था, और उतने कठोर जीवन के लिए, जो हम दोंनों को जीना होता, पूरी तरह अयोग्य था । सात साल का होने से पहले ही, वह हमें छोड़ गया, और अनेक मंदिरों वाले देश (स्वर्ग), को वापस चला गया उसकी मृत्यु के समय यशो छैः साल की थी और मैं चार साल का मुझे अभी तक याद है, जब उन्होंने आत्मा रहित शरीर को, भूसे की भॉति लिटाया और परंपरानुसार, मुर्दा ढोने वाले व्यक्ति अपने साथ, लाश को तोड़कर शिकारी पक्षियों को खिलाने के लिए ले गए । अब परिवार का वारिस होने के नाते, मुझे गहनतम प्रशिक्षण दिया गया मैं चार साल का था, और बहुत ही आलसी और साधारण घुड़सवार था । पिताजी वास्तव में बहुत कठोर व्यक्ति थे, और उन्होंने देखा कि मठ के उत्तराधिकारी के रूप में, उनका पुत्र कठोर अनुशासन् में रहे, और दूसरे लोगों के लालन-पालन के लिए, एक उदाहरण बने। मेरे देश में बच्चे की श्रेणी (rank) जितनी ऊँची होती है, उसका प्रशिक्षण उतना ही कठोर होता है। कुछ भद्रजन तो ऐसा भी सोचने लगे थे कि, उनके बच्चों को आसान समय मिले, परंतु पिताजी ऐसा नहीं सोचते थे। उनका ख्याल था : एक गरीब बच्चा, जिसको बाद में सुख मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, उसे दया और करुणा मिलनी चाहिए, और कठोरता में कुछ कमी रहनी चाहिए, जब तक कि वह जवान हो। उच्च श्रेणी के बच्चे, सभी तरह से वैभव और संपदा पूर्ण होते हैं, तथा भविष्य में सुख और आराम मिलने की पूरी सम्भावना होती है, अतः बचपन और जवानी में, उनको अत्यंत कठोर व्यवहार मिलना चाहिए, ताकि वे दूसरों की परेशानियों का अनुभव कर सकें, और बाद में उनके प्रति नरम रवैया अपना सके। देश का औपचारिक रवैया भी ऐसा ही था । अनुवादक की टिप्पणी : मादा याक को ड्री (Dri) कहते हैं परंतु पश्चिमी विश्व के लोग नर और मादा दोनों को ही याक के नाम से जानते हैं। इस व्यवस्था में, निर्बल व्यक्ति जीवित नहीं रह सकते थे। अतः जो बच कर जीवित रहते थे, वे पूरी तरह सक्षम और सबल होते थे। त्सू को, मुख्य द्वार के समीप, आधारतल पर ही कमरा मिला हुआ था | पुलिस भिक्षु होने के नाते, वर्षों तक उसे सभी प्रकार के व्यक्तियों से मिलने का अवसर मिला था । अतः वह सबसे अलग, एकांत में नहीं रह सकता था । वह अस्तबलों के पास रहता था, जिसमें पिताजी ने अपने बीस रखे घोड़े, सभी पोनी, और दूसरे कामकाजी थे। हुए साईस लोग, त्सू की नजर से घृणा करते थे, क्योंकि वह अधिकार संपन्न था और उनके काम में हस्तक्षेप करता था। जब पिताजी घोड़े पर चढ़कर कहीं जाते थे, तो छै: सशस्त्र आदमी उनकी सुरक्षा में रहते थे। ये आदमी गणवेश में होते थे, तब त्सू उनका निरीक्षण करता था, और ये सुनिश्चित करता पशु, था, कि उनके सभी अस्त्र - शस्त्र सुचारु रूप से व्यवस्थित हों। किन्हीं कारणोंवश ये सभी छै: आदमी अपने घोड़ों को, एक दीवार से मोड़ा करते थे, और जैसे ही मेरे पिताजी, अपने घोड़े पर सामने आते, वे उनके आगे आकर, अपनी स्थिति संभाल लेते थे । मुझे लगा कि, यदि मैं भंडार कक्ष की खिड़की में से बाहर को झुकूँ, तो उन घुड़सवारों में से, जो अपने घोड़ों पर सवार थे, किसी एक को छू सकता था। एक दिन फुरसत में मैंने सावधानीपूर्वक, एक रस्सा, एक घुड़सवार के चमड़े के मजबूत बेल्ट में, जबकि वह अपने उपकरणों से काम कर रहा था, फॅसा दिया। रस्से के दोनों सिरे, एक फंदे के रूप में बनाकर मैंने खिड़की में से निकाल कर, एक हुक से बांध दिए । हड़बड़ी और बातचीत के दौरान, मेरी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया । पिताजी आए, और सामने को दौड़ लगाई। पॉच ने अपनी स्थिति संभाल ली, जबकि छठवॉ यह सोचते हुए कि, दानवों ने उसको पकड़ रखा है, घोड़े से पीछे की ओर खींच दिया गया। उसकी बेल्ट टूट गई, और इस भ्रम का घुड़सवार ने फायदा उठाते हुए, मैंने रस्सी को ऊपर खींच लिया । मैं पूरी तरह अनदेखा बना रहा । इससे मुझे बहुत मजा आया और मैंने कहा "ने-टुक, तुम भी घोड़े के ऊपर टिक नहीं सकते!" हमारे दिन बहुत मुश्किल थे, हम चौबीस घण्टों में से अठारह घण्टों के लिए जगे रहते थे। तिब्बती लोगों का विश्वास है कि, जब तक प्रकाश हो, तब तक सोना विल्कुल ठीक नहीं होता अन्यथा दिन के दैत्य आकर किसी को पकड़ सकते हैं। बहुत छोटे बच्चों को भी जगा कर रखा जाता है, ताकि वे दैत्य से संक्रमित न हों । जो बीमार हैं, उन्हें भी जगा रहना पड़ता है, और इस काम के लिए एक भिक्षु को बुलाया जाता है। इससे किसी को भी बख्शा नहीं जाता। जो लोग मर रहे हैं, उनको भी जहाँ तक संभव हो, जाग्रत रखा जाता है, ताकि वे अपने अगले लोक की सीमा रेखा को ले जाने वाली उचित राह को जान सकें। स्कूल में हमें तिब्बती और चीनी दोंनों भाषायें पढ़नी पड़ती थीं तिब्बती में भाषा के दो भेद हैं, साधारण और सम्मानजनक (honourific)। हम नौकरों और अपने से छोटे लोगों के साथ साधारण भाषा का उपयोग करते थे, और अपने बराबर वाले अथवा अपने से उच्च श्रेणी के लोगों के साथ सम्मानजनक भाषा का प्रयोग करते थे। उच्च श्रेणी के व्यक्ति के घोड़े को भी सम्मानपूर्वक पुकारना होता था हमारी विशिष्ट बिल्ली, जो ऑगन में किसी रहस्यमय कार्य से, चोरी- छिपे घूम रही होती थी, को नौकर लोग इज्जत के साथ पुकारते : "सम्मानित बिल्ली, क्या आप कृपा करके इस नाचीज़ दूध को पियेंगी ?" उस सम्मानित बिल्ली को चाहे जैसे कहा जाए, वह जब तक स्वयं तैयार न