Manaskhand part 1
मानसखण्ड
(कुमाऊँ—इतिहास, धर्म, संस्कृति, वास्तुशिल्प एवं पर्यटन)
प्राचीन भारतीय साहित्य में हिमालय के पांच खण्ड़ों में से एक 'कूर्मांचल' मध्य हिमालय में देवभूमि उत्तराखण्ड राज्य का कुमाऊँ क्षेत्र है। इसे पौराणिक साहित्य में मानसखण्ड कहा गया है। उत्तराखण्ड राज्य में गढ़वाल क्षेत्र (केदारखण्ड) के पूर्व में मानसखण्ड (कुमाऊँ) की स्थिति है। केदारखण्ड व मानसखण्ड का सम्मिलित रूप ही उत्तराखण्ड है। मुख्य रूप से कोसी, सरयू, काली, रामगंगा (पूर्वी), गोरी, लोहावती आदि के प्रवाह वाला यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही संत-महात्माओं की तपश्चर्य व सिद्ध भूमि के रूप में विख्यात रहा है। प्राकृतिक समृद्धता के साथ ही संस्कृति, इतिहास, अन्वेषण, मूर्ति-शिल्प, मंदिर-संरचना व तीर्थाटन-पर्यटन की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यन्त महत्वशाली है। इस रहस्यलोक में प्रमुख स्थलों के अतिरिक्त भी अनेक स्थल ऐसे हैं जो खोज का विषय रहे हैं। लेखिका द्वारा इस क्षेत्र का अधिकतम् भ्रमण-अन्वेषण कर अनेक यात्रावृत्तान्तों, जानकारियों, अनुभवों व छायाचित्रों के माध्यम से प्रस्तुत कर मानसखण्ड एक मौलिक, शोधपरक, चिन्तनशील, उद्देश्यपरक साहित्य के रूप में समाज के सम्मुख आया है। केदारखण्ड के उपरांत मानसखण्ड लेखिका के महत्तम प्रयासों से निर्मित समाज को प्रदत्त एक अनुपम एवं उत्कृष्ट भेंट है।
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १८/७८)
समर्पण
भारत भूमि को नमन पावन 'हिमालय' को नमन
'देवभूमि' 'वीरभूमि' को नमन
शत-शत नमन।
यह देवभूमि, दिव्य भूमि, वीर भूमि
ओज से परिपूर्ण यह तपश्चर्य भूमि
दिव्यता के इस लोक में जो दृश्य है वह 'दिव्य' है
जो अदृश्य है वह 'आत्मबल' का प्रमाण है।
इन गिरि-गह्वरों के आत्म प्राणों में
संचित-सुगंधित वायु भी
ऊर्जा का आधार है
नित ताजगी का द्वार है।
नीर-सरिता जलमयीं
अठखेलियाँ करती भलीं
कहीं सौम्य तो कहीं रौद्र हैं
प्रकृति का एक उद्गार हैं।
जहाँ दूर दृश्य कैलास है
शिव-पार्वती का वास है
घंटा-निनादित मंदिरों का
मधुरिम-सुमधुर नाद है।
उस भूमि को स्पर्श कर
पग भरे कितने सहस्रों
लाँघे कई गिरि द्वार, सेतु
पुण्य तत्व स्पर्श हेतु।
हर धर्म का सम्मान हो
हर संस्कृति का मान हो
धीर, निर्भयी, सदाचारी बनें सब
हर वर्ग का आत्म-सम्मान हो।
विश्व का कल्याण हो
सुख-शांति का वरदान हो
दिव्य दृष्टि से जुडें सब
हर मानव का उत्थान हो।
राष्ट्र के सम्मान का, समृद्धि का,
स्वाभिमान का
यह अलख भाव जगा रहे
....जागृत रहे
आनन्दमय,
उल्लासमय हो
'राष्ट्र' को सादर समर्पित
यह ग्रन्थ 'मानसखण्ड' मेरा।
—हेमा उनियाल
मोक्षदा एकादशी, गीता जयंती
13 दिसम्बर, 2013 ई0
लेखकीय निवेदन
'हिमालय' कालिदास की कल्पना का रहस्यलोक रहा है और सन्त-महात्माओं की दिव्य, पावन-ध्यान व साधना स्थली के रूप में विख्यात एवं सर्वविदित। सम्पूर्ण विश्व सौन्दर्यमय है, सौन्दर्य का प्रतीक है।
किन्तु इस समय मध्य हिमालय 'उत्तराखण्ड' (कुमाऊँ) पर ही दृष्टि केन्द्रित करनी होगी, यह ग्रन्थ/पुस्तक का विषय है और मेरे साहित्यिक रचना धर्म का प्रमुख विषय भी।
धार्मिक व तीर्थ स्थलों की व्याख्या करते हुए सर्वप्रथम पवित्र स्थान उन्हें कहा गया है जहाँ लोग स्नान, ध्यान, पूजा-पाठ, परिक्रमा, मुण्डन, जात आदि कार्यों के लिये जाते हैं। तीर्थ का सबसे उपयुक्त अर्थ 'तारने वाला' या मोक्ष प्रदान करने वाला है।
हमारे धर्म ग्रन्थों में प्राय: तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख है— जंगम , मानस और स्थावर तीर्थ । 'जंगम तीर्थ' वह हैं जो स्थायी न हों अर्थात एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ-जा सकें। माता-पिता, गुरु, ब्राह्मण, गौमाता, साधु, शिक्षक आदि सभी 'जंगम तीर्थ' की श्रेणी में आते हैं। इसी प्रकार 'मानस तीर्थ' हमारे मन को कहा जाता है। मन में उत्पन्न सात्विक भाव ही मानस तीर्थ के अन्तर्गत हैं। यात्रायें व्यय साध्य, श्रमसाध्य और समयसाध्य भी होती हैं। इस स्थिति में अन्तरमन की यात्रा यानि 'मानसतीर्थ' अत्यन्त शुलभ है। शिक्षा, ज्ञान, धर्म, करुणा, सत्य, क्षमा, दया, दान, संतोष आदि सकारात्मक भाव जो मन के विकास में सहायक होते हैं, 'मानसतीर्थ' की ही सृष्टि करते हैं।
'स्थावर तीर्थ' वह कहे जाते हैं जो भौगोलिक दृष्टि से एक स्थान विशेष पर स्थिर हैं। विद्यालय, मठ, मंदिर, गुरुद्वारे, मस्जिद, चर्च, नदी के उद्गम और संगम स्थल, पवित्र पर्वत शृंग सभी 'स्थावर तीर्थ' की श्रेणी में ही आते हैं। चार मठ, चार धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग आदि 'स्थावर तीर्थ' हैं।
बाह्य यात्रा की अपेक्षा आंतरिक यात्रा अधिक महत्वपूर्ण और उपयोगी कही गयी है। बगैर आंतरिक यात्रा के तीर्थाटन, देशाटन महत्वशाली नहीं कहे जा सकते। मन की निर्मलता और नकारात्मक भावों की समाप्ति के बिना उद्देश्यपूर्ण तीर्थ यात्रा सफल नहीं कही जा सकती।
वास्तविक तीर्थ के सही अर्थों को आत्मसात करते हुए उत्तराखण्ड कुमाऊँ-गढ़वाल क्षेत्र के अनेकानेक दिव्य स्थलों, मठ-मंदिरों की यात्रायें पूर्ण हुईं। दो ग्रन्थ 'केदारखण्ड' (गढ़वाल मण्डल) और 'मानसखण्ड' (कुमाऊँ मण्डल) गहन शोधकार्य के उपरान्त समाज के सम्मुख आये। 'मानसखण्ड' के शोध कार्य हेतु डेढ़ सौ से अधिक प्रसिद्ध प्राचीन मंदिरों व स्थलों की यात्रा तीन वर्षों (2011-2013) के दौरान अलग-अलग यात्राकाल में पूर्ण की गयी। इस शोधपूर्ण कार्य को सम्पूर्णत: शोधकार्य की ही भाँति सम्पन्न किया गया है। उत्तराखण्ड कुमाऊँ मण्डल के ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, वास्तुशिल्पीय पक्षों से कहीं भी कोई अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं किया गया है। तथ्यों को पूर्ण वास्तविकता एवम् वैज्ञानिकता के साथ प्रस्तुत करने का इसमें महत्तम प्रयास किया गया है। सम्पूर्णता में धर्म के विविध अर्थों से जुड़े वास्तविक पहलुओं पर ही विद्वानों व अपने मत का उल्लेख इन पृष्ठों के अन्तर्गत वर्णित किया गया है। इस सम्पूर्ण कार्य के दौरान जो आध्यात्मिक लाभ एवं ऊर्जा प्राप्त हुई है वही लेखिका की वास्तविक संचित सम्पत्ति है।
स्वतन्त्र रूप से किये गये इस शोध एवम् शोध यात्राओं के दौरान प्रसिद्ध ऐतिहासिक, धार्मिक स्थलों का स्वयं खींचा गया वृहद चित्र (फोटो) संकलन (कुल 367 छायाचित्रों (श्याम-श्वेत) में से लेखिका द्वारा खींचे गये 316 छायाचित्र) इस पुस्तक में सहेजा गया। यात्राओं के प्रमुख सहयोगी श्री रघु उनियाल (पतिदेव) रहे।
इतिहासकार, पुराविद्, मंदिरों से जुड़े महन्त, पुजारी, व्यवस्थापक, स्थानीय जन, राहगीर सभी का शोध यात्राओं में सहयोग प्राप्त हुआ। वास्तव में यहाँ के लोगों की आत्मीयता, स्नेह, धर्म परायणता इसके 'देवभूमि' नाम को सार्थक करती है। इन यात्राओं के दिव्य अनुभव अविस्मरणीय रहे हैं। इन अनुभवों को विस्तार पूर्वक संजोने का कार्य भविष्य के लिए छोडऩा होगा।
नि:सन्देह इन यात्राओं ने जीवन को एक दर्शन दिया। कहा जाता है जिस प्रकार गढ़, नगर की रक्षा करता है उसी प्रकार मंदिर हमारे संस्कार एवं धर्म-परम्परा की रक्षा करते हैं। इसी प्रकार हिन्दू संस्कृति में गौ व गंगा माँ की महत्ता सर्वविदित है। संस्कृति-वैशिष्ट्य इस राष्ट्र में दोनों परम-आराध्यों का हर दृष्टि से संरक्षण-संवर्द्धन परम आवश्यक है।
गवां हि तीर्थे वसतीह गङ्गा, पुष्टिस्तथा तद्रजसि प्रवृद्धा।
लक्ष्मी: करीषे प्रणतौ च धर्म स्तासां प्रणामं सततं च कुर्यात्॥
(विष्णुधर्मोत्तर0 २/४२/५८)
राहुल सांकृत्यायन ने कहा है— घूमना मानव मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। जीवन की सम्पूर्णता हासिल करनी है तो घूमना ज़रूरी है। अज्ञेय अपनी एक रचना 'एक बूँद सहसा उछली' में लिखते हैं-घुमक्कड़ी एक प्रवृत्ति ही नहीं एक कला भी है। घूमने के लिए एक नज़र चाहिये जिसके स्पर्श से वह जगह एक प्राणवान प्रतिमा सी सामने आ खड़ी हो। आप उसकी बोली ही नहीं दिल की धड़कन तक सुन सकें। यह तभी संभव होता है, जब हम घूमने निकलते समय घर की सारी चीज़ें घर पर ही छोड़कर आएँ। इसी तरह मार्क ट्वेन ने कहा है—आप अपने सुरक्षित बंदरगाह से नौका बाहर ले जाएँ, हवाओं के साथ-साथ आगे बढ़ें, ख्वाब देखें और नई खोज तक पहुँचें। वरना आपका घर भी क्या बुरा है?
'ऐतरेय ब्राह्मण' में लिखा गया है—
''कलि: शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापर:
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति, कृत्त संपद्धते चरन॥
चरैवेति, चरैवेति।''
अर्थात जब मनुष्य सोया रहता है, वह कलियुग में होता है। जब वह बैठ जाता है, तब द्वापर में होता है। जब उठ खड़ा होता है तब त्रेतायुग में तथा जब चलने लगता है वह सतयुग को प्राप्त करता है। अत: चलते रहो, चलते रहो। यात्रा सतयुग के तुल्य है क्योंकि चलना ही जीवन है।
'ऐतरेय ब्राह्मण' का ही एक उद्बोधक मंत्र है—
''चरन्वे मधु विन्दति, चरन्स्वादुमुदम्वरम्: सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन। चरैवेति-चरैवेति! ''
अर्थात चलता हुआ मनुष्य ही अमृत प्राप्त करता है, चलता हुआ मनुष्य ही स्वादिष्ट फलों को चखता है...। इसलिए चलते रहो।
राहुल सांकृत्यायन ने एक स्थान पर लिखा है—
'क्या महिलायें भी घुमक्कड़ हो सकती हैं ’?
