in part 6

मैंने अपने जीवन के इक्कीस साल एक शक्तिशाली क्रिया – शांभवी महामुद्रा – को रूपांतरित करने में लगाए हैं, ताकि उसे आज की दुनिया में बड़ी संख्या में लोगों को सिखाया जा सके। कुछ खास पहलुओं को, जिससे लोगों को स्वयं या दूसरों को हानि पहुँच सकती थी, या जिससे उनके आसपास के तत्त्व प्रभावित हो सकते थे, उन्हें सुरक्षित तरीके से निकाल दिया है, ताकि उसके शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक लाभ ही बाकी रह जाएँ। उन दो दशकों के दौरान मैं जानबूझकर हर तरह की सार्वजनिक पहुँच से दूर रहा, क्योंकि मेरा पूरा ध्यान मुख्यतया इस क्रिया के पुनर्गठन पर केंद्रित था, ताकि यह बिना किसी प्रतिकूल प्रभाव के व्यापक रूप से प्रदान की जा सके।

एक संपूर्ण मार्ग के रूप में क्रिया-योग सिर्फ उन लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण है, जो रहस्यमय आयाम में खोज करने में रुचि रखते हैं। अगर आपकी रुचि सिर्फ खुशहाली में है, या आप बस आत्मज्ञान चाहते हैं, तो क्रिया को एक छोटे स्तर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन क्रिया-योग को एकमात्र मार्ग की तरह अपनाने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि इसके लिए बहुत अधिक परिश्रम की आवश्यकता है।

अगर आप बिना किसी मार्गदर्शन के क्रिया के मार्ग पर बहुत तीव्रता से चलते हैं, तो भी उसका फल मिलने में कई जीवन-काल लग सकते हैं। अगर आपके लिए कोई सक्रिय रूप से इसकी प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने वाला मौजूद है, तो आंतरिक प्रकृति और रहस्यमय आयाम की खोज के लिए क्रिया सबसे शक्तिशाली और शानदार पद्धति हो सकती है। वरना क्रिया एक तरह से घुमावदार रास्ता है। इस मार्ग पर आप बस खुशहाली, आनंद या आत्मबोध ही प्राप्त नहीं करना चाहते, बल्कि जीवन बनाने की प्रक्रिया को भी जानना चाहते हैं; आप जीवन की याँत्रिकी समझना चाहते हैं। इसी कारण से यह काफी लंबी प्रक्रिया है।

क्रिया के मार्ग पर चलने वाले लोगों की मौजूदगी बिलकुल अलग तरह की होती है, क्योंकि अपनी ऊर्जा पर उनकी दक्षता होती है। वे जीवन को छिन्न-भिन्न कर सकते हैं और फिर से इकट्ठा करके जोड़ सकते हैं। अगर आप दूसरे मार्ग पर चल रहे हैं, जैसे ज्ञान-मार्ग, तो आपकी बुद्धि की धार बहुत पैनी हो सकती है, लेकिन अपनी ऊर्जाओं के साथ आप कुछ खास नहीं कर सकते। इसी तरह से, अगर आप भक्ति या समर्पण के मार्ग पर हैं, तो भी आप अपनी ऊर्जाओं के साथ कुछ खास नहीं कर सकते। और आप इसकी परवाह भी नहीं करते, क्योंकि तब आपकी भावनाओं की तीव्र मधुरता ही मायने रखती है; आप बस उसमें विसर्जित हो जाना चाहते हैं, जिसके प्रति आपकी भक्ति है। अगर आप कर्म के मार्ग पर हैं, तो आप इस दुनिया में तमाम चीज़ें कर सकते हैं, लेकिन स्वयं के साथ आप कुछ भी नहीं कर सकते। इसके विपरीत, क्रिया-योगी अपनी आंतरिक दुनिया के साथ जो चाहे कर सकते हैं, और वे बाहरी दुनिया के साथ भी काफी-कुछ कर सकते हैं।



॥साधना॥



असल में हर व्यक्ति में कर्मों की संरचना एक चक्रीय तरीके से काम करती है। अगर आप बारीकी से ग़ौर करें, तो पाएँगे कि दिनभर में वही चक्र बार-बार हो रहे हैं। अगर आप बहुत ध्यान देने वाले व्यक्ति हैं, तो आप देखेंगे कि हर चालीस मिनट में आप एक शारीरिक चक्र से गुजरते हैं। एक बार जब आपको इसका एहसास हो जाता है, तब ज़रूरी एकाग्रता और जागरूकता के साथ आप उस चक्र पर सवार हो सकते हैं और उन चक्रों द्वारा निर्धारित सीमाओं से परे जाने की तरफ़ बढ़ सकते हैं। इसलिए हर चालीस मिनट पर जीवन आपको एक अवसर प्रदान करता है – जागरूक बनने का अवसर।

हर चालीस से अड़तीस मिनट पर, दाहिने और बाएँ नथुनों से आने-जाने वाली साँस की प्रबलता में भी बदलाव आता है। आपकी साँस कुछ देर तक दाहिने नथुने में प्रबल रहती है और फिर बाएँ नथुने में। आप इस बारे में जागरूक हो जाइए, ताकि आप यह जान जाएँ कि आपके भीतर कम से कम कोई चीज़ लगातार बदल रही है। इस जागरूकता को और अधिक बढ़ाया जा सकता है और आप अपने शरीर पर सूर्य और चंद्रमा के प्रभाव के प्रति भी जागरूक हो सकते हैं। अगर आप चंद्र और सौर चक्रों के साथ अपने शरीर को संतुलन में ले आते हैं, तो आपका शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य सुनिश्चित है।

ऊर्जा का भँवर-जाल

योग-पद्धति हमें मनुष्य के ऊर्जा-शरीर की संरचना का एक व्यापक और विस्तृत दृष्टिकोण प्रदान करती है। ऊर्जा-सिस्टम में बहत्तर हज़ार नाड़ियाँ या “चैनल” होते हैं। ऊर्जा या प्राण इन्हीं नाड़ियों से होकर प्रवाहित होता है। ये बहत्तर हज़ार नाड़ियाँ तीन बुनियादी नाड़ियों से निकलती हैं : दाहिनी नाड़ी को पिंगला कहते हैं, बाईं नाड़ी को इड़ा, और बीच की नाड़ी को सुषुम्ना।

ये तीन नाड़ियाँ ऊर्जा-प्रणाली का आधार होती हैं। पिंगला पुरुष-प्रकृति का प्रतीक है और इड़ा नारी-प्रकृति का। यहाँ पर “पुरुष-प्रकृति” और “नारी-प्रकृति” का अर्थ लिंग-भेद के संदर्भ में नहीं है, बल्कि यह स्वभाव के कुछ खास गुणों से जुड़ा है। इन गुणों के प्रतीक ये दो चैनल हैं।

अगर किसी व्यक्ति की पिंगला बहुत प्रबल है, तो उसमें बहिर्मुखी और खोजी प्रवृत्ति के गुण प्रमुख होंगे। अगर इड़ा अधिक प्रबल है, तो ग्रहणशीलता और विचारशीलता के गुण मुख्य होंगे। कोई व्यक्ति पुरुष है या स्त्री, उसका इन गुणों से कोई लेना-देना नहीं है। आप एक पुरुष हो सकते हैं, फिर भी आपमें इड़ा ज़्यादा प्रबल हो सकती है; आप एक स्त्री हो सकती हैं, फिर भी पिंगला प्रबल हो सकती है।

पिंगला और इड़ा को सूर्य और चंद्रमा की तरह भी दर्शाया जाता है – सूर्य पुरुष-प्रधान गुणों का और चंद्रमा नारी-सुलभ गुणों का प्रतीक है। सूर्य प्रचंड है और अपनी किरणें चारों ओर बिखेरता है। चंद्रमा किरणों को ग्रहण करता है और परावर्तित करता है। चंद्रमा के बढ़ने-घटने के चक्र से औरतों के शरीर का चक्र जुड़ा हुआ है। आपके दिमाग के स्तर पर, पिंगला तार्किक आयाम का प्रतीक है; जबकि इड़ा सहजज्ञान आयाम का। यह द्वैत मनुष्य जीवन के भौतिक दायरे का आधार है। व्यक्ति तभी पूर्ण होता है, जब पुरुष-प्रधान पक्ष और नारी-सुलभ पक्ष दोनों पूरी क्षमता से काम करते हैं और उचित संतुलन में होते हैं।

सुषुम्ना, जो केंद्रीय नाड़ी है, आपके शरीर-विज्ञान का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिससे अधिकतर लोग आम तौर पर अनजान होते हैं। यद्यपि सुषुम्ना का बहत्तर हजार नाड़ियों से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन फिर भी यह पूरे सिस्टम की धुरी का काम करती है। एक बार जब ऊर्जाएँ आपकी सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती हैं, तब आपमें एक तरह का संतुलन बना रहता है, चाहे आपके आसपास कुछ भी क्यों न हो रहा हो। अभी, हो सकता है कि आप काफी संतुलित हों, लेकिन अगर बाहरी परिस्थिति चुनौतीपूर्ण है, तो आप भी परेशान हो जाएँगे। ऊर्जाओं के सुषुम्ना में प्रवेश कर जाने पर, आप अपने भीतर कैसे हैं, यह बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता, क्योंकि सुषुम्ना बहत्तर हजार नाड़ियों से जुड़ी नहीं है।