हो, कभी नहीं आती थी । हमारा, पाठशाला का कक्ष, काफी बड़ा था । किसी समय में इसे आगन्तुक भिक्षुओं के भोजन कक्ष के रूप में काम में लिया जाता था, परॅतु चूँकि हमारा नया भवन बनकर तैयार हो गया था, इसलिए वह विशिष्ट कमरा राज्य के स्कूल के रूप में काम में लाया जाता था। इसमें कुल मिलाकर लगभग साठ बच्चे पढ़ते थे। हम पालथी मारकर फर्श पर बैठते थे । सामने लगभग अठारह इंच ऊँची एक मेज, अथवा लम्बी बैंच, रखी रहती थी। हम अपनी पीठ शिक्षक की ओर करके बैठते थे, जिससे हमें ये पता नहीं रहे, कि शिक्षक कब हमारी ओर देख रहा था । वह हमें सदैव कठिन कार्य में लगाए रहता था । तिब्बत में कागज, हाथ का बना और बहुत मॅहगा होता है । इतना अधिक मॅहगा, कि बच्चों को बिगाड़ने के लिए नहीं दिया जा सकता। हम लगभग बारह इंच गुणा चौदह इंच की पतली पट्टियों का स्लेट के रूप में उपयोग करते थे हमारी पेंसिल कड़ी सेलखड़ी होती थी, जिसे त्सू ला (Tsu La) पहाड़ियों से, जो ल्हासा से लगभग बारह हजार फीट की ऊँचाई पर हैं, लाया जाता था। ल्हासा स्वयं समुद्र तल से बारह हजार फीट की ऊँचाई पर है। मैं थोड़ी लालामी वाले रंग की चाक का प्रयोग करना पसंद करता था। जबकि मेरी बहन यशो, बैंगनी-से रंग की, मुलायम चॉक की शौकीन थी । चॉक में हमें लाल, पीले, नीले, हरे कई प्रकार के रंग मिल सकते थे। मेरा ख्याल है कि चॉक के रंग, उसमें उपस्थित धात्विक अयस्कों (metallic ores) के कारण होते थे। कुछ भी हो, हम चाक को पाकर खुश होते थे। मुझे अंकगणित बहुत परेशान करता था । यदि सात सौ तिरासी भिक्षु, प्रतिदिन, बावन कप, त्साम्पा पियें, और एक कप में, पाँच बटा आठ पिंट, त्साम्पा आता हो, तो एक सप्ताह की आपूर्ति के लिए, कितने बड़े आकार का बर्तन चाहिए ? बहन यशो इस काम को बिना सोचे कर सकती थी, जबकि मैं उतना तेज नहीं था। जब मैंने नक्काशी का काम सीखा, तो वह मुझे अच्छा लगा। ये ऐसा विषय था, जिसे मैं पसंद करता था, और भलीभॉति कर सकता था। तिब्बत में सभी प्रकार की छपाई, लकड़ी के पटों (plates) पर नक्काशी (छापे) द्वारा की जाती है। अतः नक्काशी को एक अच्छी पूँजी के रूप में देखा जाता है । हम बच्चे लोग लकड़ी को व्यर्थ बरबाद नहीं कर सकते थे क्योंकि, लकड़ी बहुत मॅहगी होती थी, और इसे भारत से लाया जाता था। तिब्बती लकड़ी बहुत कठोर होती थी, और उसमें बुरी गॉठे होतीं थीं । हम मुलायम सेलम का उपयोग करते थे, जिसे एक धारदार चाकू से काटा जा सकता था। कई बार हम बासे याक के चीज़ (पनीर) का उपयोग करते थे। एक चीज, जो कभी भूली नहीं जा सकती थी, वह थी नियमों का गाया जाना। इन्हें, हमें, जैसे ही पाठकक्ष में घुसते और बाद में दुबारा, फिर छुट्टी होने से ठीक पहले, गाना पड़ता था। ये नियम थे : भलाई के बदले भलाई करो। भले लोगों से मत झगड़ो। धार्मिक पुस्तकों को पढ़ो और उन्हें समझो। अपने पड़ौसी की सहायता करो। अमीरों को समझ और समानता सिखाने के लिए नियम कठोर हैं । गरीबों के प्रति करूणा दर्शाने के लिए नियम नरम हैं । अपने ऋणों को शीघ्रता से चुकता करो। ये नियम झण्डों पर और पाठ्यकक्ष की चारों दीवारों पर चस्पा कर दिए गए थे, ताकि इन नियमों को भूलने की संभावना ही समाप्त हो जाए। जीवन अध्ययन मात्र और कठोर ही नहीं था । हम जितनी कठोरता से पढ़ते थे, उतनी ही कठोरता से खेलते भी थे हमारे सभी खेल, हमें तिब्बत के कठोर तापक्रम में और परेशानियों में, जिन्दा रह सकने के योग्य बनाने के लिए विकसित किए गए थे गर्मियों में दोपहर के समय तापक्रम पिचासी डिग्री फेरनहाईट तक पहुँच जाता था, लेकिन गर्मियों में रात के समय यह हिमांक से चालीस डिग्री फेरनहाईट नीचे तक चला जाता था। सर्दियों में अक्सर यह इससे भी काफी नीचा रहता था। तीरंदाजी (archery) अच्छा खेल था और मांसपेशियों का विकास करता था। हम यू (yew), एक विशिष्ट प्रकार की लकड़ी, जो भारत से आयातित की जाती थी, से बने कमानों का उपयोग करते थे । और कई बार तिब्बती लकड़ी से बने क्रासकमानों (crossbows) का उपयोग करते थे। बौद्ध (Buddhists) होने के नाते हमने कभी जीवित लक्ष्यों पर निशाना नहीं लगाया छिपे हुए नौकर एक लम्बी रस्सी से बॉधकर, लक्ष्य गोलक को ऊपर नीचे झुलाते थे। हम ये नहीं जानते थे कि, उसकी कब क्या स्थिति होगी। दूसरे अनेक लोग, छलॉग भरते पोनी के रकाब पर खड़े होकर निशाना लगाते थे मैं कभी रकाब पर अधिक देर खड़ा नहीं रह सका । लम्बी कूद की बात अलग थी, जिसमें किसी घोड़े की चिन्ता नहीं करनी होती थी। हम पंद्रह फीट लम्बे खम्बे को पकड़ कर, जितना तेज भाग सकते थे, भागते थे, और जब हमारी गति पर्याप्त होती, तो हम खम्बे की सहायता से कूदते थे मैं कहा करता था कि, जिनके पैरों में दम नहीं है, वे अपने घोड़ों पर ही चिपके रहें । परंतु मैं, जो अपनी टॉगों का उपयोग करता था, सही में अपनी टॉगों को धनुषाकार रूप में मोड़ सकता था ये जलधाराओं को पार करने का एक अच्छा तरीका था। उन्हें देखना बहुत सुख देता था जो मुझे डूबते (कूदते) देखकर, एक के बाद एक मेरा पीछा करने की कोशिश कर रहे हैं । पैरों में लम्बी लकड़ी (stit, लम्बी बैसाखी) बॉध कर चलना, मेरे समय गुजारने का दूसरा तरीका था। हम अच्छी तरह से अच्छे कपड़े पहनकर, और दैत्याकार रूप में पैरों में लकड़ी बाँध कर, एक दूसरे से लड़ते थे, और जो इस लड़ाई में गिर जाता था, वह हार जाता था पैरों में बाँधने की लकड़ी (लम्बी बैसाखी), घर की बनी होती थी। हम ऐसी चीजों को खरीदने के लिए, पड़ौस की दुकान पर नहीं जा सकते थे। हम पड़ौस के दुकानदारों और अपने नौकरों, सामान्यतः परिचारकों के पीछे लगे रहते थे, ताकि हम अच्छे प्रकार के लकड़ी के ऐसे टुकड़े प्राप्त कर सकें, जिनका रेशा अच्छा हो और उनमें किसी प्रकार की गॉठें नहीं हों हमें अच्छी तरह के तिकोने आकार के पैरदान भी चाहिए होते थे। चूँकि लकड़ी की तंगी थी, अतः उसको खराब करना बहुत मॅहगा होता था इसलिए हमें मौके की तलाश और उचित अवसर की प्राप्ति के लिए इंतजार करना पड़ता था। 