अवश्य हो सकती हैं। नि:सन्देह एक स्पष्ट लक्ष्य और दर्शन के साथ। यदि इस वाक्य के साथ अपने को संबद्ध कर पाऊँ तो कहा जा सकता है कि इस घुमक्कड़ी व इन धार्मिक यात्राओं हेतु मेरा लक्ष्य यह रहा है कि इन आस्था के केन्द्रों का सही तात्पर्य सम्मुख आये। एक नैतिक, चारित्रिक, आदर्शवान व्यक्ति के निर्माण में यह सहायक बनें। 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' इनकी परिपाटी, संरचना और आधारशिला निर्मित हो। यहाँ पहुँचा मनुष्य यहाँ से 'मनीषी' बनकर बाहर निकले और एक चरित्रवान, आदर्शपूर्ण समाज के सृजन में अपनी भूमिका निभाये। दर्शन यह रहा है कि मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च सभी एक वीराट शक्ति या ईश्वर तक पहुँचने के एक साधन हैं, साध्य नहीं। अर्थात अपने को और परिष्कृत उन्नत कर ईश्वर के समक्ष उपस्थित हो पाने के उत्तम स्थान।
अनेक यात्रायें करते, उस धरती के रज तत्वों को समझते कब जीवन के नैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राष्ट्रीय मूल्य सर्वोपरि हो गये और व्यक्तिगत जीवन और सुख गौण हो गये, यह उसी ईश्वर से धनिष्ठता और यात्राओं का तपोप्रताप है। ग्रन्थों के विशद अध्ययन, ईश्वर के प्रति परम आस्था व इन यात्राओं ने एक 'जीवन दर्शन' दिया। प्राचीन ग्रन्थों, उपनिषदों, पुराणों आदि में वर्णित उत्कृष्ट विचार व्यक्ति के जीवन को बदलने और सुसंस्कारित करने की क्षमता रखते हैं। एक आदर्शवान, सुसंस्कृत, नैतिक, उत्कृष्ट मानव का सृजन कर पाने की इसमें क्षमता और दक्षता दृष्टिगोचर होती है।
'लेखकीय निवेदन' में आगे वर्णित इन विचारों को यदि आत्मसात किया जाय, इनका चिंतन-मनन किया जाय तो सम्भव है धर्म को सही व व्यापक अर्थों में समझते हुए एक श्रेष्ठ समाज और राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। इनमें विद्वानों के उन विचारों को समाहित किया गया है, जो धर्म का, संस्कृति का, साहित्य का, मानवता का, राष्ट्रवाद का, विश्व बंधुत्व का मार्ग प्रशस्त करते हैं और उसके मूल तत्व हैं। एक प्रबुद्ध समाज के विचारशील लोगों से ही आये हुए यह विचार हैं और समाज को ही समर्पित हैं। इन विचारों को संग्रहित व व्यवस्थित कर समाज के सम्मुख रखने का मेरा प्रयास रहा है। शब्दश: यह विचार मेरे जीवन का हिस्सा हैं और इन विचारों से मेरी पूर्ण सहमति है।
धर्म का मूल रहे 'मानव धर्म' से जुड़े यह विचार मानव से 'मनीषी' बनने की प्रक्रिया में भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
धर्म की अवधारणा: धर्म का अर्थ कोई विशिष्ट परंपरा, सम्प्रदाय, विशिष्ट प्रणाली अथवा दर्शन शास्त्र से नहीं है। धर्म का अर्थ है जिसे धारण किया जा सके- 'धारयति इति धर्म:' । अर्थात जो जैसा है उसको खोजना, उसे पहचानना, जानना। जैसे अग्नि का धर्म है जलाना। हर एक वस्तु का एक धर्म है और उसी के द्वारा उसका अस्तित्व ज्ञात होता है। हर एक वस्तु का एक निर्दिष्ट धर्म है। इस कारण मनुष्य यदि कुछ करेगा तो समाज व्यवस्था, अर्थनैतिक व्यवस्था, साधना या जीवन में सब कुछ धर्म सम्मत रूप से करना होगा। क्योंकि धर्म ही विधाता-निर्दिष्ट व्यवस्था है। इसी को हम धर्म यात्रा कहते हैं। धर्म एक विश्वास नहीं, धर्म एक खोज है, धर्म एक सीढ़ी है जिस पर निरन्तर चढ़ते हुए व्यक्ति ऊँचा उठता जाता है। आस्था और विश्वास तो बदलते रहते हैं किन्तु सत्य अपरिवर्तनीय है। जो परिवर्तित हो जाये वह सत्य नहीं कहा जा सकता। जो सदैव एकरस, समरस रहे उसी को सत्य कहते हैं और इसी सत्य की खोज को ही धर्म कहते हैं। मंदिर, देवालय, गुरुद्वारे, मस्जिद आदि धर्म स्थान हैं और धर्म स्थान ऐसे केन्द्र होने चाहिये जहाँ मननशील व चितंनशील लोगों का जमघट हो और वहाँ बैठकर वे इन्हीं सूत्रों पर विचार-विमर्श कर सकें। धर्म चितंनशील लोगों के लिए है।
चलम् चित्तम चलम् वित्तम, चलत जीवन यौवनम्।
चला चले ही संसारे, धर्म एको हि निश्चल॥
संसार में सब कुछ चलायमान है, परन्तु धर्म स्थायी है, निश्चल है। समय के साथ इसके अर्थ भी नहीं बदलते। धर्म ही कर्तव्य है— धर्मो रक्षति, रक्षित: अर्थात धर्म उसकी रक्षा करता है, जो धर्म की रक्षा करता है। समाज में विभिन्न सम्बन्धों और दायित्वों को निभाता मनुष्य विभिन्न धर्मों (कर्त्तव्यों) का पालन करता है इसलिए अन्य जीवों से भिन्न है। सभी जीव आहार, निद्रा, भय और मैथुन के लिए प्रयासरत हैं। मनुष्य अपने धर्म को लेकर ही उनसे भिन्न है। संतान धर्म, पति-पत्नी धर्म, माता-पिता धर्म और पड़ोसी धर्म से लेकर मानव धर्म। जीवन की विभिन्न स्थितियों में विभिन्न भूमिकाएँ निभाता हमारा धर्म ही है। जब हम अपने धर्म के अनुकूल काम नहीं करते तो समाज में विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं।
स्व धर्मम् निधनम् श्रेयम् पर धर्मों भयावह । अपने धर्म में (कर्तव्य) मृत्यु भी श्रेयस्कर है और दूसरे के धर्म में भयावह।
कहा गया है— 'यतो धर्म ततो जय' अर्थात जहाँ धर्म है वहाँ विजय है।
स्वामी विवेकानन्द का कथन है—'सच्ची ईश्वर की उपासना यह है कि हम अपने मानव बन्धुओं की सेवा में अपने आप को लगा दें। जब पड़ोसी भूखा मरता हो, तब मन्दिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो, तब हवन में घृत जलाना अमानुषिक कार्य है। जो जाति रोटी को तरस रही हो, उसके हाथ में दर्शन और धर्म ग्रन्थ रखना उसका मजाक उड़ाना है'।
हमारे मनीषियों ने कहा है—
'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत्'
अर्थात यह सब जो कुछ पृथ्वी पर चराचर वस्तु है, ईश्वर से आच्छादित है।
मनुष्य जीवन सृष्टि की सर्वोपरि कलाकृति है। जब एक बार कोई मनुष्य योनि में आ जाता है तो मानवता उससे स्वयं जुड़ जाती है। इस मानवता का सर्वदा ध्यान रखना, उससे विलग न होना ही मानव जीवन की सार्थकता है। दरअसल मानव धर्म वह व्यवहार है, जो मानव जगत में परस्पर प्रेम, सहानुभूति, एक दूसरे का सम्मान करना आदि सिखा कर हमें उच्च आदर्शों की ओर ले जाता है।
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
अर्थात परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं है। संत ज्ञानेश्वर कहते थे—'आप ध्यान में कैसे सफल हो सकते हैं? ईश्वर ने आपको किसी की सेवा करने का अवसर दिया है।' ईश्वर को आप बेशक कुछ ही मिनट सच्चे हृदय से याद कीजिये, लेकिन अपना ज्यादा से ज्यादा समय दूसरों की सेवा के धर्म में लगाइए। चार वेद और अठारह पुराणों का सार भी यही है। ''परोपकाराय परपीडऩम्'' अर्थात परोपकार करो और दूसरे को कष्ट मत पहुँचाओ।
हमारे शास्त्रों में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं। व्यापक अर्थों में लिया गया यह धर्म शब्द कर्तव्यपालन, सफलता, श्रेय और मानव जीवन के उद्देश्य के रूप में स्वीकारा गया है।
शास्त्रों में उल्लेख है—
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रिय निग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यम्ऽक्रोध: दशकं धर्मलक्षणम् ॥
मनु महाराज ने मानव जीवन के अभ्युदय के लिए धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेयम् (चोरी न करना,) शौचम् (पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह: (इन्द्रियों को वश में करना), धी: (बुद्धि), विद्या, सत्य, अक्रोध: यह धर्म के 10 लक्षण कहे हैं। इसी प्रकार परोपकार और दया को धर्म का मूल कहा गया है। कहा जाता है कि दया की भाषा मनुष्य ही नहीं पशु भी समझते हैं। मार्क ट्वेन ने कहा था— 'दया वह भाषा है जिसे वधिर सुन सकते हैं और नेत्रहीन देख सकते हैं। '
दया के बारे में एक महत्वपूर्ण बात इस प्रकार कही गयी है— उन हाथों में भी महक बनी रहती है, जिनके द्वारा गुलाब पेश किये जाते हैं।
मनुष्य द्वारा सृजित सारी धन-सम्पत्ति, सोना-चाँदी, महल सभी यहीं रह जाते हैं। उसके साथ जाता है तो सिर्फ एक भलाई या बुराई का नाम। दूसरों के लिये जीने में जो सुख है वह अनन्त है अपार है।
'जीवेत एवं जीवयेत' अर्थात जिओ और जीने दो के सिद्धान्त का पालन करना और शांतिपूर्वक जीवन के आनन्द को भोगना धर्म पद्धति का भाग है। अनुशासन के अनुसार चलना धर्म है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म का सार जीवन में संयम का होना है। संसार के लगभग सभी धर्मों की मान्यता है कि 'विश्व एक नैतिक राज्य है और धर्म उस नैतिक राज्य का कानून है। '
एक स्वस्थ, चरित्रवान, सुसंस्कारित समाज के निर्माण के लिए हमारे धर्मगुरुओं ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पुरुषार्थ चतुष्टय की उपयोगी विधि दी है। इन चार पुरुषार्थों से इहलोक और परलोक को सुखमय बनाया जा सकता है। इनमें पहली सीढ़ी धर्म है, फिर अर्थ और काम तथा अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मनीषी कहते हैं— जिससे मनोरथ की सिद्धि हो, हमारी वृद्धि हो, उन्नति हो और हम संसार के बंधन से मुक्त हो जाएँ, वही धर्म है।
भगवान बुद्ध ने धर्म का मध्यम मार्ग ग्रहण करने का उपदेश दिया था। महान विचारक अरस्तू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'नीति शास्त्र ' में लिखा है कि 'संसार में श्रेष्ठतम् मार्ग मध्य मार्ग ही है '। उनका कहना है कि सदगुण और दुर्गुण में केवल 'अति' का अंतर है। अति जिस तरफ भी हो, वह दुर्गुण बन जाता है। चाहे वह अच्छाई की 'अति' हो अथवा बुराई की। कार्य और विचार दोनों का उचित समन्वय मध्यस्थिति ही श्रेष्ठ कही गयी है— 'अति सर्वत्र वर्जियेत। बीच का मार्ग ही समाज में मनुष्य की योग्यता, सामर्थ्य, सद्गुण का अस्तित्व है। सीमा या मर्यादा से बाहर हो जाना ही मनुष्य का दुर्भाग्य है। इस प्रकार समाज, कुल, परिस्थिति, काल इत्यादि को दृष्टि में रखकर मर्यादाओं का पालन ही सर्वोत्तम मार्ग है।