आजकल चक्रों की बहुत बातें हो रही हैं। “चक्र” का अर्थ है पहिया, और योग-पद्धति में इसका बहुत महत्त्व और खास मायने हैं। आजकल “ह्वील अलाइनमेंट सेंटर” होते हैं जो आपके चक्रों को संतुलित करने, आपके अवरोधों को दूर करने, और आपकी बीमारियों, भूतकाल, वर्तमान और भविष्य का उपचार करने का दावा करते हैं। इन दिनों तमाम लोग चक्रों पर काम कर रहे हैं। यह एक बड़ी सनक बन गई है, लेकिन यह खतरनाक हो सकती है। इस सूक्ष्म और गूढ़ विषय को सावधानी और सतर्कता से सँभालने का यही समय है।

नाड़ियों का कोई प्रकट रूप नहीं होता, वे दिखाई नहीं देतीं। अगर आप शरीर को काटकर उसके अंदर खोजें, तो आपको कुछ भी नहीं मिलेगा। लेकिन आप जैसे-जैसे ज़्यादा जागरूक होते जाते हैं, आप देखेंगे कि ऊर्जा यूँ ही यहाँ-वहाँ नहीं जाती, बल्कि उसके रास्ते तय होते हैं।

शरीर-तंत्र में “चक्र” वह शक्तिशाली केंद्र हैं, जहाँ नाड़ियाँ खास तरीके से मिलकर ऊर्जा का भँवर बनाती हैं। नाड़ियों की तरह चक्रों की प्रकृति भी सूक्ष्म होती है और उनका भी भौतिक अस्तित्व नहीं होता। वे अकसर एक त्रिकोण बनाते हुए मिलते हैं (वृत्त की तरह नहीं, जैसा कि “चक्र” शब्द संकेत करता है)। हर मशीन में सभी घूमने वाले पुर्जे हमेशा गोल होते हैं, क्योंकि एक गोलाकार चीज़ ही कम से कम घर्षण के साथ घूम सकती है। इन ऊर्जा-केंद्रों का ऐसा नाम इसलिए रखा गया, क्योंकि “चक्र” या “पहिया” गतिशीलता का एहसास कराता है।

शरीर में कुल 114 चक्र हैं। दो शरीर के बाहर हैं और 112 शरीर के अंदर। इन 112 चक्रों में से 7 मुख्य चक्र हैं। अधिकतर लोगों के लिए इनमें से केवल 3 सक्रिय रहते हैं; बाकी या तो मंद या कम सक्रिय रहते हैं। आपको अपना सांसारिक जीवन जीने के लिए सभी 114 चक्रों को सक्रिय नहीं करना होता। बस कुछ ही चक्रों की सहायता से आप एक काफी संपूर्ण जीवन जी सकते हैं। अगर आपको पूरे 114 चक्र सक्रिय करने हों, तो आपको शरीर का बिलकुल आभास भी नहीं रहेगा। योग का उद्देश्य आपके ऊर्जा-सिस्टम को इस तरह से सक्रिय करना है कि आपकी शारीरिक चेतना लगातार नीची होती रहे, ताकि आप यहाँ बैठकर शरीर में रहें, लेकिन खुद शरीर ना रहें।

दक्षिण भारत में सदाशिव ब्रह्मेंद्र नाम के एक प्रसिद्ध योगी थे। वे “निर्काया” थे, जिसका शाब्दिक अर्थ “शरीर-विहीन” योगी होता है। उनको अपने शरीर के होने का कोई आभास नहीं रह गया था। इस अवस्था में व्यक्ति को कपड़े पहनने का भी खयाल नहीं आता। वे बस नंगे ही घूमते थे। इस अवस्था में घर, संपत्ति या भौतिक सीमा का भी कोई बोध नहीं रहता।

एक दिन वे टहलते हुए कावेरी नदी के किनारे राजा के बगीचे में चले गए। राजा वहाँ अपनी रानियों के साथ बैठा हुआ आराम कर रहा था। अपनी ही नग्नता से अनजान सदाशिव ब्रह्मेंद्र बगीचे में घूमते रहे। राजा को बहुत गुस्सा आया, ‘यह कौन मूर्ख है, जो मेरी रानियों के सामने नंगा घूमने की हिम्मत कर रहा है?’

राजा ने अपने सिपाही उनके पीछे भेज दिए। सिपाही सदाशिव ब्रह्मेंद्र को पुकारते हुए उनके पीछे भागे। उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। वे बस टहलते रहे। गुस्से में आकर एक सिपाही ने अपनी तलवार निकाली और उन पर वार कर दिया। उनका दाहिना हाथ कटकर गिर गया। सदाशिव ब्रह्मेंद्र ने अपनी चाल तक धीमी नहीं की। वे चलते रहे।

यह देखकर सिपाही स्तब्ध रह गए और भयभीत हो गए। उन्हें एहसास हुआ कि वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। राजा और उसके सिपाही उनके पीछे भागे, उनके पैरों में गिरकर उनसे क्षमा माँगी, और उन्हें बगीचे में वापस ले आए। वे उस बगीचे में जीवनभर रहे, और अंत में अपना शरीर वहीं पर त्याग दिया।

योग-परंपरा में इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं। जब आपकी ऊर्जाएँ एक उच्च अवस्था में होती हैं, तो भौतिक अस्तित्व का बोध इतना कम हो जाता है कि व्यक्ति के लिए कई दिनों तक बिना किसी बाहरी पोषण के गुजार लेना भी संभव होता है।

मानव-शरीर-तंत्र में चक्रों की क्या भूमिका है? सात मौलिक चक्र हैं – मूलाधार, जो गुदा और जननांग के बीच स्थित होता है; स्वाधिष्ठान, जो जननांग से ठीक ऊपर होता है; मणिपूरक, जो नाभि से तीन चौथाई इंच नीचे होता है; अनाहत, जो पसलियों के मिलने की जगह के नीचे गड्ढे में होता है; विशुद्धि, जो कंठ के गड्ढे में होता है; आज्ञा-चक्र दोनों भौंहों के बीच होता है और सहस्रार चक्र, जिसे ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं, सिर की सबसे ऊपरी जगह पर होता है (यह नवजात बच्चे के सिर में ऊपर सबसे कोमल जगह होती है)।

ये चक्र सात विभिन्न आयाम हैं, जिनके माध्यम से आपकी ऊर्जा को अभिव्यक्ति मिलती है। आपके भीतर होने वाले अनुभव – क्रोध, पीड़ा, शांति, खुशी और परमानंद – आपकी जीवन-ऊर्जा की अभिव्यक्ति के अलग-अलग स्तर हैं। अगर आपकी ऊर्जा मूलाधार में प्रबल है, तो आपके जीवन में भोजन और नींद का सबसे प्रमुख स्थान होगा। अगर आपकी ऊर्जा स्वाधिष्ठान में सक्रिय है, तो आपके जीवन में सुख प्राप्त करना सबसे महत्त्वपूर्ण होगा; आप भौतिक सुखों का भरपूर मज़ा लेने का प्रयास करेंगे। अगर आपकी ऊर्जा मणिपूरक में प्रबल है, तो आप एक कर्मशील व्यक्ति होंगे; आप दुनिया में बहुत-से काम कर सकते हैं। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। इसी तरह से आपकी ऊर्जा अगर विशुद्धि में सक्रिय है, तो आपकी मौजूदगी बहुत शक्तिशाली होगी। अगर आपकी ऊर्जा आज्ञा में सक्रिय है या आप आज्ञा तक पहुँच गए हैं, तो इसका मतलब है कि बौद्धिक स्तर पर आपने सिद्धि पा ली है। यह बौद्धिक सिद्धि आपके अंदर स्थिरता और शांति की अवस्था ला सकती है। आपके आसपास चाहे कुछ भी हो रहा हो या कैसे भी हालात हों, आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

ये बस तीव्रता के अलग-अलग स्तर हैं। सुख तलाशने वाले के जीवन में भोजन और नींद के पीछे भागने वाले की तुलना में अधिक तीव्रता होती है। वह व्यक्ति, जो इस दुनिया में कुछ नया करना चाहता है, उसकी तीव्रता सुख तलाशने वाले से ज़्यादा होगी। एक कलाकार या सृजनात्मक व्यक्ति के जीवन में इन तीन लोगों की तुलना में अधिक तीव्रता होती है। अगर आपने विशुद्धि को पा लिया है, तो यह तीव्रता का बिलकुल अलग आयाम होता है, और आज्ञा का स्तर उससे भी ऊँचा है। एक बार जब इंसान की ऊर्जा सहस्रार तक पहुँच जाती है, तो वह पागलों की तरह परमानंद में झूमता है। आप बिना किसी बाहरी उकसावे के ही आनंद में झूमते हैं, क्योंकि आपकी ऊर्जाओं ने उस चरम शिखर को छू लिया है।

निचले और ऊपरी चक्रों की बात करना भ्रामक हो सकता है। यह कुछ-कुछ एक बिल्डिंग की नींव और छत की तुलना करने जैसा है। छत बेहतर नहीं होती; नींव कमतर नहीं होती। किसी बिल्डिंग की क्वालिटी, जीवन-काल, स्थिरता और सुरक्षा काफी हद तक उसकी छत की तुलना में उसकी नींव पर अधिक निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, भौतिक शरीर में आपकी ऊर्जाओं को कुछ हद तक मूलाधार में होने की आवश्यकता है। “मूल” का अर्थ है जड़ या स्रोत, और आधार का अर्थ है नींव। शरीर की बनावट में यह आधार है। अगर आपको विकास करना है, तो आपको इसे उन्नत बनाना होगा।