4 अनुवादक की टिप्पणी : ये कमान का मध्यकालीन युग का सुधारा हुआ रूप होता है, जिसमें तीर छोड़ने के लिए स्वचालित घोड़ा (Trigger) होता है। लड़कियाँ और जवान औरतें, एक प्रकार का शटल कॉक (चिड़िया बल्ला) खेलतीं थीं लकड़ी के छोटे टुकड़े पर, ऊपर के सिरे पर छेद बनाकर, पक्षियों के पर लगा दिए जाते थे इस प्रकार की बनी चिड़िया को पैरों का उपयोग करते हुए, हवा में ही बनाए रखना होता था । लड़कियों को अपना घाघरा (skirt) घुटनों से उचित ऊँचाई तक ऊपर उठा लेने की इजाजत थी, ताकि अपने पैरों से चिड़िया को किक (kick) कर सकें हाथों से उसे छूना, लड़की को अयोग्य घोषित करा देता था । अच्छी सक्रिय लड़की, शटलकॉक को, एक किक भी छूटे बिना, दस मिनट तक हवा में उछला रख सकती थी। तिब्बत में, विशेषकर यू (U) जिले में, जो ल्हासा का क्षेत्र है, लोगों की वास्तविक अभिरूचि पतंग उड़ाने में थी। यह राष्ट्रीय खेल कहा जा सकता था। हम विशेष अवसरों पर, और विशेष समयों पर ही, इसमें शामिल हो सकते थे। बरसों पहले यह खोज की गई थी, कि यदि पहाड़ों में पतंग उड़ाई जाए, तो बहुत तेज वर्षा होती है । उन दिनों में यह कहा जाता था कि, वर्षा का देवता क्रोधित है । इसलिए पतंग उड़ाने की, केवल बसंत के अंत में ही, जो तिब्बत में शुष्क मौसम माना जाता है इजाजत होती थी। वर्ष के एक निश्चित समय में, लोग पहाड़ों में चिल्ला नहीं सकते थे, क्योंकि, इन आवाजों से होने वाली गूँज, अतिसंतृप्त पानी की बून्दों को, भारत से लेकर आने वाले बादल, गलत दिशा में बरसा देते थे। बसंत के अंत के पहले दिन, पोटाला की छत से एक लम्बी पतंग उड़ा कर, शुरूआत की जाती थी। मिनटों में ही सभी आकार-प्रकार की, तथा सभी रंगों की बनी हुई अनेक पतंगें, पूरे ल्हासा में हवा में भटकती, मटकती दिखाई देने लगती थीं |। मुझे पतंग उड़ाना बहुत पसंद था, और मुझे लगता था, कि मेरी पतंग सबसे अधिक ऊँचाई पर उड़े। सामान्यतः हम सभी अपनी पतंगें, बॉस की सींकों के ढाँचे (bamboo framework) से बनाते थे, और उसे बढ़िया रेशमी कपड़े से ढकते थे। हमें अच्छी गुणता के पदार्थ प्राप्त करने में परेशानी नहीं होती थी। ये प्रत्येक घर के लिए सम्मानपूर्ण होता था, कि उसकी पतंगें सबसे अच्छे प्रकार की हों। डिब्बे के रूप में बनी पतंग को हम अजगर (dragon) के भयानक सिर से जोड़ देते थे और उसके परों को पूँछ से जोड़ते थे। अपने प्रतिद्वंदियों की पतंगों को काटकर नीचे गिराने के लिये, हमारे यहाँ लड़ाइयॉ होती थीं । हम पतंगों के मांझे के ऊपर सरेस में मिलाकर, टूटे हुए कॉच के महीन कण चिपका देते थे, जिससे वे दूसरों के मांझे को काटकर गिरा सकें, और हम गिरती हुई पतंगों को कई बार हम अकेले ही अपनी पतंग, रात को चोरी से, उसमें अंदर जलता हुआ घी का दीपक रखकर हवा में उड़ाते थे, जिससे पतंग में बनी ऑखें लाल -लाल चमकती थीं, और उसका बाकी हिस्सा, अंधेरी रात के आकाश में अलग अलग रंगों का दिखता था जब ल्हो-दूसोंग (Lho-dzong) जिले से याक के बड़े-बड़े कारवॉ आने की उम्मीद होती थी, तो हम इन्हें उड़ाना विशेष रूप से पसंद करते थे । हम अपने बचपन के भोलेपन में यह समझते थे, कि दूर देश से आने वाले अनजान देशी लोग पतंगों के हमारे इन नए आविष्कारों के संबंध में नहीं जानते होंगे, इसलिए हम उन्हें डराने के अनोखे उपाय करते थे। हमारी एक विशेष युक्ति थी, तीन भिन्न भिन्न खोलों (shells) को, एक पतंग के अंदर, विशिष्ट प्रकार से रखना, ताकि जब हवा चले, वे एक खास प्रकार की खराब आवाज उत्पन्न करें हम आग उगलते अजगरों को चीखते हुए, रात में देखना पसंद करते थे और हम उम्मीद करते थे कि, इसका प्रभाव व्यापारियों पर अच्छा पड़ेगा। हमें अपनी रीढ़ की हड्डी में एक विशेष प्रकार की खुजलाहट महसूस होती थी। अच्छा भी लगता था, और हम सोचते थे कि, ऊपर उड़ने वाली पतंगों से डर कर, ये लोग अपने बिस्तरों में जा घुसते थे। यद्यपि, इस समय मुझे पता नहीं था, कि पतंगों के साथ मेरा ये खेल, बाद के जीवन में, जब मैं लूट लें। वास्तव में इनमें बैठकर उड़ूगा, मुझे सहारा देगा | अब ये एक उत्तेजक खेल ही नहीं था बल्कि, हमारे लिये अत्यंत खतरनाक भी हो सकता था। हमने बड़ी-बड़ी पतंगे, लगभग सात या आठ फीट चौकोर वर्गाकार आकार की तथा उनमें दोनों ओर को बड़ी-बड़ी पंखड़िया लगाकर, बनाईं । हम इन्हें खादर के समीप एक समतल जमीन पर रखते थे, जहाँ पर हवा का ऊपर की ओर, तीव्र उछाल हुआ करता था । हम अपने कमर में लपेटी रस्सी के एक सिरे से पोनी को बांध देते थे, और जितनी तेजी से हमारे पोनी दौड़ सकें, दौड़ाते थे, जिससे पतंग हवा में उछलती, फिर लगातार ऊपर, और ऊपर, एक खास ऊँचाई तक उठती ही जाती। तभी एक झटका लगता, और सवार पोनी से उठ कर