धर्म के बाद दूसरा जीवन की प्रगति का मूल आधार धन ही है। धर्म ही हमें सुझाता है कि अर्थोपार्जन करते हुए प्रकृति से, समाज से हमने जितना लिया है, उससे अधिक उसे लौटाने का प्रयास करना चाहिये।
'शतहस्त समाहार सहस्र हस्त किरं' अर्थात सैकड़ों हाथों से कमाओ और हजारों हाथों से बाँट दो। अर्जित धन की शुद्धि के लिए दान अत्यावश्यक है। धन का केवल संग्रह ही होता रहे तो संभव है, एक दिन उसी नाव की तरह मनुष्य को डूबो देगा, जिसमें पानी भर जाता है। स्वामी रामतीर्थ ने कहा था— 'दान देना ही आमदनी का एकमात्र द्वार है' ।
एक बार यक्ष ने धर्मराज युधिष्ठिर से प्रश्न किया था—'मृत्यु के समय सब यहीं छूट जाता है, सगे-सम्बन्धी, मित्र कोई साथ नहीं दे पाते, तब उसका मित्र कौन होता है, कौन साथ देता है'? युधिष्ठिर ने कहा—मृत्यु प्राप्त करने वाले का मित्र दान है, वही उसका साथ दे पाता है। यक्ष का अगला प्रश्न था— 'श्रेष्ठ दान क्या है'? जो श्रेष्ठ मित्र की भूमिका निभा सके। फिर प्रश्न था—'दानं परं किचं'? उत्तर था—'सुपात्र दत्तम' जो सुपात्र को दिया जाय और जो प्राप्त दान को श्रेष्ठ कार्य में लगा सके उसी सुपात्र को दिया गया दान श्रेष्ठ होता है। वही पुण्य फल देने में समर्थ होता है। कठोपनिषद् का कथन है— 'न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो '। अर्थात धन-सम्पत्ति से मनुष्य कभी तृप्त नहीं हुआ है। धन-सम्पत्ति साधन हैं, साध्य नहीं हैं। धन हमारे लिए है हम धन के लिए नहीं हैं। हम सब एक सीमा और आयु तक ही सांसारिक वस्तुओं का उपयोग व उपभोग कर सकते हैं। लोभ आज हमारी एक निर्बलता हो गया है जिसके वशीभूत होकर लोग अधिक से अधिक धन एकत्र कर लेते हैं। भौतिक सुख-साधनों को पाकर भी व्यक्ति अशांत, भयभीत और आनन्द से कोसों दूर है। लोग इसलिए दुखी हैं कि जिस स्थिति में वह हैं उससे अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए सदैव परेशान रहते हैं। ईषोपनिषद् कहता है— जीवन यापन के लिए धन अर्जित करें और निर्लिप्त (आसक्तिरहित) होकर उसका भोग करें।
धर्म और अर्थ (धन, सम्पत्ति) के बाद तृतीय 'काम' को भारतीय संस्कृति में धर्मपूर्वक, संयम व मर्यादा में रहते हुए बाँधकर रखा गया है। काम के भोगपक्ष को मर्यादा, प्राकृतिक तथा सामाजिक नियमों व बंधनों में भोगने की व्यवस्था दी गयी है, जो अत्यन्त उचित भी है।
चार प्रवृत्तियाँ जन्मजात हैं—आहार, निद्रा, भय, और मैथुन (काम)। हर किसी के शरीर में छोटा या बड़ा पेट है। सबको भूख लगती है। इसी प्रकार निद्रा भी है। सब सोते हैं, नींद से जागकर फिर तरोताज़ा हो जाते हैं। सभी जीवों में तीसरी प्रवृत्ति भय है। सभी में सुरक्षा का भाव होता है। चौथी प्राकृतिक आवश्यकता मैथुन है। सृजन के लिए दो प्राणियों (मादा और नर) का मिलना उसी प्रकार आवश्यक है जैसे द्विदल वाले अन्न (दलहन) के दोनों दल एक आवरण के भीतर छुपे रहकर ही अंकुरित होते हैं। चारों पुरुषार्थ में 'काम' की अवधारणा भी इसी ओर इंगित करती है।
महात्मा विदुर ने कहा था — ''बुढ़ापा सुन्दर रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राणों को, दूसरे के दोष देखने की प्रवृत्ति धर्माचरण को, क्रोध लक्ष्मी और शोभा को, काम का वेग लज्जा को अभिमान को हर लेता है, नष्ट कर देता है। ''
वर्तमान में असंयमित, अमर्यादित जीवन शैली ने समाज की स्थिति को विद्रुप किया है। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम ये तीनों मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं।
स्वामी रामतीर्थ ने कहा था—'धरती को हिलाने के लिए धरती से बाहर खड़े होने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है आत्मा की शक्ति को जानने-समझने की'। यही शक्ति आत्मबल है। जो लौकिक एवं अलौकिक सफलताओं का आधार है। बुद्ध, ईसा, सुकरात आदि महान पुरुषों ने इसी आत्मबल से अध्यात्म और चिंतन की दिशाएँ बदल दी। आत्मबल ही हमारी समस्त शारिरिक और मानसिक शक्तियों का आधार है। जो व्यक्ति अपने आत्मबल को जागृत कर लेता है वह देवतुल्य बन जाता है। अंग्रेजी के कवि लार्ड टेलीसन ने कहा था—आत्मबल, आत्मज्ञान और आत्मसंयम-केवल यही तीन जीवन को परम शक्ति सम्पन्न बना देते हैं।
मनोयोग और आत्मबल रहने से व्यक्ति कितनी ही देर, बिना थकान के अपने कामों में संलग्न रह सकता है। हमारी वास्तविक शक्ति हमारा मनोबल ही है। दुनिया के सारे काम शरीर के द्वारा किया जाते हैं परन्तु उनका संचालन और सहयोग देने वाला मन ही है। जो आत्मबल को शक्ति प्रदान करता है। इसी प्रकार ज्ञान से तात्पर्य सूचनाओं के आदान-प्रदान अथवा भौतिक जगत की वस्तुओं की जानकारी से नहीं है। आत्मज्ञान ही सही अर्थों में सच्चा ज्ञान है।
महात्मा गाँधी जी मानते थे कि अनिवार्य कर्तव्य तो संयम (आत्मसंयम), सहनशीलता है। प्रतिहिंसा ऐसी प्रक्रिया है जिसमें न जाने कितने नियमों के पालन का ध्यान रखना पड़ता है, जबकि संयम जीवन की सहज गति है। इस प्रकार सहनशीलता-संयम ही मानव जाति का विशेष धर्म है। वे कहते थे—संतोष तो प्रयत्न में है, सिद्धि में नहीं।
कहा जाता है—'जहाँ संयम नहीं, वहाँ नियम नहीं'। अर्थात जहाँ संयम की कमी है वहाँ नियमों की अवहेलना खुले आम होती है। पंचेन्द्रियों के असंयमी हो जाने के कारण ही व्यक्ति जीवन में कष्ट एवम् अत्यन्त पीड़ा का अनुभव करते हैं। आज व्यक्ति यह भूलता जा रहा है कि उसे आँखों से क्या और कितना देखना चाहिये? कानों से क्या और कितना सुनना चाहिये? भोग-विलासी प्रवृत्तियों ने सारी अस्मिताएँ लाँघ दी हैं। आज स्थिति इसलिए चिंतनीय है क्योंकि मनुष्य के जीवन से संयम समाप्त होता जा रहा है।
महाभारत के उद्योगपर्व में प्रश्न पूछा गया है कि जब सर्वशक्तिमान ईश्वर किसी की रक्षा करना चाहता है या उसे नष्ट करना चाहता है तो वह क्या करता है? उत्तर में कहा गया है कि ईश्वर जिनकी रक्षा करना चाहता है उसे उत्तम बुद्धियुक्त कर देता है। जब वह किसी को नष्ट करना चाहता है तो इसके लिए केवल उस मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है ताकि वह स्वयं ही कुमार्ग पर अग्रसर होकर अपना सर्वस्व मिटा दे।
यजुर्वेद का एक मन्त्र है — यां मेधा देवगण: पितरश्चोपासते
तया मामद्य मेधायाग्रे मेधाविनं कुरू।
अर्थात हे ईश्वर! हम मेधा बुद्धि को इसी जन्म में प्राप्त करें। ईश्वर हमारी बुद्धियों को दुर्गुणों और व्यसनों से हटाकर सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे।
बुद्धि के साथ विवेक का होना परमावश्यक है। ऊपरी तौर पर बुद्धि और विवेक में भिन्नता नज़र नहीं आती, जबकि दोनों में अन्तर है। यदि विवेक साथ छोड़ दे तो बुद्धि कुछ भी करा सकती है। इसी कारण सन्त-महात्मा बुद्धिमान बनो के साथ ही विवेकशील बनो का भी आशीष देते हैं। तीव्र इच्छाशक्ति और निरन्तर स्वाध्याय और प्रयास से बुद्धि और विवेक का विकास सम्भव होता है। एक छोटा सा कथानक है— धूप से बचने के लिए संयोगवश एक सन्यासी और एक चोर एक ही वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे। सन्यासी की गठरी देख चोर को भ्रम हो गया कि सन्यासी वेश में यह कोई अमीर है और गठरी में कीमती वस्तु है। मौका देख चोर गठरी लेकर भाग खड़ा हुआ। परन्तु यह क्या! चोर जिस दिशा में भागा सन्यासी उसके विपरित भागने लगा।
दूर खड़े एक व्यक्ति ने यह सब देखकर सन्यासी से पूछा-'यह आप क्या कर रहे हैं'? चोर उधर और आप इधर भाग रहे हैं। क्या चोर पकड़ में आएगा? सन्यासी हँस पड़े। बोले, उसे भागने दो। वह जितना दौड़ सकता है दौड़ ले परन्तु अंत में उसे भी श्मशान ही आना पड़ेगा। मैं वहीं उसका इन्तजार करूँगा।
यह कथा भले ही एक रूपक हो, लेकिन इसमें एक ऐसी सच्चाई छिपी है जिसे हर कोई जानता व महसूस करता है। व्यक्ति जीवन पर्यन्त भागता ही रहता है बिना इसकी परवाह किए कि सब कुछ छोड़कर एक दिन उसी मंजिल पर जाना है, जहाँ अन्त में सभी पहुँचते हैं। जब व्यक्ति अंतिम संस्कार में भाग लेने श्मशान भूमि में पहुँचता है। स्वामी विवेकानन्द इसे 'श्मशानी वैराग्य' की संज्ञा देते हैं। ये विचार स्थायी नहीं रहते क्योंकि हम विवेक से नहीं बुद्धि से सोचते हैं। यदि बुद्धि के साथ विवेक बना रहे तो मन जीवित रहता है। बुद्धि और विवेक का मेल ही जीवन को खुशियों और उमंगों से भरता है।
महाकवि भर्तृहरि अपने 'नीतिशतक' में सत्पुरुष के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं— सत्पुरुष लालच से दूर, क्षमाशील, अभिमान रहित, दुष्कर्मों से दूर, सत्यवादी और श्रेष्ठ व अनुकरणीय लोगों के मार्ग पर चलते हैं। विद्वानों की सेवा करते हैं और शत्रुओं को भी अनुकूल बना लेते हैं। ऐसे महात्मा अपने गुणों को सब ओर फैलाते हैं और कीर्ति के कार्य करते हैं। दु:खी जनों पर दया करते हैं। इस प्रकार सत्पुरुषों को पहचानने के यह लक्षण इस प्रकार हैं— तृष्णा का त्याग, क्षमाशीलता, निरभिमानिता, पापकर्मों में अरुचि, विद्वानों की सेवा, सम्माननीय जनों का मान करना, शत्रुओं को भी अनुकूल बनाना, अपने गुणों को छुपाना (स्वप्रशंसा से दूर), साधुजनों का अनुगमन, सत्यवादिता।