साथ ही, चक्रों का न केवल भौतिक आयाम होता है, बल्कि आध्यात्मिक आयाम भी होता है। अगर आप इसमें सही किस्म की जागरूकता ले आते हैं, तो उसी मूलाधार को इस सीमा तक रूपांतरित किया जा सकता है, जहाँ आप भोजन और नींद की विवशतापूर्ण आवश्यकता से पूरी तरह से मुक्त हो जाते हैं।

चक्र दो आयामों में से किसी एक आयाम में आते हैं : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक और संबंधित चक्र शरीर को स्थिर और आधार से जुड़ा रखने से अधिक संबंध रखते हैं। ये गुण धरती और आत्म-सुरक्षा से जुड़े हैं। जब आपकी ऊर्जा इन चक्रों में प्रबल होती है, तब आपके गुण सांसारिक होते हैं और आप प्रकृति की पकड़ में अधिक होते हैं। ऊपरी चक्र – विशुद्धि, आज्ञा, सहस्रार और संबंधित चक्र – ऐसे केंद्र हैं, जो आपको धरती के आकर्षण से दूर खींचते हैं। वे अनंत की लालसा से संबंध रखते हैं। वे आपको उस शक्ति के प्रति ग्रहणशील बनाते हैं, जिसे हम आम तौर पर कृपा कहते हैं।

बीच का चक्र, अनाहत, इन दो वर्गों के बीच का संतुलन है। यह आपके निचले और ऊपरी चक्रों के बीच के स्थान की तरह है – आत्म-सुरक्षा की प्रवृत्ति और मुक्ति की ओर जाने की प्रवृत्ति के बीच का स्थान। इसे एक-दूसरे को काटते हुए दो त्रिभुजों के रूप में दर्शाया जाता है। एक त्रिभुज का सिरा नीचे की ओर और दूसरे का ऊपर की ओर होता है, जिससे छह सिरों वाला सितारा या स्टार बन जाता है। कई धार्मिक परंपराओं ने इसे एक पवित्र प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया है, क्योंकि इन संस्कृतियों में कुछ आत्मज्ञानी लोगों ने अपनी परम प्रकृति को अनाहत के माध्यम से प्राप्त किया था, और उन्होंने इस चक्र के काटते हुए त्रिभुजों को अपने भीतर देखा था।

विशुद्धि का शाब्दिक अर्थ होता है छलनी। यह चक्र आपके कंठ के गड्ढे में स्थित है। अगर आपका विशुद्धि शक्तिशाली हो जाता है, तो आपके पास अपने भीतर प्रवेश करने वाली हर चीज़ को छानने की और उसे स्वीकार करने या न करने की क्षमता होती है। या दूसरे शब्दों में, एक बार जब आपका विशुद्धि बहुत सक्रिय होता है, तब आप इतने शक्तिशाली बन जाते हैं कि बाहरी प्रकृति का आप पर कोई प्रभाव नहीं होता। भारतीय प्रतिमाओं में आदियोगी को नीलकंठ यानी नीले गले वाला दर्शाया गया है, क्योंकि वे बाहरी दुनिया के विष को छानने और उसे अपने गले में रोक देने में सक्षम हैं। वे उसे अपने अंदर प्रवेश करने से रोक सकते हैं।

अगर आपकी ऊर्जाएँ आज्ञा-चक्र में प्रवेश कर जाती हैं, जो आपकी भौहों के बीच स्थित है, तब आपको बौद्धिक स्तर पर ज्ञान हो जाता है, लेकिन अनुभव के स्तर पर फिर भी मुक्त नहीं होते। भारत में आठवीं सदी में महान रहस्यदर्शी दार्शनिक आदिशंकर ने देशभर में यात्राएँ कीं और आध्यात्मिक शास्त्रार्थ में अनगिनत पंडितों को हरा दिया। उनका तर्क अकाट्य था, क्योंकि आज्ञा-चक्र में एकत्व का अनुभव व्यक्ति को बौद्धिक अंतर्दृष्टि और बोध का असाधारण स्तर प्रदान कर देता है।

सातवाँ चक्र सहस्रार वास्तव में आपके शरीर के ठीक बाहर स्थित होता है। अधिकतर लोगों के लिए यह निष्क्रिय रहता है। यद्यपि, आध्यात्मिक अभ्यास से या बहुत तीव्र तरीके से जीवन जीने से आप इसे सक्रिय कर सकते हैं। अगर आप अपने सहस्रार तक पहुँच जाते हैं, तो आपका अनुभव फिर केवल बौद्धिक नहीं रह जाता; वह आपके अनुभव में उतर आता है। आप अब अवर्णनीय परमानंद में गोते लगाते हैं और गहनतम रहस्यमय क्षेत्र आपके लिए खुलने लगते हैं। अगर आवश्यक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक संतुलन पैदा करने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक साधना नहीं की गई हो, तो कभी-कभी आप परमानंद की ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जो आपके नियंत्रण से बाहर होती है। भारतीय परंपरा में, इन परमानंद में डूबे रहस्यदर्शियों को “अवधूत” कहा जाता था। वे चेतना की इतनी बदली हुई अवस्था में होते थे कि अकसर उनके आसपास रहने वाले लोगों को उन्हें खाना खिलाना पड़ता था और उनकी देखभाल करनी पड़ती थी, क्योंकि वे जीवन के भौतिक पहलुओं को अपने आप सँभाल पाने में सक्षम नहीं होते थे।

मौलिक रूप से, किसी भी आध्यात्मिक मार्ग को मूलाधार से सहस्रार की यात्रा की तरह, या एक आयाम से दूसरे आयाम में विकास करने के रूप में देखा जा सकता है। योग-पद्धति में कई प्रकार के आध्यात्मिक अभ्यास हैं, जो व्यक्ति को अपनी ऊर्जाओं को एक चक्र से दूसरे चक्र में ले जाने में सहायता करते हैं। लेकिन, आज्ञा से सहस्रार में जाने का कोई मार्ग नहीं है। आपको उसमें या तो छलाँग लगानी होती है या उसमें गिरना होता है।

भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गुरु की ज़बरदस्त महत्ता के पीछे यह एक कारण है। आज्ञा से सहस्रार में छलाँग लगाने के लिए अत्यधिक भरोसे की आवश्यकता होती है। मान लीजिए कि आपके सामने अतल कुंड है, और कोई आपको उसमें कूद जाने को कहता है। ऐसा कर सकने के लिए आप या तो पूरी तरह से पागल होंगे, या आपमें असाधारण साहस होगा, या आपको उस व्यक्ति पर अटूट भरोसा होगा। बहुत कम लोग इतने पागल होते हैं कि वे अपना जीवन पूरी बेफिक्री में जी सकें; अधिकतर लोग सावधानी से, और अपनी सीमाओं की रक्षा करने की ज़रूरतों से संचालित होकर जीते हैं। तो, 99.9 प्रतिशत लोगों के लिए भरोसे की ज़रूरत होती है। बिना भरोसे के वे कभी छलाँग नहीं लगाएँगे।

हालाँकि, इस अगाध कुंड को डरावनी खाई की काली छवि के रूप में देखने की ज़रूरत नहीं है। इसके बदले, यह एक ऐसे स्थान को दर्शाता है, जो चोट खाने और पीड़ा की सभी संभावनाओं से मुक्त है। यह एक बिलकुल नया आयाम है, जो दोषरहित तरीके से न दोहराने वाला है। यह आयाम तुलना से परे है। यह आपको एक अलग इकाई के बजाय सर्व-समावेशी अनंत प्रकृति में, आनंद से परे की निश्चलता में पहुँचाता है।

और इसलिए, छलाँग लगाना फायदेमंद है। छलाँग ही सब-कुछ है। इस छलांग से तली-रहित अगाध कुंड सीमा-रहित आज़ादी बन जाता है।



॥साधना॥



खुली आँखों से, अपनी भौंहों के बीच के स्थान से छह से नौ इंच की दूरी पर बारह से अड़तालीस मिनट तक अपना ध्यान केंद्रित करने से आपको अपने अलग-अलग चक्रों की प्रकृति और संरचना का एहसास हो सकता है। यह आपके ध्यान के स्तर और उसकी अवधि पर निर्भर करेगा। इसका बोध तनावपूर्ण बाहरी परिस्थितियों के कारण होने वाले चक्रों की अनियमित हलचल को स्थिर करने में सहायता कर सकता है। क्रिया-योग के एक बहुत परिष्कृत प्रकार का यह बस एक पहलू है, जो आपको अपने आंतरिक आकाशीय आयाम तक पहुँच प्रदान करता है।

अनजानी राह

योग के छठे अंग को “ध्यान” कहा जाता है। यह वास्तव में अपनी शारीरिक और मानसिक संरचना की सीमाओं से परे उठने के बारे में है। ध्यान बौद्ध भिक्षुओं के साथ भारत से चीन तक गया, जहाँ इसे “चान” कहा जाने लगा। यह योग दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों से होता हुआ जापान पहुँचा और “ज़ेन” बन गया, और बिना किसी सिद्धांत पर जोर दिए, यह सीधे अंतर्दृष्टि पाने की पूरी पद्धति के रूप में प्रचलित हुआ। ज़ेन एक ऐसा आध्यात्मिक मार्ग है, जिसमें कोई ग्रंथ, किताबें, नियमावली या पूर्वनिर्धारित अभ्यास नहीं हैं। यह एक अपरिचित मार्ग है।

उस पद्धति के इस्तेमाल का, जिसे हम अब ज़ेन कहते हैं, पहला लिखित जिक्र लगभग आठ हजार साल पहले मिलता है, जो गौतम बुद्ध से बहुत पहले का काल था। राजा जनक बहुत तेजस्वी व्यक्ति और प्रचंड साधक थे। उनके अंदर जानने की आग निरंतर जलती रहती थी। उन्होंने अपने राज्य के सभी आध्यात्मिक गुरुओं से सलाह ली थी। कोई भी उनकी सहायता नहीं कर सका, क्योंकि उन सबने पुस्तकें पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया था। उन्हें अब तक कोई ऐसा नहीं मिला था, जिसको आंतरिक अनुभव प्राप्त हुआ हो।

एक दिन राजा शिकार करने के लिए गए। जंगल में बहुत अंदर तक घुड़सवारी करने के बाद उन्हें एक योगी दिखे। वे रुक गए। एक छोटी कुटिया के सामने अष्टावक्र बैठे हुए थे। वे तब तक के सर्वाधिक सिद्ध योगियों और आध्यात्मिक गुरुओं में से एक थे। जनक उनका अभिवादन करने के लिए घोड़े से उतरने को तैयार हुए। उन्होंने उतरने के लिए काठी पर से अपना पैर घुमाया ही था कि अष्टावक्र ने कहा, “रुको!”