हवा में लगभग दस फीट उछल जाता, और बाद में धीमे-धीमे झूलता हुआ जमीन पर आता। कुछ गरीब अभागे कट भी जाते, यदि वे अपने पैरों को रकाब से हटाना भूल गये होते। मैं घोड़े पर कभी अच्छा नहीं रहा, इसलिए हमेशा गिर पड़ता था। हवा में उड़ना खुशी देता था, आनंददायक था । मुझे यह बेवकूफी भरा साहसिक कार्य लगा, यदि मैं उठने के समय में रस्सी को तेजी से झटका दूं, और इतने में ही कोई चालाक याक मुझे कुछ ही सेकिण्डों में उड़ान में लम्बा कर दे । एक अवसर पर, मैंने बड़ी हिम्मत के साथ डोर को झटका दिया। साथ में हवा ने सहयोग किया, जिससे मैं एक किसान के घर की छत पर, जिस पर सर्दियों में जलाने था, गिर गया । तिब्बती किसान, समतल छतों, जिन पर मुँडेर बनी हो, वाले घरों में रहते हैं । ये मुँडेरें याकोबर, जिसे सुखाकर जलाया जाता है को रोक कर रखती हैं । ये विशिष्ट घर, अधिक सामान्य पत्थर के बजाय, कच्ची ईंटों का बना हुआ था। उसमें कोई चिमनी नहीं थी। धुए को बाहर निकालने के लिए, छत में एक गोल छेद बनाया गया था । मेरे इस प्रकार अचानक आ कर गिर जाने, और घिसटने से ईधन अव्यवस्थित हुआ, और दुर्भाग्यवश, मैं गोल छेद में से, नीचे जलने वाली आग में, ईंधन सहित गिर कर झुलस गया। मैं अधिक विख्यात नहीं था। छेद में से नीचे गिरने पर, गुस्से से भरी चीख के साथ, मेरा स्वागत हुआ और धुनाई के साथ, धूल झाड़ता हुआ गृहस्वामी, मुझे पिताजी तक खींच कर लाया, और मुझे सुधारने के लिए, दवाई की दूसरी खुराक, झिड़की दी गई। उस रात में औधे मुँह पड़ा रहा । अगले दिन मुझे अस्तबल में होकर जाने का, और याकोबर को इकट्ठा करने का अरूचिकर कार्य मिला, जिसे मुझे किसान के घर तक ले जाना पड़ा, और छत पर डालना पड़ा । चूंकि मैं छै: वर्ष का भी नहीं था, अतः यह वास्तव में बहुत कठोर कार्य था, परंतु मुझे छोड़कर हर व्यक्ति संतुष्ट था । दूसरे लड़के मेरे ऊपर हॅसे, किसान को दूना ईधन मिल गया, और पिताजी को ये दिखाने का अवसर मिल गया, कि वे काफी सख्त और न्यायप्रिय व्यक्ति हैं । अगली रात, मैं फिर औंधे मुँह लेटा रहा। मैं घुड़सवारी के कारण घायल नहीं हुआ था। यह सोचा जा सकता है कि, ये काफी कठोर इलाज था, परंतु तिब्बत में कमजोरों के लिए कोई स्थान नहीं है। ल्हासा समुद्रतल से बारह हजार फीट ऊँचाई पर है, जिसमें तापमान में सर्वाधिक उतार-चढ़ाव होते हैं। दूसरे जिले इससे भी अधिक ऊँचाई पर हैं। उनकी हालत और भी ज्यादा खराब है, और कमजोर व्यक्ति आसानी से कठिनाई में पड़ते रहते हैं । इस वजह से, न कि किसी कठोर आशय से, यह कठोरतम प्रशिक्षण आवश्यक है। लिए ईधन रखा हुआ अधिक ऊँचे स्थानों पर, ये परखने के लिए, कि बच्चे इन अवस्थाओं में जिन्दा रहने के लिए पर्याप्त रूप से कठोर हैं अथवा नहीं, लोग अपने नवजात शिशुओं को, बर्फ जैसी जमी धाराओं में डुबा कर रखते हैं। बहुत बार, मैंने छोटे-छोटे जलूसों के रूप में लोगों को इस तरह जल धारा के पास आते देखा है, जो समुद्रतल से लगभग सत्रह हजार फीट की ऊँचाई पर होते हैं । इसके किनारे पर ये जलूस ठहर जाता है, और दादी, बच्चे को अपने पास ले लेती है ।  अनुवादक की टिप्पणी : गाय के मल को हिन्दी में गोबर कहते हैं, अतः मैंने यहाँ याक के मल के लिए, याकोबर शब्द गढ़ा है। उसके परिवार के सदस्य, माता-पिता और दूसरे नजदीकी सम्बंधी, उसके चारों ओर इकट्ठे हो जाते हैं, बच्चे को नंगा किया जाता है, और दादी छोटे बच्चे को इतना, कि जिससे केवल सिर और मुँह ही हवा में बाहर रहें, पानी में डुबा देती है। इस कड़कड़ाती सर्दी में बच्चा लाल पड़ता है, फिर नीला पड़ जाता है, और फिर वह विरोध में चीख-चीख कर चुप हो जाता है। ऐसा लगता है कि वह मर गया, परंतु दादी मां को इस प्रकार के कई अनुभव हैं। अतः इस अवस्था में छोटे बच्चे को पानी के बाहर निकाला जाता है, सुखाया जाता है और कपड़े पहनाए जाते हैं। यदि बच्चा जीवित बच जाता है, तो वह अच्छी किस्म का माना जाता है, और यदि वह मर गया, तो यह माना जाता है कि, उसे इस दुनियाँ की तमाम परेशानियों, मुसीबतों से छुटकारा मिल गया। वास्तव में यह एकदम ठण्डे देश के लिए दयालुतापूर्ण, तरीका ही है । ये ज्यादा अच्छा है कि, केवल कुछ बच्चे मर जाऐें, बजाए इसके कि, वे बाद में लाइलाज बीमारियों से अपंग हो कर, देश में कम चिकित्सकीय सुविधाओं के चलते, अभाव में यहॉँ-वहाॅ घूमते फिरें । मेरे भाई की मृत्यु के बाद, मेरा अधिक गहराई से अध्ययन करना आवश्यक हो गया, क्योंकि जब मैं सात साल का होऊँगा, तो ज्योतिषियों ने जो भी आगे का रास्ता बताया, वह मुझे करना है। तिब्बत में याक खरीदने से ले कर, किसी के पेशे का निर्धारण तक, ज्योतिषियों के कहने पर होता है । सातवें जन्मदिन से ठीक पहले, समय आता जा रहा था, जब मॉ एक बड़ी दावत देंगी, जिसमें ऊँची श्रेणी के भद्र पुरुष, ज्योतिषी की भविष्यवाणी को सुनने के लिए आमंत्रित किए जायेंगे। माँ निश्चित रूप से मोटी थी । उसका चेहरा गोल और बाल काले थे तिब्बती महिलायें, एक प्रकार का लकड़ी का ढॉँचा अपने सिर के चारों ओर पहनती हैं, जिसके ऊपर, उनके बाल गहनों की तरह सजाए जाते हैं। ये फ्रेम काफी बड़े और खर्चीले होते हैं, जो ईंटिया लाल रंग ( crimson red) की लाख, जिसमें कीमती पत्थर नगीने, मूँगा माणिक जड़े हों, से सजाए जाते हैं । तिब्बती महिलायें, बहुत भड़कीले और सुंदर, लाल, हरे और पीले रंग