कठोपनिषद् के यमाचार्य नचिकेता को उपदेश देते हैं कि संसार में मानव के सामने दो मार्ग हैं— एक प्रेय और दूसरा श्रेय । ये दोनों मार्ग व्यक्ति को अपने-अपने ढंग से बाँधते हैं। एक मार्ग भौतिकता की ओर ले जाता है और दूसरा मार्ग आध्यामिकता की ओर। एक भोग का मार्ग है और दूसरा योग का मार्ग।
धैर्यवान और श्रेष्ठ मनुष्य श्रेय मार्ग अर्थात निवृत्ति मार्ग को चुनते हैं किन्तु भौतिकता के पीछे भागने वाले प्रेय मार्ग को चुनते हैं अर्थात प्रवृत्ति मार्ग को। श्रेय मार्ग पर चलने वाले मानव कल्याण कारी प्रवृत्तियों और धर्मों में रुचि रखते हुए दिव्य सत्ता में विश्वास रखते हैं। महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द आदि ने श्रेय मार्ग का अनुसरण किया। यह सत्य है भौतिकता का अपने स्थान पर महत्व है इसके बिना जीवन निर्वाह सम्भव नहीं है। भौतिकता का प्रयोग एक साधन के रूप में करना चाहिये, साध्य तो आध्यात्मिक सत्य ही है। समस्या यह है कि आज का मनुष्य इन्द्रियों के भोग से आगे कुछ नहीं सोचता या सोचना नहीं चाहता।
कहते हैं कि जीवन के सारे दुख इस संसार से जुड़े हैं जो अध्यात्म की राह पकड़ लेता है वह दु:खों से छूट जाता है।
स्वामी विवेकानन्द का कहना है कि 'उस प्रभु के साथ अपने दिल को जोडऩे के लिए प्रतिदिन ईमानदारी से प्रार्थना करो। बच्चे की तरह उनके सामने अपना दिल खोलकर रख दो'।
ईश्वर डर का नाम नहीं, प्रेमभाव का नाम है। उनके साथ या तो मित्रता होनी चाहिये या फिर उनके प्रति हमें शिशु सुलभ होना चाहिये। विश्वास से भरपूर और पूरी तरह सहज। वॉल्तेयर कहते हैं—'अगर ईश्वर नहीं भी है तब भी इसे खोजना जरूरी है क्योंकि किसे एक दोस्त की जरूरत नहीं होती'। जब हम ईश्वर के साथ मित्रता का सम्बन्ध जोड़ते हैं तो एक आंतरिक शक्ति और आनन्द से खुद को परिपूर्ण पाते हैं। उनके प्रेम से खुद को प्रेममय पाते हैं और एक बेहतर बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
संत ऑगस्टीन ने ईश्वर के सम्बन्ध में कहा—ईश्वर हममें से प्रत्येक को प्रेम करते हैं, और इस तरह से करते हैं जैसे पूरी दूनिया में हम ही एकमात्र हों। जहाँ प्रेम है वहाँ डर की जगह नहीं होनी चाहिये।
ईश्वर को पाने की एक कसौटी है, और वह है प्रेम। जिसके हृदय में प्रेम नहीं, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। प्रेम को ही परमेश्वर कहा गया है। प्रेम एक प्रकाश की भाँति है जिसका आश्रय लेकर मनुष्य इस संघर्षमय संसार में जीवन यात्रा को सफल कर सकता है। जीवन को समृद्ध बनाने, परम ध्येय की मंजिल तक ले जाने का एक ही रास्ता, एक ही नियम है, वह है—प्रेम, विशुद्ध शाश्वत प्रेम जो किसी स्वार्थ की भावना से जुड़ा न हो।
प्रेम-प्रेम सब कोई कहे / प्रेम न चीन्हे कोय
जेहि प्रेमहि साहिब मिले / प्रेम कहावे सोय (कबीरदास)
प्रेम आत्मा का सहज प्रकाश है जो प्रत्येक जीवन में स्थित है। घर-बाहर, मंदिर, मस्जिद समस्त जाति वर्ग में एक रस, एक समान व्याप्त होकर हमारी नस-नस में समा जाये और जीवन का अंग बन जाये वही प्रेम है। उसे प्राप्त करने के लिए धन-दौलत कुछ खर्च नहीं करना पड़ता।
व्यक्ति पूरी तरह ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। यह कृपा हवा, पानी, फल, भोजन आदि से प्राप्त होती है। अत: व्यक्ति न तो इन चीजों को बनाने वाला ही है और न ही इसका मालिक। ईश्वर के अनेक उपकार हम पर हैं। अच्छे कर्म ही हमें ईश्वर के समीप लाते हैं।
मनीषियों द्वारा योग साधना के दो मार्ग बताये गये हैं—एक है तपस्या का और दूसरा है समर्पण का। पहला बहुत कठिन है लेकिन दूसरा अत्यन्त ही सरल है। तप यानि साधना करना कोई मामूली बात नहीं है लेकिन समाज में रहकर बहुत ही सरल और पवित्र बने रहना उससे भी कठिन है। इसलिए शास्त्र में गृहस्थ जीवन को तपस्वी का जीवन कहा है। गृहस्थी में रहकर जो भगवत चिन्तन में पूरी पवित्र भावना से लग जाए, वह तो तपों में सबसे बड़ा तप और पवित्रता में सबसे बड़ी पवित्रता है। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए जो धर्म और योग के रास्ते पर आगे बढ़ता रहता है, शास्त्र में उसे 'मनस्वी' कहा गया है।
जब इंसान में आसक्ति पैदा नहीं होती तो उसे किसी को खोने में विशेष दु:ख और प्राप्त करने में विशेष प्रसन्नता भी नहीं होती। इसलिये हमारे ऋषि-मुनियों ने त्याग के साथ बेहतर जिन्दगी जीने का एक मार्ग बताया वह है अध्यात्म का मार्ग। पूजा-पाठ, जप-तप, योग-साधना और सत्संग करना अध्यात्म नहीं है। ये सारे अध्यात्म की ओर ले जाने वाले रास्ते और प्रकार हैं। हमारा अध्यात्म यानी विशेष ध्येय तो मोक्ष हासिल करना है और मानव को 'मनस्वी' बनाना है।
वेद में कहा गया है कि भौतिक व आध्यात्मिक दोनों का जब संतुलन होता है तो व्यक्ति में आसक्ति पैदा नहीं होती।
एक बार परमहंस अपने शिष्यों के साथ टहल रहे थे। उन्होंने देखा कि एक जगह मछुवारे जाल फेंक कर मछलियाँ पकड़ रहे हैं। एक मछुवारे के पास वे खड़े हो गये और अपने शिष्यों से बोले—'ध्यानपूर्वक इस जाल में फँसी मछलियों की गतिविधियों को देखो'।
शिष्यों ने देखा कि कुछ मछलियाँ ऐसी हैं जो जाल में निश्चल पड़ी हैं। वे निकलने की कोई कोशिश नहीं कर रही हैं जबकि कुछ मछलियाँ जाल से निकलने की कोशिश कर रही हैं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल रही और कुछ जाल से मुक्त होकर पुन: जल में क्रीड़ा कर रही हैं।
परमहंस ने शिष्यों से कहा—'जिस तरह से तीन प्रकार की मछलियाँ होती हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी तीन प्रकार के होते हैं। एक श्रेणी उन मनुष्यों की होती है, जिनकी आत्मा ने बंधन स्वीकार कर लिया है, और वे इस भव जाल से निकलने की बात ही नहीं सोचते। दूसरी श्रेणी ऐसे व्यक्तियों की है जो वीरों की तरह प्रयत्न तो करते हैं, पर मुक्ति से वंचित रहते हैं। तीसरी श्रेणी उन लोगों की है जो चरम प्रयत्न द्वारा अन्तत: मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।' इतने में एक शिष्य बोला—'गुरुदेव! एक श्रेणी और होती है, जिसके बारे में आपने नहीं बताया।' परमहंस बोले, 'हाँ' एक चौथी श्रेणी भी होती है। इस श्रेणी के मनुष्य उन मछलियों के समान हैं, जो जाल के निकट ही नहीं आतीं और इस तरह उनके फँसने का प्रश्न ही नहीं उठता।
स्वामी विवेकानंद एक कहानी अपने प्रवचनों में सुनाया करते थे—एक गडरिए को जंगल में शेर का नवजात बच्चा मिला, जिसकी आँख भी नहीं खुली थी। उसकी माँ शायद किसी शिकारी के हाथों मारी गई थी। गडरिया दया करके उस बच्चे को साथ ले आया और बकरियों का दूध पिलाकर उसे पालने लगा। बच्चा बड़ा हुआ वह स्वयं को बकरी ही समझने लगा। उनके साथ धक्के खाता हुआ वह झुण्ड में चलता। बाड़े के बाहर कुत्तों से डरता तथा गडरिए को अपना मालिक समझता तथा उसकी लाठी से भयभीत होता।
एक दिन जंगल के शेर ने उसकी यह हालत देखी तो उसे बहुत अचम्भा हुआ। जैसे-तैसे जंगल के शेर ने उसे एक दिन पकड़ा और कहा—तू कैसा शेर है जो बकरी बना हुआ है? उसने कहा—मैं कोई शेर-वेर नहीं हूं। मैं तो गरीब बकरी ही हूँ। तब शेर उसे एक कुएँ के पास ले गया और जल में उसकी परछाई दिखाकर बोला—देख यह मैं हूँ और यह तू है। हम दोनों एक जैसे हैं, अथवा नहीं? यदि मैं शेर हूँ तो तू भी शेर है। जरा गर्जना करके देख, अभी तुझे समझ आ जाएगा। और जैसे ही आत्मविस्मृत शेर ने दहाड़ लगाई उसे तो उसे सम्पूर्ण क्षेत्र को मालूम हो गया कि जंगल में एक नया शेर आ गया है। जो बकरियाँ अभी तक उसे धकिया देती थीं, वे उसके सामने से गायब हो गईं। जिन-जिन कुत्तों के भौंकने से वह काँपने लगता था, वे उसके सामने से भाग खड़े हुए। तात्पर्य यह है कि अपनी आन्तरिक शक्ति को पहचानो। किन्तु मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह अहम् का परित्यागी हो।
'ईश्वरोऽहं अहं भोगी, सिद्धोंऽहं बलवान सुखी '
अर्थात मैं ईश्वर सम्पन्न हूँ, मैं भोगों को भोगने वाला हूँ, मैं सर्वसमर्थ, सुखी शक्तिशाली हूँ। कभी व्यक्ति अहंकार ग्रस्त हो स्वयं को ही पुरुष श्रेष्ठ समझने लगता है। तत्पश्चात जीवन में 'मैं' की सत्ता ही बलवान होने लगती है। अपने 'अहम्' को स्थिर रखने के लिए व्यक्ति छलकपट और अत्याचार तक करने लगता है। मनीषी कहते हैं—'अहम' रावण है, हिरण्यकशिपु है, कंस है, जो अनेक प्रकार के अत्याचार और दुराचार करने से नहीं चूकता और अंत में स्वयं भी नष्ट हो जाता है।
अहम के परित्याग के साथ ही जीवन में व्यावहारिक ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान की उपयोगिता पर एक रोचक कथानक इस प्रकार मिलता है—चार ज्ञानी यात्रा कर रहे थे। उन्हें एक सुनसान स्थान पर ढेर सारी हड्डियाँ पड़ी मिलीं। एक ज्ञानी ने कहा—ये शेर की हड्डियाँ हैं, मैं इन्हें जोड़कर शेर का ढाँचा बना सकता हूँ। तीनों ने कहा—ठीक है। उसने मंत्र पढ़कर शेर का ढाँचा तैयार कर दिया। दूसरे ने कहा—'मैं इसमें मांस और मज्जा भर सकता हूँ।' उसने भी मंत्र फूँककर उसमें मांस, मज्जा और खाल भर दिए। अब तीसरा बोला—'मैं अपने मंत्र सिद्धि के द्वारा इसमें जान फूँक सकता हूं।' तीनों ज्ञानी घबरा गए। वे अपने सामने जीवित शेर की उपस्थिति महसूस करने लगे, उन्होंने कहा—नहीं! नहीं! ऐसा मत करो। 'हमें यहाँ से जाने दो।' वे तीनों वहाँ से भाग खड़े हुए। चौथे ज्ञानी को अपने ज्ञान की परीक्षा लेनी थी। उसने मंत्र फूँका और शेर में जान आ गई। वह दहाड़ा और देखते-देखते सामने खड़े ज्ञानी को खा गया। अब वहाँ उस ज्ञानी व्यक्ति की हड्डियाँ थीं जिसमें मांस, मज्जा भरने वाले ज्ञानी भाग गए थे। जान फूँकने वाले ज्ञानी का अवशेष पड़ा था। इस बोध कथा से जीवन में यह शिक्षा मिलती है कि ज्ञान को कब, कहाँ और कैसे प्रयोग करें, यह व्यावहारिक ज्ञान है। सिद्धांत जानना अलग बात होती है और उसे व्यवहार में उतारना अलग बात। समयानुसार ही ज्ञान के अनुरूप व्यवहार किया जाता है। जिस प्रकार आग जलाने की कला जानने वाले लोग जहाँ कहीं चाहे आग नहीं जला सकते। उन्हें उपयुक्त समय और स्थान का इंतजार रहता है।