जनक वहीं रुक गए। उनका एक पैर रकाब में था और दूसरा बीच हवा में। वह एक कष्टदेह स्थिति थी, लेकिन जनक उसी स्थिति में अष्टावक्र को देखते हुए बिना हिले लटके रहे। हम नहीं जानते कि गुरु ने उन्हें कितनी देर तक उस तरह से रखा, लेकिन उस कष्टदेह स्थिति में अचानक जनक को पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त हो गया। अष्टावक्र ने जो तरीका अपनाया, वह उस तरह का था, जिसे आजकल दुनिया में आम तौर पर ज़ेन के नाम से जानते हैं।

एक बार की बात है ... एक ज़ेन-गुरु थे जिनका हर कोई आदर करता था, लेकिन वे किसी तरह की शिक्षा नहीं देते थे। वे अपने कंधों पर हमेशा एक बोरी लेकर चलते थे, जिसमें बहुत-सी चीज़ें होती थीं, और उन चीज़ों में कुछ मिठाइयाँ भी होती थीं। वे जिस भी गाँव या कस्बे में जाते थे, बच्चे उनके चारों ओर इकट्ठे हो जाते थे, और वे उनमें मिठाई बाँटकर चल देते थे। लोग उनसे शिक्षा देने को कहते थे, लेकिन वे हँस देते और अपने रास्ते चले जाते।

एक दिन एक आदमी, जो खुद एक प्रसिद्ध ज़ेन-गुरु था, उनसे मिलने आया। वह यह सुनिश्चित करना चाहता था कि क्या यह बोरी वाला आदमी वास्तव में एक ज़ेन है या नहीं। तो उसने उनसे पूछा, ‘ज़ेन क्या है?’ तुरंत उस आदमी ने बोरी नीचे गिरा दी और सीधा खड़ा हो गया।

तब उसने पूछा, ‘ज़ेन का उद्देश्य क्या है?’ इस पर उस आदमी ने बोरी उठाकर अपने कंधों पर डाल ली और चल दिया।

योग भी ऐसा ही है। सारे आध्यात्मिक अभ्यास ऐसे ही हैं। जब आप योग या ज़ेन की अवस्था प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको अपना बोझ गिरा देना होता है, रास्ते में हर चीज़ को छोड़ देना होता है, सबसे आज़ाद रहना होता है, और सीधे खड़े होना होता है। और योग का उद्देश्य क्या है? सचेतन होकर पूरे बोझ को एक बार फिर से उठा लेना। और अब यह बोझ जैसा नहीं लगता!



प्रतिष्ठा-विज्ञान

किसी स्थान को पवित्र बनाने या उसकी प्रतिष्ठा करने का क्या अर्थ है?

“प्रतिष्ठा” शब्द अकसर थोड़ी लापरवाही से इस्तेमाल होता है। अधिकांश लोगों के लिए इसका मतलब विस्तृत रीति-रस्मों को संपन्न करना है, जो हमारे जीवन को बहुत सुंदरता और कलात्मकता प्रदान करती हैं, लेकिन इसकी कोई असली उपयोगिता नहीं है। अधिकतर लोग मानते हैं कि यह बस बकवास है, जिसका मकसद आध्यात्मिक प्रक्रिया को उलझाना और अधिकांश भोले-भाले डरपोक लोगों का शोषण करना है। यही समय है कि हम इस सतही समझ को छोड़ें और गहराई में देखें।

अगर आप मिट्टी को भोजन में रूपांतरित करते हैं, तो हम उसे कृषि कहते हैं। अगर आप भोजन को मांस और हड्डी में बदलते हैं, तो हम उसे पाचन कहते हैं। अगर आप मांस को फिर से मिट्टी बना देते हैं, तो हम उसे दाह-संस्कार

कहते हैं। अगर आप इस मांस या किसी पत्थर या फिर किसी खाली स्थान को ईश्वरीय संभावना में बदल देते हैं, तो उसे प्रतिष्ठा कहते हैं।

प्रतिष्ठा एक जीवंत प्रक्रिया है। यह एक संस्कृत-शब्द है। जैसा कि हमने पहले चर्चा की है, आधुनिक विज्ञान हमें बताता है कि हर चीज़ बस एक ही ऊर्जा है, जो खुद को करोड़ों अलग-अलग तरीकों से अभिव्यक्त कर रही है। अगर ऐसा है, तो जिसे आप ईश्वर कहते हैं, जिसे आप पत्थर कहते हैं, जिसे आप आदमी या औरत कहते हैं या राक्षस कहते हैं, वे सभी अलग-अलग तरीकों से काम करती हुई एक ही ऊर्जा है। अगर आपके पास ज़रूरी तकनीक है, तो आप अपने आसपास के साधारण-से स्थान को एक ईश्वरीय ऊर्जा से सराबोर कर सकते हैं। आप बस एक चट्टान के टुकड़े को लेकर उसे देवी या देवता बना सकते हैं। इस प्रक्रिया को प्रतिष्ठा कहते हैं।

खासकर भारत में, प्राचीन समय से प्रतिष्ठा-प्रक्रिया के बारे में ज्ञान के एक विशाल भंडार को पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम रखा गया है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आपका जीवन चाहे जितना अच्छा क्यों न हो, या आप चाहे जितने समय तक क्यों न जीएँ, जीवन के एक मोड़ पर आपमें सृष्टि के स्रोत के संपर्क में आने की मौलिक लालसा अवश्य उठेगी। अगर इन गहरे आयामों तक पहुँचने की संभावना पैदा नहीं की जाती और हर खोजने वाले व्यक्ति को उपलब्ध नहीं कराई जाती, तो समाज को अपने नागरिकों के लिए असली खुशहाली प्रदान करने में असफल माना जाएगा।

इस जागरूकता की वजह से ही भारतीय संस्कृति में लोगों ने हर गली में मंदिर बनाए। इसके पीछे विचार मंदिरों के बीच होड़ पैदा करना नहीं था। सोच बस इतनी थी कि कोई भी ऐसे स्थान में न रहे, जो प्रतिष्ठित नहीं है।

किसी व्यक्ति के लिए प्रतिष्ठित स्थान में रहना एक बड़े सौभाग्य की बात होती है। जब आप ऐसा करते हैं, तब आपके जीने का तरीका बिलकुल अलग हो जाता है। आप पूछ सकते हैं, ‘क्या मैं उसके बिना नहीं रह सकता?’ आप रह सकते हैं। अगर आप जानते हैं कि आप अपने खुद के शरीर को मंदिर कैसे बनाएँ, तो मंदिर जाना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। हाँ, आप अपने शरीर की भी प्रतिष्ठा कर सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या आप उसे वैसा कायम रख पाते हैं?

सारी आध्यात्मिक दीक्षाएँ इस हाड़-मांस के शरीर को मंदिर की तरह प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से होती हैं; उसके बाद सिर्फ उसे कायम रखने की ज़रूरत होती है। दीक्षा के बाद हर दिन आध्यात्मिक अभ्यास करना अपने सिस्टम को जीवंतता की उच्च अवस्था में कायम रखने का एक तरीका है। कभी औपचारिक तौर पर, तो कभी अनौपचारिक तौर पर, मैंने समय-समय पर लोगों को शक्तिशाली रूप से प्रतिष्ठित किया है। एक निर्जीव वस्तु, जैसे कि एक पत्थर को प्रतिष्ठित करने में भारी मात्रा में जीवन की कीमत देनी होती है। इंसानों को जीवंत मंदिर बनाना काफी कम खर्चीला है और यह पर्यावरण के लिए अनुकूल है – और साथ ही, वे कहीं भी जा सकते हैं! हालाँकि फायदे कई हैं, लेकिन समस्या यह है कि व्यक्ति को इसे कायम रखने लिए कुछ खास मात्रा में समय, लगन और ऊर्जा लगानी पड़ती है, वरना यह काम नहीं करेगा।