के वस्त्र पहनती हैं। अनेक उदाहरणों में झॅगा (apron) एक रंग का होता है, जिसमें विरोधी परंतु सामंजस्यपूर्ण रंग की, क्षैतिज पट्टियाँ होती हैं। बॉये कान में इयरिंग होते हैं, जिनका आकार पहनने वाले की श्रेष्ठता श्रेणी पर निर्भर करता है। अग्रणी परिवारों में से एक होने के कारण, माताजी छै: इंच से भी अधिक लंबाई का ईयरिंग पहनती थीं। हमारा विश्वास है कि, महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार होने चाहिए, परंतु घर चलाने में माँ उससे आगे निकल जाती थीं, और वह निविर्वाद रूप से एक तानाशाह, एक स्वेच्छाचारी थीं , जो यह समझती थीं कि उन्हें क्या चाहिए, और हमेशा वह पा लेती थीं | अब दावत के लिए घर तैयार करने की खलबली में, वह अपने वास्तविक रूप में थीं । जो किया जाना है, उसके हर आदेश वह दे रही थीं, पड़ौसियों से आगे बढ़-चढ़ कर दिखने के लिए, उनके पास तमाम योजनायें थीं। पिताजी के साथ वे अनेक बार भ्रमण पर, भारत, पेकिंग और शंघाई गई थीं । उनके पास विदेशी विचारों का भरा-पूरा खजाना था। दावत की तारीख निश्चित हो जाने पर, भिक्षुओं द्वारा हाथ के बने मोटे कागज पर, जो इस प्रकार के अत्यधिक महत्वपूर्ण संवाद के लिए प्रयोग किया जाता था आमंत्रणपत्र सावधानीपूर्वक लिखे गए। प्रत्येक आमंत्रणपत्र लगभग बारह इंच चौड़ा और दो फीट लम्बा था । प्रत्येक आमंत्रणपत्र पर पिताजी की पारिवारिक मुद्रा अंकित थी, साथ ही चूंकि माताजी ऊपर के दस परिवारों में से आती थीं, अतः उनकी भी मुद्रा, साथ-साथ अंकित थी । पिताजी और माताजी के पास एक संयुक्त मुद्रा भी थी। इस प्रकार, कुल तीन मुद्रायें, निमंत्रण पत्रों पर छापी गईं। यद्यपि आमंत्रण सुनिश्चित पत्र थे, परंतु फिर भी उन्होंने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि, ये पूरा झगड़ा केवल मेरे संबंध में था । मुझे यह पता नहीं था कि, मैं वास्तव में द्वितीयक ( secodary) महत्व का हू, और यह सामाजिक जलसा पहले नंबर पर आता है। यदि मुझे बता दिया होता कि, यह भव्य दावत मेरे माता-पिता के लिए बड़ी इज्जत देने वाली है, तो भी मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । अतः मैं थोड़ा डरा हुआ था । इन आमंत्रणपत्रों को पहुँचाने के लिए, हमने विशेष प्रकार के संदेशवाहकों को काम में लगाया था। हरेक आदमी एक शुद्ध नस्ल के घोड़े पर सवार था । हरेक के हाथ में एक चिरी हुई बॉस की डंडी (cleft stick) थी, जिसमें आमंत्रणपत्र को फॅसाया गया था इस छड़ी के ऊपर, परिवार के कुलचिन्ह की प्रतिकृति, चढ़ाई गई थी। छड़ी को अच्छी तरह से प्रार्थना से सजाया गया था जो हवा में लहरा रही थी। ऑगन में बहुत चहल-पहल थी, क्योंकि उसी समय संदेशवाहकों को भेजे जाने के लिए तैयार किया गया था। संदेशवाहक जोर-जोर से चिल्ला रहे थे, घोड़े हिनहिना रहे थे, और बड़ा झबरीला (mastifi) काला कुत्ता, पागलपन से भौंक रहा था । आखिरी समय में, तिब्बती बियर, मग में डाल कर गटकी गई, और एक जोरदार आवाज के साथ मुख्य द्वार खोला गया । छक कर पीने के बाद, संदेशवाहकों का पूरा समूह तेजी से भागता चला गया। तिब्बत में संदेश, संदेशवाहकों द्वारा लिखित रूप में बॉटे जाते हैं, लेकिन इसके साथ-साथ वे इसे मौखिक रूप से भी कहते हैं, जो लिखे हुए से एकदम भिन्न हो सकता है। बहुत पहले समय में, डकैत सड़क चलते संदेशवाहकों को पकड़ लेते थे, और लिखे हुए संदेशों की बिना पर अमल करते थे । शायद दुराशय वाले ये लोग, के लिये, गुमराह करने वाले संदेश लिखे जाते थे, क्योंकि हो सकता है कि, डकैत उनको पकड़ लें । ये लिखे और जुबानी संदेश भेजने का तरीका, संभवतः, भूतकाल में डकैतों से बचने का एक रास्ता था । अभी भी कई बार, दोनों प्रकार के संदेश अलग - अलग हो सकते हैं, परंतु जुबानी संदेश ही, हमेशा सही माना जाता है। पर धावा बोलते थे। अतः ये प्रथा बन गई थी कि, झण्डी पर दिखाने घर के अंदर हर चीज अस्तव्यस्त और गड़बड़झाला थी । दीवारों को साफ किया गया था, और दुबारा रंगा गया था । फर्श को रगड़ कर साफ किया गया था और लकड़ी के तख्तों को, तब तक पॉलिश किया गया था, जब तक कि वे, वास्तव में चलने के लिए खतरा न बन जाऐें । प्रमुख कक्ष में गढ़ी गई लकड़ी की वेदी, अच्छी तरह पॉलिश की गई थी, उस पर फिर लाख चढ़ाई गई थी, और मक्खन के अनेक नये दिए उपयोग में लाए गए थे इनमें से कुछ दीपक सोने के थे और कुछ चांदी के, परंतु वे सब इतने अच्छे पॉलिश किए गए थे कि, ये पहचानना मुश्किल था कि, कौन सा किस प्रकार का है। पूरे समय मॉ और मुख्य परिचारक यहा की आलोचना करते हुए वहाँ की व्यवस्था करते हुए, और नौकरों को कम समय में काम पूरा करने के लिये कहते हुए, जल्दबाजी में इधर उधर घूम रहे थे । उस समय हमारे पास पचास से अधिक नौकर थे, और दूसरे अनेक लोग आने वाले उत्सव के लिए, अतिरिक्त रूप से लगाए गए थे वे सभी व्यस्त रखे गए, परंतु उन सभी ने पूरी इच्छा के साथ काम किया। ऑगन को भी तब तक रगड़ कर साफ किया गया, जब तक कि, पत्थर नए की भाँति चमकने नहीं लगे। जोड़ों को भरने के लिए, खाली स्थानों को रंगीन पदार्थों से भरा गया जब ये सब किया जा रहा था, तो बेचारे, अभागे, नौकर मॉ के सामने बुलाए गए, और उनको साफ से साफ कपड़े पहनने के लिए कहा गया। रसोई घर में हद से ज्यादा चहल- पहल, सक्रियता थी। काफी मात्रा में खाना तैयार किया गया। तिब्बत एक