महात्मा बुद्ध ने आध्यात्मिक प्रगति के आठ अनिवार्य तत्व एवं नियम बताए हैं—सम्यक दर्शन, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक कर्मान्त, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि।
सम्यक दर्शन: सामान्य संस्कृत में दर्शन का अभिप्राय देखना है। दार्शनिक, आध्यात्मिक क्षेत्र में दर्शन का अर्थ किसी वस्तु को ज्ञानी व साधक की दृष्टि से देखना ज्ञात कराते हैं। दर्शन का अर्थ है जीवन का निर्देशन शास्त्र। एक व्यक्ति की सारी उपलब्धि बेकार हो जाती है यदि उसे लक्ष्य की जानकारी न हो, अपने गन्तव्य का पता न हो। इसलिए प्रत्येक मनुष्य का उसका अपना जीवन दर्शन होना चाहिए। इसके बिना प्रगति असम्भव है।
सम्यक संकल्प: यहाँ सम्यक संकल्प का अर्थ है—दृढ़ विश्वास 'मैं इस कार्य को करूँगा', 'मुझे निश्चय ही इस कार्य को करना है।' इस तरह का दृढ़ आत्म विश्वास ही मानव जीवन में सफलता का रहस्य है।
सम्यक वाक्: एक व्यक्ति को अपनी वाणी पर नियंत्रण रखना चाहिए। व्यक्ति जब जीवन के किसी भी क्षेत्र में अपने को व्यक्त करता है तो उसे अपने ऊपर सम्यक नियंत्रण रखना चाहिए। इसी को सम्यक वाक् कहा गया है।
सम्यक आजीव: एक अच्छे व्यक्ति को बहुत साफ-सुथरी और पवित्र आजीविका अर्जित करनी चाहिए। इसे ही सम्यक आजीव कहा गया है।
सम्यक व्यायाम: लोग अनेक तरह के व्यायाम करते हैं किन्तु मानव अस्तित्व सिर्फ शारीरिक नहीं है। मानव अस्तित्व, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों है। तीनों व्यायाम अनिवार्य हैं।
सम्यक कर्मान्त: जब हम कोई कार्य शुरू करते हैं तो हमें बहुत कुशलता पूर्वक और सुंदर तरीके से उसका समापन भी करना चाहिए। किसी भी कार्य को अपूर्ण अवस्था में छोड़ देना सम्यक कर्मान्त नहीं है।
सम्यक स्मृति: जब भी हम इन्द्रियों द्वारा कुछ देखते व सुनते हैं अथवा गंध लेते हैं तो हमारा मन कुछ स्तरों में विभाजित हो जाता है। सम्यक स्मृति का तात्पर्य है अपने परमात्मा का सदैव स्मरण रखना, उसका ध्यान करना।
सम्यक समाधि: जब कोई संगीत हमारे मन का विषय बन जाता है और सुनते समय हमारा विषयी मन उस संगीत में खो जाता है। इसी प्रकार जब हम परम सत्ता का ध्यान करते हैं तब मन उनमें ही खो जाता है। इसी को सम्यक समाधि कहा गया है। इस प्रकार यह अष्टांगिक मार्ग एक आध्यात्मिक साधक के जीवन का आवश्यक अंग कहा गया है।
विज्ञान और अध्यात्म को कुछ लोग परस्पर अलग समझते हैं, जबकि दोनों का लक्ष्य एक ही है—सत्य की खोज। इस खोज के तरीके अलग-अलग हैं लेकिन दोनों का लक्ष्य एक है। विज्ञान के प्रति एक आम धारणा यह है कि वह नास्तिक बनाता है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण के कारणों को उद्घाटित करने वाले 'आर्यभट्' तो महान खगोलशास्त्री होकर भी आस्तिक थे। दरअसल अध्यात्म जब पाखण्ड का रूप धारण कर लेता है तो वह अवैज्ञानिक बन जाता है।
विश्व के अनेक महान वैज्ञानिक अपने व्यक्तिगत जीवन में अध्यात्म को बड़े व्यापक अर्थों में स्वीकार करते रहे हैं और उनका चिंतन भी विज्ञान की तरह अन्वेषक रहा है। अल्बर्ट आइन्स्टीन एक महान वैज्ञानिक ही नहीं, महान दार्शनिक भी थे। वे कहते थे—'मैं मानता हूँ कि ईश्वरावस्था की अनुभूति ही मनुष्य की श्रेष्ठतम् अनुभूति है। इस अनुभूति में ही शिल्प, कला और विज्ञान का बीज निहित है। जो इस रहस्यानुभूति द्वारा अभिभूत नहीं होते, वे मृतप्राय हैं। रहस्य धर्म का मूल है।'
हम देखेंगे तो पाएंगे कि हमारे बीच प्रसिद्ध व्यक्तियों की छवि अक्सर सच्चाई से अलग होती है। वे खुद भी उन्हीं छवियों को जीने लगते हैं, जो गढ़ी गई होती हैं। अल्बर्ट आइन्स्टीन जिन्हें लोग सुपर मानव कहते थे उन्होंने एक बार कहा था—'मेरी उपलब्धियाँ और क्षमताएँ जो समझी गई हैं और वास्तव में जो मैं हूँ, दोनों के बीच एक अनोखा विरोधाभास है।' सामाजिक मनोविज्ञानी फिल ब्लोंटेस कहते हैं कि टिकाऊ प्रसिद्धि सही मायने में वही है जो दिलों पर राज करवाए, न कि चर्चाओं में। इसलिए जीवन का एक लक्ष्य और दर्शन होना चाहिए।
संसार गहन भ्रमजाल में जकड़ा हुआ है। ज्ञान के प्रकाश से ही इस भ्रमजाल को मिटाया जा सकता है। लेकिन अज्ञानता के कारण हम बहुत सारे भ्रमजाल पाल लेते हैं और आंतरिक दीपक के अभाव में उसे दूर नहीं कर पाते। महात्मा बुद्ध ने भी कहा—'अपना दीपक स्वयं बनो।'
एक बार एक राजा, महर्षि कणाद के पास उनकी गरीबी को देखकर उन्हें कुछ धन देने के लिए पहुँचे तो महर्षि ने लेने से मना करते हुए कहा—मेरे पास तो सब कुछ है। राजा विस्मय हुआ कि जिसके तन पर एक लंगोट है और खाने के लिए अन्न के टूटे कण हैं, वह कह रहा है कि उसके पास सबकुछ है। राजा ने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली-'आपने भूल की ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं लेने (ज्ञान) के लिए जाना चाहिए।' राजा अगले दिन महर्षि के पास पुन: गए। महर्षि बोले—'मैं कुछ भी नहीं माँगता कुछ भी नहीं चाहता, इसलिए अनायास सम्राट हो गया हूँ। एक सम्पदा बाहर है एक भीतर है। जो बाहर है वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं वे उसे सम्पदा नहीं विपदा मानते हैं।' धन या सम्पदा का प्रयोग इतना आवश्यक है कि 'मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाए।'
अक्सर जीवन के करोड़ों पल हम बेकार के कामों या आलस्य में व्यतीत कर देते हैं। बचपन से लेकर युवावस्था तक हम खुद को संसार में रहने के काबिल बनाने में लगा देते हैं। घर-गृहस्थी बसाने के बाद मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और धन-वैभव के लिए खुद को समर्पित कर देते हैं। जब शरीर पूरी तरह थक जाता है और मन भी ठिकाने नहीं रहता, तब सोचना शुरु करते हैं कि अब अगला जन्म सुधारा जाए।
महर्षि दयानन्द ने हर इंसान को रोज कम से कम एक घंटे परमात्मा और आत्म चिंतन करने के लिए कहा था। वह इसलिए कि इससे हम खामियों और काल दोनों के जबड़ों में फँसने से बच सकते हैं। इससे बड़ा फायदा यह होता है कि हम उस परमात्मा के लिए खुद को काबिल बनाने की तैयारी करने लगते हैं। इससे धीरे-धीरे ही एक स्वस्थ, चिंतनशील समाज का निर्माण होता है।
सीखना न आता हो, शिष्य होने की कला न आती हो, सीखने लायक मन मुक्त न हो, पक्षपात से घिरा हो, सिद्धांतों से दबा हो तो फिर कितना ही अच्छा साहित्य और संत मिल जाए, व्यक्ति उससे बचकर निकल जाएगा।
एक प्रसिद्ध विद्वान थे रामानुजाचार्य । उनका जन्म चेन्नै नगर के समीप पेरम्बुदूर में हुआ था। रामानुज के गुरु ने उन्हें बड़े मनोयोग से शिक्षा दी। शिक्षा समाप्त होने पर वह बोले— 'पुत्र, मैं तुम्हें एक मंत्र की दीक्षा दे रहा हूँ। इस मंत्र के सुनने से भी स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।' रामानुज ने श्रद्धाभाव से मंत्र की दीक्षा ली। वह मंत्र था— ' ॐ नमो नारायणाय' । आश्रम छोडऩे से पहले गुरु ने एक बार फिर चेतावनी दी-'रामानुज, ध्यान रहे यह मंत्र किसी अयोग्य व्यक्ति के कानों में न पड़े।' रामानुज ने मन ही मन सोचा इस मंत्र की शक्ति कितनी अपार है यदि इसके केवल सुनने भर से ही स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है तो क्यों न मैं सभी को यह मंत्र सिखा दूँ।
रामानुज के हृदय में मनुष्य मात्र के कल्याण की भावना छिपी थी। इसके लिए उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा भी भंग कर दी। उन्होंने सम्पूर्ण प्रदेश में उक्त मंत्र का जाप आरम्भ करवा दिया। सभी व्यक्ति वह मंत्र जपने लगे। गुरु को पता चला तो उन्हें बहुत क्रोध आया। रामानुज ने उन्हें शांत करते हुए उत्तर दिया—'गुरुजी इस मंत्र के जाप से सभी स्वर्ग चले जाएंगे। केवल मैं ही नहीं जा पाऊँगा क्योंकि मैंने आपकी आज्ञा का पालन नहीं किया है। सिर्फ मैं ही नरक में जाऊँगा। यदि मेरे नरक जाने से सभी को स्वर्ग मिलता है तो इसमें नुकसान ही क्या है?' गुरु ने रामानुज (शिष्य) का उत्तर सुन उसे गले से लगा लिया।
पुण्य की महत्ता मूल्य के आधार पर नहीं, कर्म की उपयोगिता के आधार पर होती है। उदाहरणार्थ-एक सम्पन्न व्यक्ति नित्यप्रति मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाता था। दूसरी ओर एक निर्धन व्यक्ति नित्य तेल का दीपक जलाकर एक अंधेरी गली में रख देता था, जिससे लोगों को आने-जाने में असुविधा न हो। संयोग से दोनों की मृत्यु एक दिन हुई। यमराज द्वारा धनी व्यक्ति को निम्न श्रेणी और निर्धन व्यक्ति को उच्च श्रेणी की सुख-सुविधाएँ दी गईं। सम्पन्न व्यक्ति ने क्रोधित होकर कहा कि यह भेदभाव क्यों? तब यमराज ने कहा—ईश्वर की आराधना में धन प्रदर्शन का कोई स्थान नहीं है। बल्कि दूसरों के हित के लिए कार्य करना अधिक पुण्यदायी होता है। ईश्वर ऐसे व्यक्ति के अधिक करीब होता है। क्योंकि 'स्व' से 'पर' सदा वंदनीय होता है।
वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीर पराई जाणे रे।
पर दु:खे उपकार करे तोहे, मन अभिमान न आणे रे॥