जब दुनिया में लोग बहुत भटके हुए हों, और खुद को एक जीवंत मंदिर बनाने को अनिच्छुक हों, तब पत्थर के मंदिर बनाना आवश्यक हो जाता है। मंदिर बनाने का बुनियादी उद्देश्य उन अधिकांश लोगों को फायदा पहुँचाना है, जिनके जीवन में कोई आध्यात्मिक अभ्यास या साधना नहीं है। अगर कोई इस तरह के प्रतिष्ठित स्थान पर साधना कर सकता है, तो यह दोगुना फायदेमंद होता है। खासकर उनके लिए बाहरी मंदिर अनमोल होता है, जो अपने शरीर को मंदिर बनाना नहीं जानते।

प्रतिष्ठा अनेक तरीकों से की जाती है, लेकिन आम तौर पर इसके लिए विधि-विधान, मंत्र, ध्वनियों, रूपों और दूसरी कई चीज़ों का इस्तेमाल होता है। इसे लगातार देखरेख की ज़रूरत होती है। मंदिर में रीति-रस्म आपके लिए नहीं किए जाते; वे वहाँ पर स्थापित देवता या ऊर्जा-रूप को जीवंत रखने के लिए होते हैं। यह देवता क्या है? यह एक खास उद्देश्य के लिए, जीवन के विभिन्न पहलुओं में तृप्ति प्राप्त करने का साधन होता है। वास्तव में, देवता के लिए पारंपरिक शब्द “यंत्र” है, जिसका शाब्दिक अर्थ मशीन या एक कार्यशील ऊर्जा-रूप होता है। प्राचीन काल से लोगों से हमेशा कहा गया है कि घर में पत्थर की मूर्ति मत रखें। अगर आप उन्हें रखते हैं, तो हर दिन आपको सही तरीके की विधि-विधान प्रक्रिया द्वारा उनकी देखरेख करनी चाहिए। अगर किसी मूर्ति की प्रतिष्ठा मंत्रों से की गई है, और अगर हर दिन ज़रूरी देखरेख नहीं की जाती, तो मूर्ति की ऊर्जा घटने लगती है। इससे आसपास रहने वाले लोगों को भारी नुकसान पहुँच सकता है। दुर्भाग्य से, बहुत-से मंदिरों की दशा ऐसी ही हो गई है, क्योंकि लोगों ने मूर्ति की देखरेख सही तरीके से नहीं की, क्योंकि वे मूर्ति को जीवंत रखना नहीं जानते थे।

प्राण-प्रतिष्ठा इस मायने में अलग प्रक्रिया है, क्योंकि इसमें किसी चीज़ की प्रतिष्ठा के लिए आपकी अपनी जीवन-ऊर्जा इस्तेमाल होती है। जब आप इस विधि से किसी रूप को प्रतिष्ठित करते हैं, तब उसे किसी तरह के रखरखाव या देखभाल की ज़रूरत नहीं होती। यह शाश्वत होता है। जब मैंने ध्यानलिंग की प्रतिष्ठा करने का अपने जीवन का लक्ष्य पूरा किया, तब यह प्राण-प्रतिष्ठा के जरिये किया था। दक्षिण भारत में कोयंबटूर के ईशा योग केंद्र में 1999 में स्थापित ध्यानलिंग एक सूक्ष्म ऊर्जा-रूप है, जिसमें सारे चक्र अपनी तीव्रतम क्षमता पर काम कर रहे हैं। इसी कारण से वहाँ पर किसी तरह का अनुष्ठान या पूजा नहीं की जाती। इसकी ज़रूरत नहीं है। ध्यानलिंग को किसी रखरखाव की ज़रूरत नहीं, क्योंकि उसकी ऊर्जा कभी घटेगी-बढ़ेगी नहीं। अगर आप लिंग के पत्थर को हटा भी दें, तो भी वह वैसा ही रहेगा। समय के साथ धरती पर होने वाले भौतिक या भौगोलिक परिवर्तनों के बावजूद लिंग का ऊर्जा-स्वरूप गायब नहीं होगा! ऐसा इसलिए है, क्योंकि असली लिंग अभौतिक आयाम से बना है, वह नष्ट नहीं किया जा सकता।

भारत के मंदिर कभी प्रार्थना की जगह नहीं थे। परंपरा यह थी कि सुबह उठते ही आप सबसे पहले नहाते थे और सीधे मंदिर जाते थे, वहाँ कुछ देर बैठते थे, और उसके बाद ही अपना दिन शुरू करते थे। मंदिर बैट्री चार्ज करने के सार्वजनिक स्थल जैसा होता था। आजकल अधिकतर लोग यह भूल चुके हैं। वे बस मंदिर जाते हैं, कुछ माँगते हैं, फर्श पर एक सेकंड को बैठते हैं और बाहर आ आते हैं। इसका कोई तुक नहीं है। वहाँ जाने का मतलब है वहाँ की ऊर्जा को अपने अंदर आत्मसात करना।

कोयंबटूर के ध्यानलिंग मंदिर से इसका लाभ उठाने के लिए आपको किसी चीज़ में विश्वास करने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ कोई प्रार्थना करने, कुछ चढ़ावा चढ़ाने या रस्म निभाने की आवश्यकता नहीं है। आपको बस अपनी आँखें बंद करके कुछ देर के लिए बैठने के लिए कहा जाता है। अगर आप स्वयं आजमाते हैं, तो आप पाएँगे कि यह एक ज़बरदस्त अनुभव होता है। ध्यानलिंग तीव्रता का वह उच्चतम स्तर है, जिसे कोई रूप या आकृति प्राप्त कर सकती है। यहाँ तक कि अगर कोई व्यक्ति, जिसे ध्यान के बारे में कुछ भी मालूम नहीं, वहाँ आकर बैठता है, तो वह अपने आप ध्यान की अवस्था में चला जाएगा। यह इस तरह का अद्भुत साधन है।

अगर मुझे आवश्यक समर्थन और मौका मिले, तो मैं पूरी धरती को ही प्रतिष्ठित करना चाहूँगा। मैं इसी चीज़ में निपुण हूँ : तरल हवा को एक बहुत शक्तिशाली जीवंत स्थान में बदलने में, धातु या पत्थर के टुकड़े को ईश्वरीय स्पंदन में बदलने में। मेरा स्वप्न है कि एक दिन पूरी मानवता को प्रतिष्ठित वातावरण में रहना चाहिए। आपके घर को प्रतिष्ठित होना चाहिए, आपकी सड़क को प्रतिष्ठित होना चाहिए, आपके ऑफिस को प्रतिष्ठित होना चाहिए। वे सारे स्थान प्रतिष्ठित होने चाहिए, जहाँ आप अपना समय बिताते हैं। जब आप ऐसे स्थान में रहते हैं, तब आपके विकास को डार्विन जैसे किसी पैमाने के अनुसार होने की ज़रूरत नहीं है; आप सीधे ही परम खुशहाली और आज़ादी की अवस्था की ओर लंबी छलाँग लगा सकते हैं।

भारत में अधिकतर प्राचीन मंदिर शिव के लिए बनाए गए थे – शिव यानी “वह जो नहीं है।” देश में हजारों शिव-मंदिर हैं, और उनमें से अधिकतर में कोई मूर्ति नहीं है। उनमें प्रतीक के तौर पर एक लिंग मौजूद है।

“लिंग” शब्द का मतलब है “आकार या रूप” जब सृष्टि की शुरुआत हुई, या जब निराकार ने आकार लेना शुरू किया, तब इसका सबसे पहला आकार एक दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) यानी तीन-आयामी दीर्घ-वृत्त का था, जिसे हम लिंग कहते हैं। यह दीर्घवृत्ताभ के रूप में शुरू हुआ, और फिर इसने कई दूसरे आकार और रूप ले लिए। अगर आप गहन ध्यान की अवस्था में चले जाते हैं, तो आप पाएँगे कि पूर्ण विसर्जन से ठीक पहले, ऊर्जा एक बार फिर लिंग का रूप ले लेती है। आधुनिक ब्रह्मांड-विज्ञानियों ने यह पता लगाया है कि हर आकाशगंगा का केंद्र हमेशा एक दीर्घवृत्ताभ होता है।

तो, आम तौर पर योग में लिंग को एक परिपूर्ण रूप यानी अस्तित्व का बुनियादी रूप माना जाता है। पहला और आखिरी रूप लिंग ही होता है। इन दोनों के बीच में सृष्टि बनती है। उससे परे जो है, “वह जो नहीं है”, वही शिव है। तो, लिंग का रूप सृष्टि की संरचना में एक छेद या द्वार है। भौतिक सृष्टि के लिए पीछे का द्वार लिंग होता है और सामने का द्वार भी लिंग होता है! यही चीज़ मंदिर को भौतिक की संरचना का द्वार बना देती है। आप इसमें विसर्जित हो सकते हैं और पार जा सकते हैं : यही बात इसे इतनी ज़बरदस्त संभावना बनाती है।

एक रोचक बात यह है कि लिंग दुनिया में बहुत जगहों पर मिलते हैं। अफ्रीका में मिट्टी के लिंग हैं, जो अधिकतर गुह्य-विद्या के लिए इस्तेमाल होते हैं। डेल्फी में ज़मीन के नीचे एक लिंग है, जिसे धरती की नाभि कहते हैं। यह विशुद्ध रूप से मणिपूरक लिंग है, समृद्धि और भौतिक खुशहाली के लिए। जब किसी ने मुझे इसकी तसवीर दिखाई, तो मैं तुरंत जान गया कि किस तरह के लोगों ने इसे प्रतिष्ठित किया होगा। यह अवश्य ही भारतीय योगियों द्वारा हजारों साल पहले किया गया था; इसमें कोई संदेह नहीं है।