प्राकृतिक प्रशीतक (refrigerator) है । खाना लगभग अनंत समय के लिए भी ताजा और सुरक्षित रखा रहता है। वातावरण बहुत-बहुत ठंडा और सूखा है, लेकिन फिर भी, जब तापक्रम बढ़ता है तो, शुष्कता खाने को अच्छा बनाए रखती है। मांस, लगभग एक साल तक ताजा रहता है, जबकि अनाज, सैकड़ों वर्षों तक ताजे बने रहते हैं। बौद्ध हत्या नहीं करते। इसलिए केवल उन पशुओं का ही, जो पहाड़ी चोटियों से गिर पड़ते हैं, अथवा दुर्घटनावश मारे जाते हैं, मांस उपलब्ध होता है । हमारे लोगों के यहाँ, इस प्रकार के मांस का अच्छा भंडारण रहता है। तिब्बत में कसाई भी होते हैं, परंतु वे अछूत जाति के हैं और पुरातनपंथी परिवार, उनके साथ किसी प्रकार का व्यवहार नहीं रखते। माँ ने अतिथियों को बिरली और मॅहगी दावत देने का निश्चय किया था । वह उन्हें सदाबहार के फूलों (rhododendron bloom) के अचार की दावत देने वाली थीं । हफ्तों पहले, नौकरों को ऑगन से, हिमालय की निचली पहाड़ियों में जाने के लिए, घोड़ों पर भेजा गया था जहाँ पर इस प्रकार के मनभावन फूल मिलते थे। हमारे देश में सदाबहार का पेड़ बहुत ऊँचा होता है, जिसमें चकित कर देने वाली अनेकों किस्में, गंध और रंग होते हैं। वे फूल जो पूरी तरह खिले नहीं हैं, उनको चुना जाता है, और सावधानी के साथ धोया जाता है, क्योंकि यदि उन पर थोड़ी सी भी रगड़ लगी, तो अचार खराब हो जायेगा। तब प्रत्येक फूल को इतनी सावधानी के साथ, कि उसके साथ में हवा नहीं चिपके, पानी और शहद के मिश्रण से भरे, कॉच के बड़े जार में डुबोया जाता हैं। जार को सील कर दिया जाता है, और हफ्तों तक प्रतिदिन जार को धूप में रखा जाता है, तथा समय- समय पर हिलाया जाता है, ताकि फूल के सभी भागों पर अच्छी धूप लग सके फूल धीमे-धीमे बढ़ते हैं और शहद और पानी से बने अमृतमय पेय से भर जाते हैं । कुछ लोग खाने से पहले फूलों को थोड़ी हवा में रखते हैं परंतु इससे उनकी गंध और आकृति नहीं बदलती। ये लोग फूल की पंखुड़ियों पर थोड़ी चीनी भी छिड़कते हैं, जो बर्फ की तरह दिखती है। पिताजी ने इस प्रकार के खर्चीले अचारों के प्रति, थोड़ी नाराजगी दिखाई : "हम इतने से, बच्चों सहित दस याक, खरीद सकते थे, जितना तुमने इन सुंदर फूलों को खरीदने में खर्च किया है", उन्होंने कहा। माँ का जवाब एक आम औरत की तरह से थाः "मूर्ख मत बनो! हमको दिखावा करना चाहिये, और वैसे भी, ये मेरे घर का मामला है ।" दूसरा विशिष्ट स्वाद, शार्क के गलफड़ों (shark's fins) का था। ये चीन से लाए गए थे। पट्टियों में काटकर उनका सूप बनाया गया था । किसी ने कहा है कि "शार्क के गलफड़ों का सूप दुनियाँ का सबसे स्वादिष्ट भोजन है ।" मेरे लिए ये भयानक खराब स्वाद वाला था । इसे निगलना बहुत कठिन था, विशेषकर उस समय, जब यह तिब्बत में पहुँचा, तो शार्क के मूल स्वामी भी, इसे नहीं पहचान पाए होंगे । नम्र शब्दों में कहा जाए, तो ये, थोड़ा "खराब" था । कुछ को यह, सुगंध बढ़ाने वाला लग रह था ।मेरा पसंदीदा भोजन, नए बॉस की कलियों का रसदार सूप था। वह भी चीन से लाया गया था। इसको कई तरह से पकाया जा सकता था परंतु मैं थोड़े नमक के साथ, इसे कच्चा ही पसंद करता था। मेरी पसंद, नई आने वाली कोंपलों के पीले - हरे सिरे थे मुझे डर है कि, अनेक कोंपलें, पकाने से पहले, अपने अंतिम सिरों को खो चुकी थीं, जिसके बारे में रसोइया न कोई अनुमान लगा सकता था, और न सिद्ध कर सकता था। गजब, क्योंकि रसोइये ने उनको उसी प्रकार पसंद किया था । तिब्बत में रसोइये आदमी होते हैं; औरतें त्सम्पा को चलाने में अच्छी नहीं होतीं, अथवा सही मिश्रण नहीं बना पातीं। औरतें किसी में से मुट्ठी भर (थोड़ा सा) लेती हैं, दूसरे में से डेले भर (बहुत अधिक) लेती हैं, और इस आशा के साथ, कि यह ठीक ही होगा, मिला देती हैं । आदमी ज्यादा सही हैं, अधिक कष्ट उठाने वाले, इसलिए ज्यादा अच्छे रसोइये होते हैं । औरतें वास्तव में धूल झाड़ने, सफाई करने, बातें करने व दूसरे कुछ कामों के लिए ही ठीक होती हैं, त्सम्पा बनाने के लिए नहीं । त्सम्पा तिब्बतियों का प्रमुख खाद्य है । कुछ लोग अपने जीवन के पहले खाने से लेकर अंतिम खाने तक केवल त्सम्पा और चाय पर ही जीवित रहते हैं । ये जौ से बनाया जाता है, जिसे सुनहरा भूरा कड़कदार होने तक, हल्का भूना जाता है, और जब जौ की मिगी चटकने लगती है, तथा उसमें से आटा बाहर निकल कर दिखने लगता है, तो इसे दुबारा फिर भूना जाता है । इसका आटा कटोरे में डाल दिया जाता है, और उसमें मक्खन वाली गर्म चाय, मिलाई जाती है। मिश्रण को तब तक मिलाया जाता है, जब तक कि, ये आटे की तरह गुंथ नहीं जाए। स्वाद के अनुसार नमक, सुहागा (borax ) और याक का मक्खन मिलाया जाता है। परिणामस्वरूप त्सम्पा को पट्टियों के रूप में बेला जा सकता है, गुच्छा बनाया जा सकता है, अथवा सजावटी सॉचों की शक्ल में ढाला जा सकता है । त्सम्पा अपने आप में सम्पूर्ण आहार है, सांद्रित खाद्य है, जो जीवन को सभी अवस्थाओं में, और ऊँचे स्थानों पर, बचाए रखता है। कुछ सेवक त्सम्पा बना रहे थे, जबकि दूसरे मक्खन बना रहे थे हमारा मक्खन बनाने का तरीका स्वास्थ्य और सफाई के आधार पर अच्छा नहीं कहा जा सकता। हमारी रई (मथानी) भेड़ की खाल के बड़े थैले (मशक) होते थे, जिनमें बाल अंदर की ओर रहते थे , इनमें याक' का अथवा भेड़ का दूध भरकर, गर्दन को मरोड कर कस कर बँध दिया