इन पंक्तियों/ गीत के रचयिता संत नरसी मेहता (गायक, भक्त) अपने समय के परम भागवत गृहस्थ संत थे। उन्हें गुजरात का जयदेव कहा गया। संत नरसी ने कहा—सच्चा वैष्णव वही है जिसमें ये गुण विद्यमान हों-पर दु:ख कातर, परहित-रत, निरभिमानी, विनम्र, अनिंदक, समदृष्टा, सत्यवादी, कामक्रोध माया रहित, दृढ़, वैराग्यवान और अहर्निश (रात-दिन) राम नाम में तल्लीन रहने वाला। यह भजन आज भी कितना प्रासंगिक है।
'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' के अनुरूप अनेक संत-महात्माओं के विचार, कथानक मेरे संग्रह में उपलब्ध हैं। इसी प्रकार महर्षि रमण के विषय में कहा जाता है कि आखिरी समय में उनके शरीर ने साथ देना बंद कर दिया था, उन्हें गले का कैंसर था। उनकी देखरेख कर रहे लोगों की आँखों में हताशा-निराशा देखकर उन्होंने कहा था—'अरे भाई, यह शरीर तो केले का छिलका है। क्या केला खाने के बाद उसे कोई बचा सकता है।' एक दिन उन्होंने अपने सहायक से कहा—'जानते हो मोक्ष क्या है?' फिर बोले—'जो दुख है ही नहीं, उनसे छुटकारा पाना और शाश्वत आनंद को पा लेना ही मोक्ष है।' उन्हें बर्बादी पसंद नहीं थी चाहे वह अन्न की हो या शब्दों की।
हमारा विवेक हमसे कहता है कि 'ते ते पाँव पसारिए, जेती लम्बी सौर' अर्थात हमें उतने ही पाँव फैलाने चाहिए जितनी हमारी सामर्थ्य है। आय की चिंता छोड़ हम अपनी आवश्यकताओं को घटा सकते हैं। आवश्यकताएँ तो हमारे गुण-स्वभाव और परिस्थितियों के अनुसार घटती-बढ़ती रही हैं। जितनी अधिक आवश्यकताएँ, उनकी पूर्ति के लिए उतना ही श्रम, भागदौड़ और संघर्ष। पूर्ति न होने पर उसी अनुपात में मानसिक कष्ट और वेदना। मुख्यत: आवश्यकताएँ तीन प्रकार की हैं—(1) जीवन यापन के लिए (2) सुख विषयक (3) विलास के लिए। प्रथम वर्ग की आवश्यकताएँ पूर्ण कर अधिक से अधिक संतोष हो सकता है, वह ज़रूरी भी है। सुख विषयक व विलास विषयक आवश्यकताओं की अंतिम सीमा कोई नहीं।
कम आवश्यकता वाला व्यक्ति अपनी शक्ति क्षुद्र कार्यों से बचाकर उच्चतर कार्यों में व्यक्त कर आत्मिक उन्नति करता है। भारतीय संस्कृति में आत्मनियंत्रण व प्रलोभनों से बचने के लिए दान और त्याग का विधान है।
एक 'बोध कथा' इस प्रकार है—एक बार एक फकीर ने कहा—'मेरे पास थोड़ा सा पैसा है जिसे मैं सबसे गरीब व्यक्ति को देना चाहता हूँ।' अगले दिन गाँव के समस्त गरीब एकत्रित हो गए। फकीर ने सबको देखा और कहा—अभी असली गरीब नहीं आया।
दूसरे दिन दोपहर को बादशाह, फकीर की कुटिया के निकट से गुजर रहा था। फकीर ने तुरंत बाहर निकलकर पैसों की वह थैली बादशाह के रथ में फैंक दी। थैली देखते ही राजा हैरान हो गया और कहने लगा-'पागल हो गए हो क्या? मेरे पास बेपनाह दौलत है। तुम दुनिया के सबसे बड़े अमीर के सामने ये थैली फेंक रहे हो।'
हँसते हुए फकीर ने कहा—'बादशाह! जिनके पास पैसा कम है, उनकी जरूरतें भी कम हैं। जरूरतें ही नहीं हैं तो फिर गरीबी कैसी? अब तुम्हारी जरूरतें भी बहुत ज्यादा हैं, इसलिए तुम्हारी गरीबी भी बड़ी है। दरअसल गरीब वह नहीं है जिसके पास पैसा नहीं है। गरीब वह है जिसकी जरूरतें ही खत्म नहीं होतीं।'
एक बार उज्जयिनी के राजा भोज वन में घूम रहे थे। उन्हें एक लकड़हारा मिला जिसे रोककर उन्होंने पूछा-'तुम कौन हो?' लकड़हारे ने कहा—'मैं अपने मन का राजा हूँ।' भोज ने फिर पूछा-'अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी?' लकड़हारे ने कहा—'हाँ, है न। मैं छह मुद्राएँ रोज कमाता हूँ और खुश रहता हूँ।' पर इन छह मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो? राजा भोज ने पूछा। लकड़हारे ने उत्तर दिया—'मैं हर रोज एक मुद्रा अपने ऋणदाता अर्थात माता-पिता को देता हूँ। दूसरी मुद्रा मैं अपने पुत्र-पुत्री को देता हूँ ताकि मेरे बूढ़े होने पर वह मुझे लौटाएं। तीसरी मुद्रा अपनी सुख-दुख की साथी अपनी पत्नी को देता हूँ। चौथी मुद्रा मैं अपने खजाने में देता हूँ। पाँचवी मुद्रा भोजन पर खर्च करता हूँ और परिश्रम से रोटी खाता हूँ। छठी मुद्रा अतिथि-सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूँ।'
राजा भोज आश्चर्य से उस सुखी और प्रसन्न परिश्रमी व्यक्ति को देखने लगे जो छह मुद्राएं भी कितनी बुद्धिमत्ता से खर्च करके सुखी था।
पतंजलि अपने 'योग सूत्र' में नैतिक बल को प्राप्त करने के उपायों में पाँच यम और पाँच नियम बताते हैं। पाँच नियमों में एक नियम है—'संतोष'-संतोषं परमं सुखम्। संतोष का शाब्दिक अर्थ तुष्टि है, मन का तृप्त हो जाना। अर्थात जो भी परिस्थितियाँ हैं उसमें प्रसन्न रहें। श्रीमद्भगवद्गीता के 12वें अध्याय में श्री कृष्ण कहते हैं—सन्तुष्ट: सततं....... (12/13) अर्थात जो योगी निरंतर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है ....... मुझको प्रिय है।
जब मन में यह भाव आता है कि दूसरों की तुलना में साधनों, वैभव और संपदा की कमी है। यश नहीं मिल रहा, पद-प्रतिष्ठा नहीं है तो मन दुखी होता है। जब दूसरों से तुलना करते हैं तभी अभाव दिखाई देता है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई प्राणी अभाव का रोना नहीं रोता, क्योंकि उसके पास तुलना करने वाली सोच नहीं है। आत्म चिंतन से ही विकास की सम्भावनायें बढ़ती हैं और व्यक्ति कमी में भी संतुष्ट रहने लगता है।
उपनिषद कहते हैं—चरैवेति, चरैवेति अर्थात चलते रहो। चलते रहने का नाम जीवन है। हर स्थिति और परिस्थिति में आगे ही आगे बढऩे-चलने का नाम जीवन है। जीवन में निराश और हताश होकर लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। जो समय निकल गया उसकी चिंता छोड़कर जो जीवन शेष है, उसे उत्कृष्ट बनाने का विचार और प्रयास करना चाहिए।
बीती ताहि बिसारिये, सुध आगे की लेय। हम सबका अधिकार केवल कर्म करने पर है। कर्म ही भाग्य को बदल सकता है।
कई बार साधन, शक्ति, आवश्यकता होने पर भी व्यक्ति का मन नहीं चाहता कि वह कोई कर्म करे। अर्थात शरीर की क्षमता होने पर भी अगर मानसिक सहयोग न हो, मन में निश्चय न हो तो काम नहीं किया जा सकता। कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि शरीर सुस्त और बीमार है परंतु मन चाहता है तो काम आसानी से हो जाता है। मनोयोग रहने से व्यक्ति कितनी ही देर, बिना थकान के काम में संलग्न रह सकता है। हमारी वास्तविक शक्ति हमारा मनोबल ही है। दुनिया के सारे काम शरीर के द्वारा किए जाते हैं परंतु उनका संचालन और सहयोग देने वाला मन ही है—'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।' आत्मबल एवं मनोबल ही है जो लौकिक एवं अलौकिक सफलताओं का आधार है। 'यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे तबे एकला चलो रे।' यह गीत देशभक्ति की राह पर चलने वालों के लिए 'रवीन्द्र नाथ ठाकुर' ने लिखा था। आज के संदर्भों में भी यह गीत कितना प्रासंगिक है। मुसीबतों को झेलकर, अपने लिए रास्ता निकालने वाला मनुष्य कभी टूटता नहीं, अकेले पन को आनंदमयी एकांत में बदल लेने वाला जी जाता है। यदि कोई सुख बाँटने वाला न हो, दुख में गले लगाकर रोने वाला न मिले तो निश्चय है कि संसार बनाने वाले ने किसी महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए ऐसा जीवन दिया है। यही सोच एकांकी जीवन में रंग भरती है। अकेले चलने वाला तेजी से चलता है। यह भी सच है कि समूह का बल अद्वितीय होता है।
सुंदर तस्वीरें अंधेरे कमरे में नेगेटिव से बनायी जाती हैं। इसलिए व्यक्ति यदि जीवन में निराश है। उसे लगता है कि जीवन में अंधेरा छा गया है तो वह आश्वस्त रहे कि ईश्वर उसके भविष्य की सुंदर तस्वीर बना रहा है।
दुख के अंधेरे व्यक्ति को रोशनी खोजने पर मजबूर करते हैं, संघर्ष की ताकत देते हैं। समस्याएं जीवन में नए अवसरों के रास्ते खोलती है। जीवन को गहराई से समझ पाने की दृष्टि देती हैं। व्यक्ति को जरूरत है समस्याओं के भीतर छिपे संदेश को पहचानने की।
अलबर्ट आइन्स्टीन का कहना है—'उलझनों में सरलता खोजो। मतभेदों में समरसता ढूँढो। सच तो यह है कि मुश्किलों के बीचों-बीच अवसर छुपे रहते हैं।' रात के अंधकार में ही सितारे चमकते हुए देखे जाते हैं। भूखा रह चुका व्यक्ति ही किसी की भूख को महसूस कर सकता है। अज्ञेय ने कहा है—'दुख सबको माँजता है।' कहते हैं ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी मदद आप करते हैं। आशावाद एक ऐसा विचार है जिससे व्यक्ति प्रसन्नचित रहता है।
यजुर्वेद कहता है—'हम आशावादी बनें, हमारी आशाएं सफल हों।' महाकवि गेटे ने कहा—'प्रत्येक वस्तु के संबंध में निराश होने की अपेक्षा आशावान होना बेहतर है। हर शाम सूर्य यह आशा देकर जाता है कि कल सुबह मैं फिर आऊँगा और हर सुबह सूर्य यह संदेश देता है कि शाम को मैं चला जाऊँगा। निश्चय ही आशा प्राणियों के लिए अमृत है। जैसे सूर्य से वनस्पतियों को जीवन प्राप्त होता है, वैसे ही आशा से मनुष्य में जीवन शक्ति का संचार होता है'। इसीलिए सदैव आशावादी बनना चाहिए।
'न दैन्यं न पलायनम्ï' अर्थात न ही दीन-हीन बनो और न ही संकट में भागो। हर व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब उसे आगे बढऩे की राह नहीं सूझती। हर पल संकटों, बाधाओं और चुनौतियों से समझौता कर लेने का ही मन करता है। पर ऐसे व्यक्ति पुरुषार्थी नहीं कहलाते। कहा गया है—पुरुषार्थी वह है जो अपनी भाग्य रेखा बदल दे। अत: भाग्य रेखा बदलने की शक्ति रखने वाला व्यक्ति दीन-हीन नहीं हो सकता।