जब मैंने टेनेसी में 2015 में योग के प्रवर्तक आदियोगी को प्रतिष्ठित किया था, तो उसे पश्चिमी दुनिया में पारंपरिक योग के लिए ऐतिहासिक घटना और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना गया। दिलचस्पी के तमाम प्राचीन स्थानों को देखने के बाद मुझे पक्का यकीन है कि ऊर्जा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इस किस्म की कोई घटना उत्तरी अमेरिका या वास्तव में पश्चिमी गोलार्ध में पिछले तीन हजार सालों में नहीं हुई। प्राण-प्रतिष्ठा प्रक्रिया के जरिये प्रतिष्ठित यह स्थान सबसे पहले योगी, आदियोगी के लिए श्रद्धांजलि है। पूरी तरह से योग-साधना और अभ्यास के लिए समर्पित यह स्थान उच्चतम स्तर के ऊर्जावान कंपन और प्रचुरता का जीवंत भंडार है। यह पश्चिम के साधकों के लिए अनोखी आध्यात्मिक संभावना प्रस्तुत करता है।

अभी भारत में अधिकतर लिंगों में एक या ज़्यादा-से-ज़्यादा दो चक्र सक्रिय होते हैं। वे हमेशा भौतिक खुशहाली के लिए प्रतिष्ठित किए गए थे। शांति और आनंद बढ़ाने के लिए कुछ अनाहत लिंग भी हैं। ध्यानलिंग इस मायने में अनोखा है कि इसमें सभी सात चक्र ऊर्जा के अपने चरम स्तर पर हैं। सात चक्रों के लिए सात अलग-अलग लिंग बनाना काफी आसान होता, लेकिन उनका असर इतना नहीं होता। तो, ध्यानलिंग सर्वोच्च विकसित प्राणी के ऊर्जा-शरीर की तरह है (पारंपरिक तौर पर जिन्हें शिव कहते हैं), जो अनंतकाल तक सभी के लिए उपलब्ध रहेगा। यह सर्वोच्च अभिव्यक्ति है, जो संभव हो सकती है।

अगर आप ऊर्जा को तीव्रता के सर्वोच्च स्तर तक ले जाते हैं, तो वह एक खास सीमा तक ही रूप बनाए रह सकती है। इसके बाद वह निराकार हो जाती है और अधिकतर लोग उसे अनुभव करने में असमर्थ होते हैं। ध्यानलिंग की प्रतिष्ठा इस तरह से की गई है कि उसमें ऊर्जा को उस सर्वोच्च शिखर तक घनीभूत किया गया है, जिसके बाद कोई आकार नहीं बचेगा। इसका निर्माण इसलिए किया गया था, ताकि हर उस साधक को एक जीवंत गुरु के सान्निध्य में बैठने का मौका उपलब्ध हो, जिसमें इसकी लालसा है।

सबसे बढ़कर, जो बात ध्यानलिंग को एक अभूतपूर्व आध्यात्मिक संभावना बनाती है, वह यह है कि यह जीवन को उसकी पूरी गहनता और पूर्णता में अनुभव करने का अवसर देता है। जो व्यक्ति इसके आभा-मंडल में आता है, वह आकाशीय शरीर या विज्ञानमय-कोष के स्तर पर प्रभावित होता है। अगर आप भौतिक, मानसिक या ऊर्जा-शरीर के माध्यम से कुछ रूपांतरण लाते हैं, तो वह जीवन के दौर में खत्म हो सकता है। लेकिन एक बार जब आपको आकाशीय शरीर के स्तर पर छुआ जाता है, तो यह हमेशा के लिए होता है। अगर आप कई जीवन-कालों से होकर भी गुजरते हैं, फिर भी मुक्ति का यह बीज अंकुरित होने और खिलने के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा करेगा।

साढ़े तीन साल की बहुत गहन प्रतिष्ठा-प्रक्रिया के बाद मैंने ध्यानलिंग को पूरा किया। कई योगियों और सिद्ध-पुरुषों ने इस तरह के लिंग का सृजन करने की कोशिश की थी, लेकिन विभिन्न कारणों से, सारे ज़रूरी तत्त्व एक-साथ नहीं जुटाए जा सके। यह मेरी इच्छा नहीं थी; यह मेरे गुरु की इच्छा थी। हालाँकि मेरे गुरु के साथ मेरा संपर्क क्षणभर को ही था, फिर भी यह हर रूप में प्रभावशाली था। इसने मेरे जीवन का हर कदम निर्धारित किया है, यहाँ तक कि मेरा जन्म भी। मेरे गुरु की कृपा से और तमाम ऐसे लोगों के प्रेम, सहयोग और समझ से – जिन्होंने जाने में या अनजाने में, इच्छा से या अनिच्छा से, सचेतन रूप से या अचेतन रूप से खुद को इसके लिए अर्पित कर दिया – ध्यानलिंग अंततः पूरा हो चुका है। मैं उन सब लोगों का आभारी हूँ।



॥साधना॥



अगर आप पाँच तत्त्वों को एक खास सरल संरचना में इस्तेमाल करना सीख लेते हैं, तो आप अपने लिए एक बहुत लाभदायक ऊर्जा-क्षेत्र बना सकते हैं। यहाँ पर एक आसान विधि दी गई है, जिसे आप आजमा सकते हैं।

नीचे दी गई आकृति को चावल या किसी दूसरे अन्न के आटे से बनाइए। इसके केंद्र में पानी से भरी थाली में एक घी का दीया रखिए। पानी में एक फूल रखिए। आपने अब पानी, अग्नि और वायु से एक ज्यामितीय आकृति बना ली है। पानी में रखा फूल धरती को दर्शाता है। आकाश या ईथर निसंदेह हमेशा उपस्थित रहता है।



इस आसान प्रक्रिया को हर शाम को कीजिए। आप पाएँगे कि आपके कमरे की ऊर्जा एक सूक्ष्म किंतु शक्तिशाली तरीके से बदल गई है। इस तरीके से, आप अपने घर या ऑफिस को हर दिन अनोखे तरीके से सशक्त कर सकते हैं।

दिव्य-ऊर्जा से सराबोर पहाड़

अधिकतर योगियों और दिव्यदर्शियों के लिए समस्या यह रही है कि वे अपने बोध का फल अपने आसपास के लोगों के साथ कभी बाँट नहीं सके। ऐसे व्यक्ति को खोजना आसान नहीं है, जो उसे ग्रहण करने के योग्य हो, जो चीज़ आप जानते हैं। अगर आपको एक भी व्यक्ति मिल जाता है, तो आप भाग्यशाली हैं।

तो, अधिकतर आध्यात्मिक गुरुओं ने अपने ज्ञान को कुछ खास जगहों पर ही जमा किया है। ये निर्जन स्थान थे, लेकिन पूरी तरह से दुर्गम नहीं थे। उन्होंने अकसर पहाड़ की चोटियाँ चुनीं, क्योंकि ऐसी जगहों पर लोगों का आना-जाना और व्यवधान कम होता है। भारत में इस तरह के कई शानदार स्थान हैं। कैलाश पर्वत (पश्चिमी तिब्बत में एक पर्वत की चोटी, जिसे अथाह शक्तिशाली और प्राचीनतम पवित्र स्थान माना जाता है) एक ऐसा स्थान है, जहाँ बहुत लंबे समय से ज्ञान का सर्वाधिक भंडार ऊर्जा के रूप में संचित है।

कैलाश इस धरती पर रहस्यमय ज्ञान का महानतम पुस्तकालय है। पूर्व के लगभग सभी धर्म उसे बहुत पवित्र मानते हैं। हिंदुओं में पारंपरिक तौर पर माना जाता है कि यह परमेश्वर शिव और उनकी पत्नी पार्वती का निवास है। बौद्ध लोग उसे इसलिए पवित्र मानते हैं, क्योंकि माना जाता है कि उनके तीन महान बुद्ध वहाँ रहते हैं। जैनियों का मानना है कि उनके पहले गुरु या तीर्थंकर ने वहीं पर मुक्ति प्राप्त की थी। तिब्बत का मूल धर्म बॉन भी उसे बहुत पवित्र स्थान मानता है।

पिछले ग्यारह सालों से मैं तीर्थ-यात्रियों को अपने साथ लेकर कैलाश जाता रहा हूँ। जब मैं 2007 में वहाँ गया था, तब मेरा स्वास्थ्य खास तौर पर खराब था। मैं कई हफ्तों से बिना रुके यात्रा कर रहा था, जिसके दौरान दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चकराए हुए डॉक्टरों ने मुझे कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त बताया, जिसमें मलेरिया, डेंगू, टाइफाइड और कैंसर तक शामिल था। हैरान डॉक्टरों ने मेरे खून की रिपोर्ट को रहस्यमय करार दे दिया था। अंत में, मैंने अपने अंदर झाँकने और खुद के ऊपर काम करने का निश्चय किया। कुछ दिनों बाद मैं कैलाश गया। इस वक्त तक मैं थोड़ा ठीक हो गया था, लेकिन फिर भी बहुत कमजोर था। जब मैंने कैलाश पर्वत को देखा, तो पाया कि वहाँ बहुत अधिक दिव्य या रहस्यमय ज्ञान पाए जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। तो मैंने कैलाश से ऊर्जा की एक लड़ी ली और उसे अपने ऊर्जा-तंत्र से एक खास तरह से जोड़ दिया। जैसे ही मैंने वह किया, मेरे अंदर जीवंतता का अचानक उफान आ गया और मेरा जर्जर ऊर्जा-शरीर, जो आठ हफ्तों के बुखार से लगभग नष्ट हो गया था, पुनः सामान्य हो गया। मैं जवान दिखने लगा, जवान महसूस करने लगा, यहाँ तक कि मेरी आवाज भी बदल गई – वह भी बस लगभग एक ही घंटे में! बदलाव साफ दिख रहे थे। वहाँ आसपास लगभग दो सौ लोग मौजूद थे, जिन्होंने यह होते हुए देखा।