जाता था, जिससे कुछ भी बाहर न निकले । पूरी चीज को तब तक, बार-बार ऊपर से नीचे पटका जाता था, जब जक कि, मक्खन न बन जाये । हमारे यहाँ मक्खन बनाने के लिए एक विशेष फर्श था, जिस पर लगभग अठारह इंच ऊंचे उठे हुए पत्थर लगे थे। दूध से भरे थैले को उठा कर, इन पत्थरों पर पटका जाता था। इससे दूध को मथने जैसा प्रभाव पैदा होता था। लगभग दस सेवक इन थैलों को उठाने और गिराने के लिए घण्टों तक लगे रहते थे। थैले को उठाते समय ऊह-ऊह की आवाज और लुगदी जैसे मक्खन को पटकते समय जंक की आवाज होती थी। कई बार लापरवाही से उठाए जाने पर, अथवा थैला पुराना होने पर, फट जाता था। मुझे याद है, एक वाकई मोटा आदमी अपनी ताकत दिखा रहा था । वह दूसरों से दूनी तेजी से काम कर रहा था। थकान के कारण उसकी गर्दन पर उभरी हुई नसें दिखने लगी थीं । किसी ने कहा, "तुम बूढ़े हो गए हो तिम्मन! तुम ढीले पड़ गए हो " तिम्मन को गुस्सा आया। उसने थैले की गर्दन को अपने कठोर हाथों में पकड़ कर उठाया, और नीचे पटक दिया, परंतु उसकी ताकत अपना कमाल दिखा चुकी थी, थैली तो नीचे गिर गई, परंतु तिम्मन के हाथ और गर्दन, वहीं, हवा में ज्यों के त्यों खड़े रह गए। पत्थरों के वर्गाकार पटिये पर वह थैला गिरा । आधा बना हुआ मक्खन, धार के रूप में उड़ा, और भौंचक्के तिम्मन के चेहरे पर टकराते हुए, सीधा उसके ऑख, नाक, कान और बालों में घुस गया। अनुवादक की टिप्पणी : त्सम्पा जौ का सत्तू होता है, जिसे बनाने का तरीका थोड़ा भिन्न है। 7 अनुवादक की टिप्पणी : ये चीन, भारत, भूटान, नेपाल, तजाकिस्तान, वियतनाम और मंगोलिया आदि देशों में मिलते हैं। याक गाय की भांँति शाकाहारी प्राणी है। नर याक को याक अथवा ग्याग (Gyag) कहते हैं, मादा याक को ड्री (Dri) अथवा नाक (Nak) कहते हैं। अधिकांश अंग्रेजी बोलने वाले देशों में इसे गाय (Cow) कहा जाता है। याक का वजन 4000 से लेकर 5500 पोंड तक होता है इसका गर्भकाल 9 माह का होता है। बारह से लेकर पंद्रह गैलन तक सुनहरा-पीला, ठंडा, मक्खन उसके पूरे शरीर पर गिर गया । शोर-शराबे से आकर्षित होकर मॉ दौड़ी आई । केवल इसी समय पर मैंने उसे भौचक्का होते हुए पाया। ये मक्खन के होने वाले नुकसान पर गुस्सा हो सकता था, अथवा उस गरीब पर, जो मक्खन में सना हुआ था, उसको देखने का प्रभाव हो सकता है, परंतु उसने भेड़ की खाल के थैले को फाड़ा और मक्खन को तेजी से गरीब तिम्मन के ऊपर फैंक दिया। फिसलन वाले फर्श पर उसका पैर फिसल गया, और वह फैले हुए मक्खन की कीचड़ में गिर पड़ा । भौंचक्के सेवक, जैसे तिम्मन, मक्खन का नाश कर सकते हैं, यदि वे पत्थरों पर थैली को पटकते समय लापरवाह हों । इससे थैली की खाल के अंदर के बाल ट्ूट सकते हैं, और मक्खन के साथ मिल सकते हैं। मक्खन में, एक- दो दर्जन बालों के होने पर, कोई ध्यान नहीं देता, परंतु यहाॅ तो पूरा मक्खन ही खराब हो गया था। ऐसे मक्खन को दीपों में जलाने के लिए, अथवा भिखारियों में बॉटने के लिए अलग रख दिया गया, जो इसे गरम करके कपड़े में छान लेंगे इसी प्रकार भोजन पकाने में होने वाली सभी गलतियाँ, भिखारियों के लिए अलग उठा कर रख दी जाती थीं। यदि कोई घरवाला ये चाहता हो, कि उसके पड़ौसियों को ये मालुम हो कि, खाने का उच्च स्तर बना कर के रखा गया था, और खाना वाकई अच्छा तैयार किया गया था, तो बाकई अच्छा खाना, भिखारियों को, गलती के रूप दे दिया जाता था। अच्छा खाए हुए, प्रसन्न भद्र पुरुष, दूसरे लोगों को ये बताने में नहीं चूकते थे कि, उन्होंने कितना अच्छा खाया था। भिखारियों को अच्छा खाना मिला है, ये देख कर पड़ौसियों की प्रतिक्रियाएं होती थीं। तिब्बत में, भिखारियों के जीवन पर कहने के लिए बहुत कुछ है, वे कभी चाहते नहीं है, परंतु अपने "व्यवसाय की युक्तियों" को प्रयोग करने के कारण, वे बहुत अच्छी तरह से जी लेते है। अधिकतर पूर्वी देशों में भीख मॉगने को बुरा नहीं माना जाता। अनेक भिक्षुक, एक लामामठ से दूसरे लामामठ तक, माँगते हैं। ये जानी -मानी प्रक्रिया है, जो दूसरे देशों में परमार्थ के लिए धन इकट्ठे किए जाने वाली प्रक्रिया से बुरी नहीं मानी जाती। जो सड़क चलते भिखारियों को खाना खिलाते हैं, उन्होंने अच्छा कार्य किया है, ऐसा माना जाता है। भिखारियों की भी अपनी आचारसहिंता है। जब कोई व्यक्ति किसी भिखारी को भीख देगा, तो भिखारी भीख पाकर अलग हट जाएगा, और कुछ समय के लिए दाता के पास दुबारा नहीं जाएगा। हमारे घर से जुड़े हुए दो पुजारी, आने वाली घटनाओं की तैयारी में, अपनी भूमिका रखते थे । वे हमारे रसोईघर में उपयोग में लाए गए प्रत्येक जानवर के कंकाल तक गए, और उन्होंने पशुओं की आत्माओं के लिये, जो उन शरीरों में रहती थीं, प्रार्थना की । ये हमारा विश्वास था कि, यदि कोई पशु दुर्घटनावश भी मारा जाता है, और खाया जाता है, तो मनुष्यों के ऊपर उसका ऋण चढ़ जाता है । ये ऋण, पुजारी द्वारा उनकी आत्माओं के लिये प्रार्थना करने पर, कि उस पशु को अगले जन्म में उच्च श्रेणी का जीवन मिले, उतारा जाता है। लामामठों और मंदिरों में कुछ भिक्षु, पूरे समय तक केवल पशुओं के लिए ही प्रार्थना करते हैं। हमारे पुजारी घोड़ों को लम्बी यात्रा पर जाने से पहले, बहुत अधिक थकने से बचाने के लिए प्रार्थना करते थे। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि, हमारे घोड़ों ने कभी भी लगातार दो दिन तक काम नहीं किया। यदि किसी घोड़े को एक दिन सवारी में लिया गया तो उसे अगले दिन आराम देना होता था। दूसरे काम वाले पशुओं के साथ भी यही नियम लागू था । वे भी इसे जानते थे। यदि गलती से, कोई घोड़ा, जिसे एक दिन पहले सवारी के लिए काम में लिया गया था अगले दिन दुबारा फिर काम पर लगाया जाता, तो वह हिलता भी नहीं था, और चलने से मना कर देता था । तब उसकी पीठ से जीन उतार दी जाती थी, तो वह प्रसन्न होकर सिर को हिलाता । मानो कह रहा हो, "ठीक है, मैं प्रसन्न हूँ कि अन्याय को समाप्त कर दिया गया ।" गधों की हालत सबसे ज्यादा खराब थी। जब तक उन्हें लादा नहीं जाता, तब तक वे इंतजार करते थे, और लादे जाने पर भार को उतार फैंक कर, जमीन पर लेट जाते थे। हमारे पास तीन बिल्लियाँ थीं, और वे हर समय कर्त्तव्य (duty) पर उपस्थित रहती थीं। एक अस्तबल में रहती थी, और चूहों के ऊपर कठोर अनुशासन् रखती थी। चूहे, चूहे बने रहने में ही चतुराई दिखाते थे, न कि बिल्ली का भोजन बनने में दूसरा था बिल्ला, जो रसोई में रहता था। वह थोड़ा बूढ़ा और मूर्ख था। उसकी मॉ सन् 1904 में, यंगहस्बैंड के अभियान में बंदूक से डर गई थी । उसके तुरंत बाद वह पैदा हुआ था और अकेला वही जिन्दा बचा था। उसको ठीक ही, यंगहस्बैंड कहा जाता था। तीसरी बिल्ली, जो हमारे साथ रहती थी, बहुत आदरणीय संरक्षिका थी। वह मातृकर्तव्यों की आदर्श थी, और इस बात का पूरा ध्यान रखती थी कि, बिल्लियों की जनसँख्या घटने नहीं पाए । जब वह अपने बच्चों की देखभाल नहीं कर रही होती थी, तो कमरे-कमरे में, मॉँ के पीछे घूमा करती थी। वह छोटी और काली थी और अपनी जबरदस्त भूख के बावजूद, चलता फिरता हड्डियों का ढॉचा दिखाई देती थी। तिब्बती पशु, पालतू नहीं होते, और न ही वे गुलाम होते हैं । वे किसी अच्छे उद्देश्य की पूर्ति के लिए पैदा हुए प्राणी होते हैं। ऐसे प्राणी जिनके अपने अधिकार होते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे मनुष्यों के अधिकार होते हैं। वास्तव में बौद्ध आस्थाओं के अनुसार, सभी पशुओं में आत्मा होती है, और वे अगले जन्मों में उच्च योनियों में उत्पन्न होते हैं । शीघ्र ही हमारे आमंत्रणों के जवाब आने लगे। घुड़सवार, दौड़ते हुए आदमी अपनी-अपनी बॉस की फटी हुई स्वागत डंडियों में फॅसा कर संदेश लाने लगे। भद्र पुरुषों के संदेश लाने वाले वाहकों का, नीचे रहने वाला हमारा परिचारक, स्वागत करता था । वह संदेशवाहक की डंडी में से संदेश को निकालता, और उसके मौखिक संदेश को सुनता था। फिर वह संदेशवाहक, ये प्रदर्शन करने के लिए, नाटकीय ढंग से घुटनों के बल झुक कर बैठ जाता था कि, उसने इस संदेश को रम्पा के घर तक पहुँचाने में, अपनी पूरी शक्ति झौंक दी है। हमारे सेवक, संदेशवाहक के इर्द -गिर्द भीड़ लगाकर, उसके प्रति अपनी सहानुभूतिपूर्ण भूमिका निभाते थे, "गरीब बेचारे ने शीघ्र यात्रा करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी, तेज चाल के कारण उसका दिल टूट गया, हे भद्र पुरुष!" एक बार मैं स्वयं लज्जित हो गया, "ओह उसने ऐसा नहीं किया, मैंने उसे बाहर आराम करते हुए देखा था, जिससे वह अंतिम दौड़ लगा सके" इसके बाद वहाॅ दुख भरे दृश्य पर, भारी शांति का पर्दा पड़ गया । आखिर वह दिन आ ही पहुँचा, जिसके लिए मैं डरा हुआ था । जब मेरा भविष्य निर्धारित किया जाना था, जिसका मेरे पास कोई चुनाव नहीं था सूरज की पहली किरण, दूर पर्वतों से झॉकती ही जा रही थी, तभी एक सेवक मेरे कमरे में तेजी से घुसा, "क्या ? अभी तक उठे नहीं, ट्यूजडे, लोबसाँग रम्पा ? अभी बिस्तर पर ही पड़े हो, चार बज गए, बहुत कुछ काम करना है, उठो" मैंने अपना कम्बल एक तरफ खिसकाया और पैरों पर खड़ा हो गया मेरे लिए ये दिन मेरे जीवन का रास्ता इंगित करने वाला था। तिब्बत में दो नाम दिए जाते हैं, पहला उस दिन का जिस दिन कोई पैदा हुआ, मैं मंगलवार को पैदा हुआ था, इसलिए मंगलवार मेरा पहला नाम था, उसके बाद लोबसाँग जो मेरे मां-बाप द्वारा मुझे दिया गया नाम था। लेकिन यदि कोई लड़का लामामठ में प्रविष्ट हो तो उसे उसका भिक्षु नाम दिया जाता है। मुझे भिक्षु नाम क्या मिलने वाला था ? आगे आने वाले घण्टे ही इसे बता सकते थे। सात वर्ष की उम्र में, मैं त्सांग पो नदी, जो चालीस मील की दूरी पर थी, की लहरों पर उतराता, तैरता और पार करता हुआ, नाविक बनना चाहता था। लेकिन एक मिनट ठहरें, क्या मैं बन पाया ? नाविक नीची जाति के होते हैं, क्योंकि वे याक की खाल को लकड़़ी की नाव के ऊपर फैला कर बिछाते हैं। नाविक! नीच जाति ? नहीं! मैं पतंगे उड़ाने वाला व्यावसायिक ( professional ) उड़ाका बनना चाहता था, हवा की तरह स्वतंत्र। यह नदी की भयानक धारा के ऊपर, खाल चढ़ी हुई नाव को चलाने की तुलना में, अधिक अच्छा होता। पतंग उड़ाने वाला, जैसा मैं होता, बढ़िया पतंगें बनाता, बड़े सिर वाली और चमकती हुई आंखों वाली, परंतु आज पुजारी-ज्योतिषी अपनी बात कहेंगे। शायद मुझे थोड़ी देर हो गई, अब मैं खिड़की में से बाहर भी नहीं भाग सकता था। पिताजी मुझे पकड़ने के लिए तुरंत आदमियों को भेजते। नहीं, कुल मिलाकर मैं रम्पा था और मुझे अपनी परम्परा को निभाना था। हो सकता है, ज्योतिषी ये कहें, कि मैं पतंग उड़ाने वाला बनूँगा। मैं केवल प्रतीक्षा कर सकता था और देख सकता था । 

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