दीनता और पलायन में अटूट संबंध है। कहा जाता है पलायन की पहली सीढ़ी दीनता है और दीनता का आधार आत्मनिंदा है। जो व्यक्ति अपने को शरीर, मन और बुद्धि से कमज़ोर समझता है वह आत्मनिंदा करने लगता है। जैसे-मैं कुछ नहीं हूँ..... मेरा जीवन बेकार है आदि। आत्मनिंदा से वह दीन-हीन हो जाता है और दीन-हीन व्यक्ति ही परिस्थितियों से पलायन कर जाता है, यहाँ तक कि जीवन से भी। स्वाभिमानी जीवन जीने के लिए अधिक धन की जरूरत नहीं होती। दरअसल, धन तो उतना ही चाहिए जो दीन न बनाए, पलायन न करवाए। कभी-कभी धन कमाने की अतिशय लालसा भी दीन बना देती है। इसलिए कहा गया है—संतोषं परमं सुखम्।
सपने देखना, कल्पनाएं करना मनुष्य के अधिकार में है, तभी जीवन आगे बढ़ता है। सपने हैं तो उन्हें पूरा करने का प्रयत्न भी होता है। यह जरूरी नहीं कि सभी सपने सच हो जाएँ, सभी इच्छाएँ पूर्ण हो जाएँ। यदि कुछ इच्छाएँ पूर्ण न भी हों तो भी विचलित नहीं होना चाहिए।
प्राच्वो अगाम नृतये हसाय (अथर्ववेद) यह जीवन हँसते-खेलते हुए जीने के लिए है। चिंता, भय, शोक, क्रोध, निराशा, ईष्र्या, तृष्णा में बिलखते रहना मूर्खता है। प्रसन्नता जीवन का अमोघ मंत्र है। प्रत्येक मानव प्रसन्न रहना चाहता है।
मनीषी कहते हैं—जो व्यक्ति अतीत (भूतकाल) की स्मृति नहीं करता, भविष्य की कल्पनाओं में नहीं उलझता, वर्तमान में कर्म प्रधान होकर जीना चाहता है, न राग न द्वेष, लाभ-हानि की स्थिति से मुक्त, ऐसा व्यक्ति प्रसन्नचित्त रहता है।
तुलसीदास कहते हैं—'सुमति-कुमति सब के उर बसई।' अर्थात सुमति-कुमति (अच्छाई-बुराई) सबमें होती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई सुधर ही न सके। हर हाल में सुधरने की गुंजाइश होती है।
इसी प्रकार गलती स्वाभाविक है। वह सबसे होती है। लेकिन अधिकांश मामलों में कोई अपनी गलती नहीं मानता। भूल को स्वीकारने में कुछ भी हानि नहीं है। इससे मन निर्मल हो जाता है। अच्छे गुण एवं संस्कार हमारे जीवन की प्रमुख आवश्यकतायें हैं। इससे हमारे सुखों में वृद्धि होती है, समाज में व्यवस्था रहती है और सर्वत्र सुखद वातावरण का निर्माण होता है।
इसी प्रकार जीवन में क्षमा का भी महत्व है। भगवान महावीर इसलिए बाहुबली कहलाए क्योंकि उन्होंने क्षमा को जीवन का अनिवार्य तत्व स्वीकार कर अपनाया। उनके बतलाए हुए मार्ग को धर्म कहा गया, क्योंकि इसमें क्षमा की प्रधानता थी। सम्राट अशोक इसलिए महान नहीं कहलाए कि उन्होंने कलिंग युद्ध में विजय प्राप्त की, अपितु ऐसे धर्म की शरण में चले गए जिसमें क्षमा की प्रधानता थी। ईसा मसीह ने उन लोगों को भी क्षमा कर दिया जिन्होंने ईसा को सूली पर टाँग दिया और ईसा मसीह प्रभु बन गए। शत्रु और मित्र शब्दों का अस्तित्व वास्तव में 'क्षमा' के अभाव में ही है।
यदि कोई व्यक्ति क्षमा माँगता है तो क्षमा न करना अपराध जैसी स्थिति हो जाती है। क्षमा माँगने पर माँगने वाला अपनी गलती को स्वीकार कर अपराध बोध से मुक्त हो जाता है। लेकिन क्षमा न करने वाला उसकी पीड़ा से सुलगता रहता है। अत: किसी के क्षमा माँगने पर क्षमा कर देना उसके स्वयं के लिए एक उपयोगी क्षण है। क्षमा करना दूसरों को सुधरने का अवसर प्रदान करता है। साथ ही क्षमा शब्द उन लोगों पर लागू नहीं होता जो अपनी पूर्ण बुद्धिमत्ता से जघन्य कृत्यों को करते हैं, उन्हें संरक्षण देते हैं, छुपाने का प्रयास करते हैं और फिर क्षमा की भी अपेक्षा रखते हैं। ऐसे लोगों का अपराध क्षमा योग्य नहीं होता।
कहा जाता है कि जो लोग न क्षमा माँगना जानते हैं और न ही क्षमा करना, वे अपने लिए इस धरती पर ही नरक की सृष्टि रच लेते हैं। स्मरणीय रहे—प्रेम और क्षमा द्वारा किसी पर भी विजय पाई जा सकती है।
वैदिक विचारधारा में मानव आयु की सीमा सौ वर्ष कही गई है। 'जीवेम शरद: शतम्।' या 'भूयश्च शरद: शतात।' जीवन में बार-बार सौ वर्ष आएँ। सौ वर्ष के जीवन को कई अवस्थाओं-शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था में देखा गया है। मनीषियों ने हर व्यवस्था (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संयास) में मनुष्य के करने योग्य और न करने योग्य कार्यों का विचार करते हुए उनके लक्षणों को भी रेखांकित किया है।
सौ वर्ष की मानक आयु वाले मनुष्य जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया है। यह अवस्था भावी जीवन तैयारी की अवस्था मानी गई है। इसे विद्यार्थी जीवन कहा जाता है। विद्यार्थी जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप उसके पाँच लक्षण बताए गए हैं—अल्पहारी, गृहत्यागी, स्वाननिद्रा, कागचेष्टा, बकोध्यानम्। विद्यार्थी को कम खाना और उसे घर से बाहर रहकर पढऩा चाहिए(घर से बाहर रहने के कारण विद्या अध्ययन में घरेलू समस्याएं आड़े नहीं आती। विद्यार्थी माता-पिता द्वारा अधिक लाड़-प्यार से दूर रहकर पढ़ाई पर ध्यान देता है)। उसकी निद्रा कुत्ते (श्वान) की तरह होनी चाहिए। बगुले की भाँति उसे हर पल ध्यानमग्न रहना चाहिए। किसी भी नई बात और शिक्षा को ग्रहण करने के लिए उसकी चेष्टा कौए (काग) की तरह होनी चाहिए। यह पंच लक्षण जिन विद्यार्थियों में होते हैं वे सदैव सफलता को प्राप्त करते हैं।
लाडय़ेत पंच वर्षाणि, दस वर्षाणि ताडय़ेत।
प्राप्ते च षोड़षे वर्षे, पुत्रं मित्रं वदाचरेत॥
पाँच वर्ष की शैशवावस्था खेलने-कूदने, लाड-प्यार की है। पाँच से दस तक सीखाना-पढ़ाना पड़ता है इसलिए पाँच वर्ष की अवस्था से दस वर्षों तक डाँट-डपट होती है। किशोरावस्था अल्हड़ मानी जाती है। इसी अवस्था में बहुत कुछ सीखने और न सीखने के व्यवहार देखे जाते हैं। किशोरावस्था आज्ञा और अवज्ञा का काल है। किशोर से जवान, जवान से प्रौढ़ होने और प्रौढ़ावस्था से वृद्धावस्था में प्रवेश करते समय भी शारीरिक, मानसिक परिवर्तन होते हैं। हर आयुकाल की अपनी विशेषताएं होती हैं। कुछ मानदण्ड समाज द्वारा निर्धारित होते हैं। उन्हें पालन करने वाले व्यक्ति ही सामान्य माने जाते हैं।
बच्चों को गीली मिट्टी की तरह कहा गया है। जैसा चाहो, उसे ढाल दो। हम अपने संस्कारों से उन पर कैसा रंग डालते हैं यह हमारे ऊपर भी निर्भर करता है। हमारे ऋषि कहते हैं—'जन्मना जायते शूद्र: संस्काराद द्विज उच्यते'। अर्थात जन्म के समय मनुष्य संस्कार विहीन पशु के समान ही होता है। परंतु संस्कारों से वह योग्य बनता है। परिवार को बच्चों की प्रथम पाठशाला कहा गया है। संस्कारी परिवारों के बच्चे अच्छे व्यक्तित्व के होते हैं। बच्चों में संस्कारों को देखकर भी उस परिवार का अनुमान लगाया जा सकता है। बच्चा देखकर, अनुभव कर सीखता है। हम अपने अच्छे आचरण से बच्चों में नैतिकता का बीजारोपण कर सकते हैं। उन्हें ऐसा योग्य बनाएं कि वे स्वयं को खोजें। अच्छा विद्यालय एवं अध्यापक बालक के लिए आदर्श होता है। जहां उसके संपूर्ण चरित्र का विकास होता है। सामाजिक परिवेश भी नैतिक और अनैतिक कारणों का जनक है। हम समाज के अंग-प्रत्यंग हैं। समाज सुधार तभी हो सकता है जब हम सुधार की नीति अपनाएं। नैतिकता के स्थापन में साहित्य का सर्वोच्च स्थान है। जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति सीखता रहता है। बच्चों को अच्छे कर्म की ओर सदैव प्रेरित करना चाहिए और कर्मशील बनाना चाहिए। एक कथानक है—नन्हीं सी चींटी जीवन भर कर्म करती रही। मेल-मिलाप से रही, अपनी रानी और समाज के लिए दाना-पानी ढोती रही। एक दिन एक देवदूत आया और उसे स्वर्ग आने का निमंत्रण दे दिया। आनंद में मग्न, गुनगुनाती हुई, लहराती हुई चींटी चली जा रही थी। जो भी रास्ते में मिला वही उसके साथ जाने को आतुर हो गया। हाथी, शेर, चीता, बंदर, भालू, सियार यानि की जिस ने भी कहा उसी को चींटी खुशी-खुशी अपनी पीठ पर लादकर चलती गई। स्वर्ग तक पहुँचते-पहुँचते यह काफिला ऊँचा से ऊँचा होता गया। द्वारपालों ने अंदर खबर की। यमराज ने सुना और फैसला सुना दिया—'चींटी की पीठ पर सवार सभी जीवों को धरती पर धकेल दिया जाए। चींटी को सादर अंदर ले आया जाए। स्वर्ग में स्थान पाने के लिए अपने पैरों से चलकर आना होता है।'
लोक कथाओं में सम्भव-असम्भव का विचार नहीं होता। मुख्य विचार होता है जनमानस तक संदेश पहुँचाने हेतु। चींटी की कर्मप्रधान, नि:स्वार्थ सेवा के कारण उसे स्वर्ग बुलाया गया।
कर्मप्रधानता के साथ ही एकाग्रता में भी हाथ की लकीरें बदलने का दमखम होता है। व्यक्ति हर किस्म की चुनौतियों और परीक्षाओं से विजयी होने में सक्षम है। कमी होती है तो मात्र दृढ़ निश्चय और एकाग्रता की। निर्भय, पुरुषार्थी और एकाग्रचित्त व्यक्ति समस्त परिस्थितियों को अपने अनुरूप कर लेता है। साथ ही शक्ति का दूसरा नाम धैर्य कहा गया है। जो धैर्य खो देता है वह शक्ति भी खो देता है इसलिये धैर्यवान बनना आवश्यक है।
सत्य है कि धन कमाना बुरा नहीं है, धन का दुरुपयोग बुरा है। बच्चों को इंसानियत की प्रेरणा देनी चाहिये। उन्हें सृष्टि के पाँच तत्वों से खुद को सँवारने का पाठ सिखाना चाहिये जैसे- पृथ्वी की तरह ठोस बनिये, भीतर की अग्नि से ऊर्जावान रहिए, वायु सी उमंग और गति लाइये, आसमान जैसा बड़ा दिल बनाइए और जल की भाँति शीतल और नम्र स्वभाव रखिये। यही जीवन का गूढ़ है। सादा जीवन और उच्च विचार के साथ-साथ यही कार्यशैली उत्कृष्ट कर सकती है कि आदर्शों वाला जीवन ही श्रेष्ठ है।
मुख्यत: बाहर से देखने में सभी मनुष्य एक से ही लगते हैं। परन्तु मनुष्यों की बौद्धिक और सांस्कृतिक उच्चता नापने की कसौटी उसका व्यवहार ही है। सभ्य-असभ्य, शिष्ट-अशिष्ट, सुसंस्कृत-असंस्कृत व्यक्ति में व्यवहार का ही अन्तर होता है। व्यवहार से ही जाना जाता है कौन भद्र है, कौन अभद्र।