ज़बरदस्त ऊर्जा-स्पंदनों वाली ऐसी दूसरी जगहें भी हैं, जहाँ दिव्यदर्शियों ने अपनी आध्यात्मिक साधना का फल स्थापित किया है। हिमालय में ऐसे अनगिनत स्थान हैं। अनेक तरह के दिव्यदर्शियों और योगियों ने इन पर्वतों को अपना आवास चुना था। वे जब वहाँ रहे, तो उन्होंने स्वाभाविक रूप से ऊर्जा का एक खास आयाम पीछे छोड़ दिया, और उसके फलस्वरूप, हिमालय में एक खास तरह का आभामंडल इकट्ठा हो गया।

मिसाल के लिए, केदारनाथ हिमालय पर बस एक छोटा-सा मंदिर है। वहाँ कोई देवी-देवता की मूर्ति नहीं है। यह बस एक उभरी हुई चट्टान जैसा है, लेकिन यह दुनिया के सबसे शक्तिशाली स्थानों में से एक है! अगर आप अपनी ग्रहणशीलता बढ़ाने का प्रयास करते हैं और फिर उस तरह की जगह पर जाते हैं, तो वह ऊर्जा आपको बस झकझोर देगी। पूर्व में ऐसे कई स्थान हैं, लेकिन हिमालय ने सबसे ज़्यादा लोगों को आकर्षित किया है।

भारत के दक्षिणी राज्य कर्नाटक में कुमार पर्वत भी ऐसा ही स्थान है। “पर्वत” का मतलब है “पहाड़” और “कुमार” शिव के पुत्र कार्तिकेय का नाम है। उन्होंने दुनिया का रूपांतरण करने की कोशिश में कई लड़ाइयाँ लड़ीं, लेकिन जब उन्हें इसकी निरर्थकता का एहसास हुआ, तो वे इस इलाके में आए। यहीं पर उन्होंने अपनी तलवार पर लगे खून को आखिरी बार धोया था। उन्होंने तय किया कि अगर वे एक हजार साल तक भी लड़ते रहे, तो भी वे इस दुनिया को नहीं बदल पाएँगे; हिंसा से एक हल निकालने में दस नई समस्याएँ पैदा हो जाएँगी। तो वे पहाड़ के ऊपर जाकर उसकी चोटी पर खड़े हो गए। आम तौर पर जब कोई योगी अपने शरीर को त्यागना चाहता है, तो वह या तो बैठ जाएगा या लेट जाएगा, लेकिन चूँकि कार्तिकेय एक महान योद्धा थे, तो वे खड़े रहे और खड़े-खड़े ही अपना शरीर त्याग दिया।

अगर कोई अपने शरीर को बिना कोई नुकसान पहुँचाए उसे त्याग सकता है, तो यह इस बात का संकेत है कि जीवन-प्रक्रिया पर उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त है। भारतीय परंपरा में इसे आम तौर पर महासमाधि कहते हैं।

कई साल पहले जब मैं कुमार पर्वत पर गया था, तब वहाँ मेरे लिए एक छोटा-सा तंबू लगाया गया। मैं उसमें सोना चाहता था, लेकिन जब मैं उसके अंदर गया और लेटने की कोशिश की, तब अनायास ही मेरा शरीर खड़ी हुई स्थिति में आ गया, और तंबू गिर गया। मैं पूरी रात बैठ नहीं पाया, मेरा शरीर केवल खड़ी स्थिति में रह पा रहा था। तब मुझे यह आभास होने लगा कि कार्तिकेय के जीवन का क्या मकसद था। हालाँकि वे हजारों साल पहले इस धरती पर रहे थे, लेकिन उन्होंने जो-कुछ पीछे छोड़ा, उसका स्पंदन अब भी उतना ही जीवंत है।

इस तरह के कार्य को कभी मिटाया नहीं जा सकता। जहाँ पर भी कोई व्यक्ति अपनी जीवन-ऊर्जाओं से कुछ करता है, तो वह एक खास संभावना पैदा करता है, जिसे किसी घटना द्वारा नहीं मिटाया जा सकता। जिस व्यक्ति ने अपने आंतरिक आयाम से थोड़े-बहुत भी प्रयोग किए हैं, उसके काम और मौजूदगी को कभी नष्ट नहीं किया जा सकता।

उदाहरण के लिए, माना जाता है कि गौतम बुद्ध 2500 साल पहले हुए थे, और ईसा मसीह 2000 साल पहले हुए थे। लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है, मेरे लिए वे अभी भी जीवंत वास्तविकता हैं। एक बार जब आप अपनी जीवन-ऊर्जा के साथ एक खास मात्रा में कार्य कर लेते हैं, तो सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए वह कार्य स्थायी होता है और समय भी उसे नष्ट नहीं कर सकता। अगर आप अपने हाड़-मांस के शरीर से काम करते हैं, तो उसका जीवन-काल सीमित होता है। अगर आप अपने दिमाग का इस्तेमाल करके दुनिया में कुछ करते हैं, तो उसका जीवन-काल काफी लंबा होता है। लेकिन अगर आप अपनी मौलिक जीवन-ऊर्जा से कार्य करते हैं, तो वह शाश्वत होता है।

रुपहली पर्वत-चोटियाँ

मेरे शैशवकाल से ही मेरी आँखों में हमेशा पहाड़ बसते थे। जब मैं लगभग सोलह साल का हुआ, तब मैंने अपने दोस्तों से पहली बार इसका जिक्र किया तो उन्होंने कहा, ‘तुम पागल हो क्या! पहाड़ कहाँ हैं?’ तब मुझे एहसास हुआ कि मेरे सिवाय और किसी की दृष्टि में पहाड़ मौजूद नहीं हैं! कुछ समय तक तो मैंने सोचा कि यह पता लगाऊँ कि वे कहाँ है, लेकिन फिर मैंने वह विचार छोड़ दिया।

मान लीजिए कि आपके चश्मे पर एक दाग है, कुछ देर बाद आपको उसकी आदत पड़ जाती है। मेरी पहाड़ की चोटियों के साथ कुछ ऐसा ही था। बहुत बाद में जाकर, जब मेरे पिछले जन्मों की मेरी यादें वापस आईं, और जब मैं ध्यानलिंग की स्थापना के लिए एक उचित जगह तलाश रहा था, तब मैंने आँखों में बसी उस खास चोटी को खोजना शुरू किया।

उसे खोजते हुए मैं हर तरफ़ गया। मैंने लगभग ग्यारह बार अपनी मोटरसाइकिल से गोवा से कन्याकुमारी की 760 मील की यात्रा तय की। हर कच्ची-पक्की सड़क पर मैं लगभग हजारों किलोमीटर की यात्रा कर चुका था।

फिर कई साल बाद, बस संयोग से एक दिन मैं कोयंबटूर के बाहर एक गाँव में पहुँचा। मैं जब एक मोड़ पर गाड़ी चला रहा था, तब मुझे वेलिंगिरि पहाड़ों की सातवीं पहाड़ी दिखी – वह पहाड़ी ठीक मेरे सामने वहीं पर थी, जिसको मैं बचपन से अपनी आँखों में देखता आया था। जिस पल मैंने उस चोटी पर अपनी दृष्टि जमाई – जो मेरे भीतर पूरे जीवन भर रही थी – वह मेरी आंतरिक दृष्टि से गायब हो गई और जीती-जागती वास्तविकता बन गई। अचानक मैं जान गया कि यह मेरे जीवन के कार्य के लिए सबसे अनुकूल स्थान होगा।

अगर आप मुझसे पूछें, ‘इस धरती पर सबसे महान पर्वत कौन-सा है?’ तो मैं हमेशा यही जवाब दूँगा, “वेलिंगिरि।” मैं अपनी आँखों में इस पर्वत की एक छवि लिए पैदा हुआ था और उसने मुझे तभी से परेशान कर रखा था। वह मेरे अंदर रह रहा था और मेरे खुद के नेविगेशन सिस्टम, मेरे आंतरिक राडार का काम कर रहा था। मेरे लिए यह पर्वत केवल एक भौगोलिक वस्तु नहीं है; वह उस संपूर्ण ज्ञान का भंडार है, जिसकी ज़रूरत मुझे ध्यानलिंग बनाने के लिए थी।

“वेलिंगिरि” शब्द का अर्थ है “रुपहला चाँदी का पहाड़,”और इस पर्वत-श्रृंखला का यह नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि ये पहाड़ पूरे साल अधिकतर समय बादलों से ढके रहते हैं। वेलिंगिरि के पहाड़ों को “दक्षिण का कैलाश” भी कहा जाता है, क्योंकि खुद आदियोगी शिव ने तीन महीने से भी अधिक लंबा समय उस पहाड़ की चोटियों पर बिताया था। वे जब यहाँ आए थे, तब वे अपनी सामान्य परमानंद की अवस्था में नहीं थे। (किंवदंतियों के अनुसार, वे स्वयं से नाराज थे, क्योंकि वे अपनी सबसे अधिक समर्पित स्त्री-भक्तों में से एक को दिया हुआ वचन पूरा नहीं कर सके थे।) वे प्रचंड और उदास थे, और वह ऊर्जा आज भी महसूस की जा सकती है। यहाँ से इस परंपरा ने कई योगी दिए, जो क्रोधी प्रकृति के हुए। उन्होंने यहाँ आध्यात्मिक साधना की और वह गुण उनमें भी आ गया। वे किसी खास बात के लिए क्रोध में नहीं थे; वे बस तीव्रता की एक खास अवस्था में थे।