मधुमन्मे निक्रामणं मधुमन्मे परायणम् / वाचा वदामि मधुमद् मूयासं मधुसंदृश।
जिनके व्यवहार, क्रिया और सम्भाषण में मधुरता होती है उन्हें सभी प्यार व आदर देते हैं।
महाकवि भर्तृहरि ने अपने 'नीतिशतकम्' में विभिन्न विषयों पर अपनी स्वानुभूत राय दी है। उन्होंने भाग्य और पुरुषार्थ के महत्व को रेखांकित किया तो साथ ही कर्म और शील की महत्ता को भी प्रतिपादित किया।
कहा जाता है—'पहला सुख नीरोगी काया, दूसरा सुख घर में माया, तीसरा सुख पुत्र आज्ञाकारी, चौथा सुख अनुकूल नारी'।
श्रुति कहती है— 'आत्मा वै जायते पुत्र:'। संतान के रूप में व्यक्ति पुन: जन्म लेता है। उसी संतान का जन्म सफल है, जिसके कारण उसके वंश का गौरव बढ़ता है। माता-पिता को अपने आचरण से सुख और सन्तोष देने वाली संतान दुर्लभ होती है, इसलिए भर्तृहरि कहते हैं कि प्रभु कृपा होने पर ही व्यक्ति को सच्चरित संतान की प्राप्ति होती है।
जिस गृहस्थी का आवास आनन्ददायक हो, संतान सद्बुद्धि हो, पत्नी मृदुभाषिणी हो, अच्छे मित्र हों, अनुरक्ति अपनी पत्नी में ही हो, सेवक आज्ञाकारी हों, घर में अतिथि सत्कार होता हो, प्रतिदिन पूजन होता हो, परिष्कृत (स्वच्छ) खान-पान घर में उपलब्ध हो और ऐसे गृहस्थी का पूरा परिजन सज्जनों का ही संग करता हो, ऐसा गृहस्थी व्यक्ति धन्य है।
तैत्रिय उपनिषद में ब्रह्मचर्य आश्रम के उपरान्त गृहस्थ जीवन में प्रवेश के समय व्यक्ति को सीख दी जाती है— 'सांसारिक जीवन को जीते हुए शरीर, मन-बुद्धि से सदा तपस्वी होना चाहिये'। दरअसल सांसारिक जीवन जीना अपने आप में तप है। गृहस्थाश्रम का आधार तप ही है। इसलिए तो अन्य तीनों आश्रमों में गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है। कहा भी गया है कि तीनों आश्रमों ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रमों का आधार गृहस्थाश्रम ही है।
गृहस्थाश्रम की धुरी स्त्री-पुरुष के चारों ओर घूमती है। प्राचीन वाड्:मय में पति-पत्नी को 'कल्याण मित्र' कहा गया है। दोनों ही एक दूसरे के साथी बनकर परस्पर हितकारी कार्य करते हुए भौतिक और आध्यात्मिक जीवन के सोपान चढ़ते जाते हैं और पुरुषार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करते हैं।
भारतीय मनीषियों ने नारी को 'नारायणी' का सम्मान देकर उसको सर्वाधिक महत्व दिया। वह सर्जन-शीला है अत: पुरुष उससे इस प्रकार की अपेक्षा करता है। वह जननी है। जननी होने के कारण ही पुरुष उसके सम्मुख बालक की तरह है। मनीषी कहते हैं कि यह तो स्त्री का ही औदार्य (उदारता) है कि वह पुरुष को अपना संरक्षक होने का गौरव प्रदान करती है।
भारतीय संस्कृति और अध्यात्म चिंतन में स्त्री रूप में 'माँ' सदैव पूज्यनीय रही है। महर्षि वेदव्यास ने 'महाभारत' के 'शांतिपर्व' में लिखा है—'माता के समान कोई छाया नहीं है। माता के बराबर कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय नहीं है।'
माँ की महिमा का गान सभी महान ग्रन्थों, विद्वानों, ऋषियों, आचार्यों ने किया है। इसलिए वह सर्वप्रथम एवम् सर्वपूज्य है। पुराण कथा के अनुसार जब कार्त्तिकेय और गणेश में 'पृथ्वी' की परिक्रमा करने की प्रतियोगिता हुई थी तो गणेश ने माँ पार्वती की ही तीन परिक्रमायें की और बैठ गये। कार्त्तिकेय जब पृथ्वी की वास्तविक परिक्रमा करके लौटे, तो देखा गणेश पहले से ही बैठे हैं। उनका तर्क था कि 'पृथ्वी' भी जननी है। गणेश प्रतियोगिता में विजयी हुये। एक मनीषी ने कहा है—कोमलता में जिसका हृदय गुलाब की कलियों से भी अधिक कोमल, दयामय है। पवित्रता में जो यज्ञ की धूम (धूणी) के समान है। कर्तव्य में वज्र की तरह कठोर है—वही जननी है।
स्वामी रामतीर्थ ने कहा है—'माताएँ ही संसार को उठा सकती हैं। माताएँ ही देश को उठा या गिरा सकती हैं। माताएँ ही प्रकृति के ज्वार में उतार-चढ़ाव ला सकती हैं। महामानव सदा ही श्रेष्ठ माताओं की संतान हुआ करते हैं।'
माँ की गरिमामयी विशेषता है, उसका सन्तानोत्पत्ति का गुण। वह प्रकृति की सबसे अनोखी एवम् अद्भुत कृति है। मैक्सिम गोर्की ने लिखा है—'माताएँ ही भविष्य के विषय में सार्थक विचार कर सकती हैं, क्योंकि वे अपनी संतानों के भविष्य को जन्म देती हैं।'
स्त्री की बात हो रही है तो रसोई की भी बात होनी चाहिए। महर्षि रमण कहा करते थे—रसोई इस तरह बनानी चाहिये जैसे आप कोई भजन गा रहे हों तभी उसे खाने वाला भी खुश होगा'।
शुद्धता एवम् सात्विकता से बनाया गया भोजन मन पर अच्छा प्रभाव डालता है। महात्मा बुद्ध ने कहा है— हमारी आजीविका सम्यक हो। हम ईमानदारी से अपनी रोजी-रोटी कमायें। परिश्रम के उपरान्त जो प्राप्ति होती है वह उत्तम मानी गयी है और अधिक सन्तुष्ट भी करती है। परिश्रम से शरीर भी सक्रिय रहता है।
रामचरित मानस में उत्तरकाण्ड के अंत में गरुड़ सात प्रश्न पूछते हैं। ये प्रश्न किसी भी जिज्ञासु के हो सकते हैं। प्रश्नों के उत्तर आदर्श जीवन जीने के लिए दिशा निर्देश भी हैं।
'नाथ मोहि निज सेवक जानी, सप्त प्रस्न मम कहुहु बखानी।'
गरुड़ का पहला प्रश्न है— असंख्य योनियों में जीव दिखाई पड़ते हैं, उनमें से कौन सा शरीर दुर्लभ और महान है?
काकभुशुण्डि का नीति कथन है कि मनुष्य शरीर के समान अन्य कोई शरीर नहीं। सभी जड़-चेतन इसी की याचना करते हैं। क्योंकि यही स्वर्ग, नर्क और मोक्ष की सीढ़ी है। इसी के माध्यम से ज्ञान, वैराग्य और शक्ति की प्राप्ति होती है। दूसरा और तीसरा प्रश्न है—जीवन में सबसे बड़ा सुख और दुख क्या है? काकभुशुण्डि का निर्णय है कि 'दरिद्रता' के समान इस जगत में कोई दु:ख नहीं, संत मिलन जैसा कोई सुख नहीं। चौथा प्रश्न है— संत और असंत में क्या भेद है? पक्षीराज को समझाते हुए वे कहते हैं— तन, मन और वाणी से परोपकार करना संतों का सहज स्वभाव है। वे दूसरों की भलाई के लिए स्वयं दु:ख भोग सकते हैं जबकि असंत ओलों के समान दु:खदायी होते हैं। संसार में पवित्रतम् पुण्य अथवा धर्म क्या है और घोर पाप कौन सा है? इसके उत्तर में वेदों और श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित 'अहिंसा' को पुण्य धर्म कहा गया और 'परनिन्दा' को भारी पाप। गरुड़ की सातवीं जिज्ञासा प्रश्न रूप में 'मानस रोग' के बारे में है। उत्तर में काकभुशुण्डि 'मोह' को सब मानस रोगों की जड़ मानते हैं।
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनासि जानताम्
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥
हे मनुष्यो! मिलकर चलो, परस्पर मिलकर बात करो अर्थात तुम सब के विचार एक हों। विपरीत दिशाओं में परस्पर विरोधी लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कोई षड्यन्त्र न करो। जब कदम से कदम मिलाकर गन्तव्य की ओर चलोगे तो सफलता मिलती है। एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक और शालीनता का वर्ताव रखो। समाज के संगठन के लिए सोचने और परस्पर विचार-विमर्श करने पर बल दो, यह एकता का मूल है। संसार की उन्नति तभी सम्भव है जब समस्त मानव समाज (वसुधैव कुटुम्बकम्) की उन्नति हेतु एक जैसा, एक साथ प्रयत्न किया जाय।
वैदिक चिन्तन मानता है कि मनुष्य के अपने राष्ट्र के साथ सम्बन्ध दृढ़ हों, उनके निजी हित राष्ट्र के लिए बाधक न बनें। मनुष्य राष्ट्रोन्नति के लिए हानिकारक कोई भी काम न करे। समाज के व्यक्तियों में यह विचार जाग्रत होने चाहिये कि 'मैं स्वयं के लिए न होकर समाज, देश एवम् राष्ट्र के लिए हूँ।' इन विचारों से देश की समस्त शक्तियाँ अन्तर्मुखी हो जायेंगी। जो व्यक्ति जहाँ जिस पद पर बैठा है वह वहीं अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व का ईमानदारी से पालन करे तो समाज में और राष्ट्र में जो मनमुटाव, जातिकरण और वर्गीकरण होता रहा है, वह समाप्त हो जायेगा।
जात-पात पूछे नहीं कोय, हरि को भजे सो हरि का होई।
संत रविदास का चिंतन-दर्शन अतीत का नहीं अपितु वर्तमान और भविष्य का दर्शन रहा है। वे कहते थे किसी भी व्यक्ति की जाति पूछना बेकार है, क्योंकि सभी एक ही परमपिता की संतान हैं।
राष्ट्र के कामों में अपने व्यक्तिगत कार्यों को गौण जानकर छोड़ देना चाहिये, इसी में सबका हित है। हम सभी स्वराष्ट्र की सर्वांगीण समृद्धि के लिए प्रयत्न करें। हम उच्च संस्कारों, विचारों और व्यवहार के अनुगामी बनें। विवेकशील मनुष्य ही राष्ट्र का प्रतिरूप होते हैं। राष्ट्र गौरव ही समाज का गौरव है।
भारतीय चिंतन में राजधर्म को राष्ट्रधर्म के रूप में निरूपित किया गया है। राष्ट्र ही सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और राजनीतिक व्यवस्था का सामूहिक चरित्र है। जब समाज के व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठ, सच्चरित्र, जागरूक और बुद्धिमान होंगे तो वही समाज किसी देश को समर्थ और खुशहाल बना सकता है।
ऋग्वेद में कहा गया है—'हे मनुष्यों तुम्हारे संकल्प समान हों, तुम्हारे हृदय परस्पर मिले हुए हों, तुम्हारे मन समान हों, जिससे तुम लोग परस्पर मिलकर एक होकर रहो।'
'अत्र भवति विश्वमेकनीड्म'-अर्थात समग्र विश्व एक घोंसला बन कर रहे।
यजुर्वेद का एक वैदिक मन्त्र है— भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर यजत्रा: अर्थात हे भगवान हम कानों से पवित्र शब्दों को ही सुनें, आँखों से पवित्र दृश्यों को ही देखें।
'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे' (यजुर्वेद) हम सभी को मित्र की दृष्टि से देखें।
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