सबसे बढ़कर, यह पहाड़ मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि यहीं पर मेरे गुरु ने शरीर छोड़ा था। इस योग-परंपरा में यह पहाड़ हमारे लिए एक मंदिर, एक जीवंत पवित्र स्थल की तरह है – दिव्यता के प्रवाह और कृपा के झरने की तरह।



समाधि और आत्मज्ञान

कुछ लोगों में रहस्यमय अनुभवों को लेकर बहुत जिज्ञासा होती है। कई लोग असामान्य अनुभव प्राप्त होने का दावा करते हैं, जिसे वे अपने आध्यात्मिक विकास के प्रमाण के रूप में बताते हैं।

इन दिनों लोगों के आध्यात्मिक शब्दकोष में “समाधि” एक आम शब्द है, जिसे रहस्यमय उपलब्धि के प्रमाणपत्र की तरह देखा जाता है।

यह समाधि वास्तव में है क्या?

समाधि समभाव की एक खास अवस्था है, जिसमें बुद्धि अंतर करने के अपने सामान्य तरीके से परे चली जाती है। इसके फलस्वरूप, समाधि भौतिक शरीर पर किसी इंसान की पकड़ को इस तरह ढीला करती है, कि आपके और आपके शरीर के बीच एक दूरी बन जाती है।

समाधियाँ कई तरह की होती हैं। समझने के लिए इन्हें आठ किस्मों में बाँटा गया है। ये आठ प्रकार वास्तव में दो मोटे वर्गों में आते हैं : सविकल्प समाधि (ऐसी समाधियाँ जो बहुत सुखद, आनंदमय और परमानंद जैसे लक्षण या गुण वाली हों); और निर्विकल्प समाधि (ऐसी समाधियाँ जो सुखद और दु:खद से परे, किसी लक्षण या गुण से रहित हों)। निर्विकल्प समाधि में शरीर से सिर्फ एक बिंदु पर संपर्क रहता है। बाकी की ऊर्जा ढीली और भौतिक शरीर के साथ शामिल नहीं रहती। ऐसी अवस्थाओं को कुछ समय के लिए बनाकर रखा जाता है, जिससे आपके और आपके शरीर के बीच अंतर स्थापित होने में सहायता मिले।

किसी के भी आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर समाधि एक महत्त्वपूर्ण कदम है, लेकिन फिर भी, यह अंतिम लक्ष्य नहीं होती। किसी खास तरह की समाधि का अनुभव कर लेने का मतलब यह नहीं है कि आप अस्तित्व के चक्र से मुक्त हो गए। यह बस अनुभव का एक नया स्तर होता है। यह कुछ ऐसा है कि जब आप बच्चे थे, तब आपने जीवन को एक खास तरह से अनुभव किया था। जब आप वयस्क हो जाते हैं, तो आपके अनुभव का स्तर अलग हो जाता है। आप अपने जीवन में अलग-अलग मुकाम पर उन्हीं चीज़ों को बिलकुल अलग तरीके से अनुभव करते हैं। समाधियाँ बस उसी तरह होती हैं।

कुछ लोग समाधि के किसी खास स्तर में जा सकते हैं और कई सालों तक उसी अवस्था में बने रह सकते हैं, क्योंकि यह सुखद होती है। इस अवस्था में न तो कोई स्थान और न ही कोई समय रह जाता है, और न ही कोई शारीरिक समस्या, क्योंकि कुछ हद तक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बाधाएँ टूट जाती हैं। लेकिन यह सिर्फ अस्थायी होता है। जैसे ही वे इस अवस्था से बाहर आते हैं, सारी शारीरिक आवश्यकताएँ और मानसिक आदतें फिर से लौट आती हैं।

आम तौर पर, पूरे होशो-हवास वाले की तुलना में, हलका नशा किए इंसान के उल्लास और अनुभव का स्तर अलग होता है। लेकिन उसे किसी न किसी वक्त नीचे उतरना होता है। सारी समाधियाँ, बिना किसी बाहरी रसायन के, नशे की अवस्था में जाने का तरीका हैं। अगर आप इन अवस्थाओं में जाते हैं, तो आपके लिए एक नया आयाम खुल जाता है। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह आपको स्थायी रूप से रूपांतरित नहीं करता। आप किसी दूसरी वास्तविकता में नहीं पहुँचे हैं। आपके अनुभव का स्तर और गहरा हो गया है, लेकिन सही अर्थ में, आप मुक्त नहीं हुए हैं।

ज़्यादातर आत्मज्ञानी लोग कभी समाधि की अवस्था में नहीं बने रहे। गौतम बुद्ध ने अपने आत्मज्ञान के बाद सालों तक कभी बैठकर ध्यान नहीं किया। उनके कई शिष्य बरसों तक लंबे ध्यान में रहे, लेकिन गौतम ने खुद कभी ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्हें यह एहसास हो गया होगा कि यह उनके लिए ज़रूरी नहीं है। आत्मज्ञान प्राप्त करने से पहले उन्होंने सभी आठ तरह की समाधियों का अभ्यास और अनुभव किया था, और फिर उन्हें छोड़ भी दिया। उन्होंने कहा, ‘यह वह नहीं है, जो मैं चाहता हूँ’ वे जानते थे कि इनसे उन्हें आत्मज्ञान नहीं मिलेगा। समाधि अनुभव का सिर्फ एक उच्च स्तर है, एक तरह की आंतरिक एल.एस.डी., बिना किसी बाहरी पदार्थ के। इससे बोध का स्तर बदल जाता है। इसमें खतरा यह है कि आप इसी में अटक सकते हैं, क्योंकि यह मौजूदा सच्चाई से कहीं ज़्यादा सुंदर होती है, लेकिन जैसा कि हम जानते हैं, सबसे सुंदर अनुभव भी समय के साथ उबाऊ बन सकता है।

अगर आपने अपने जीवन में आत्मज्ञान को सर्वोच्च प्राथमिकता बना लिया है, तो हर वो चीज़ बेकार है, जो आपको एक और कदम अपनी चरम आज़ादी के पास नहीं ले जाती। मान लीजिए, आप एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ाई कर रहे हैं : तो आप एक भी कदम इधर-उधर नहीं ले जाएँगे, क्योंकि चोटी तक पहुँचने के लिए ऊर्जा की हर बूँद की ज़रूरत है। अब अगर आपको अपनी चेतना के शिखर पर पहुँचना है, तो आपको ऊर्जा के हर कतरे की ज़रूरत पड़ेगी, जो आप जुटा सकते हैं। फिर भी वह काफी नहीं है! अब, आप ऐसा कोई काम नहीं करना चाहेंगे, जो आपको मुख्य लक्ष्य से भटका दे।

आप पूछ सकते हैं कि यह आत्मज्ञान क्या है? आखिरकार, ज़्यादातर लोग जो चाह रहे हैं, वो बस अच्छी सेहत, खुशहाली, पैसा, प्रेम और सफलता है। क्या आपको वाकई आत्मज्ञान की ज़रूरत है?

आइए, इस पर सबसे आसान तरीके से ग़ौर करते हैं। क्या यह सच नहीं कि आप अपने कंप्यूटर के बारे में जितना ज़्यादा जानते हैं, आप उसे उतनी ही अच्छी तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं? क्या यह सच नहीं कि आपके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हर चीज़ या यंत्र को उसकी पूरी क्षमता से इस्तेमाल कर पाना उसके बारे में आपकी जानकारी पर निर्भर करता है? क्या यह सच नहीं कि उच्च स्तर की बुद्धिमत्ता और निपुणता वाला व्यक्ति एक साधारण-से यंत्र का भी जादुई तरीके से इस्तेमाल कर सकता है? क्या आपने कुछ लोगों को एक प्लास्टिक के टुकड़े पर सवार होकर, जिसे सर्फ-बोर्ड कहते हैं, आश्चर्यजनक चीज़ें करते देखा है? वह बस एक प्लास्टिक का टुकड़ा है, और वे उससे कैसे-कैसे फुरतीले और सुंदर करतब करते हैं!

इसी तरह से, मनुष्य के शरीर-तंत्र के कार्य करने के तरीके को आप जितनी गहराई से समझेंगे, आपका जीवन उतना ही जादुई होगा। हर संस्कृति में कुछ लोग ऐसे हुए हैं, जिन्होंने कुछ ऐसे कार्य किए, जिसकी वजह से दूसरे लोग चमत्कार में विश्वास करने लगे। ये सारे कार्य, जिन्हें चमत्कार माना जाता है, बस उन लोगों की जीवन तक अधिक गहरी पहुँच होने का नतीजा हैं। जैसा कि मैंने बार-बार कहा है, वह पहुँच हर किसी को उपलब्ध है, जो गहराई में देखने और खोज करने को तैयार है।

तंत्र : रूपांतरण की तकनीक

आजकल गुह्य-विज्ञान (ऑकल्ट साइंसेज) से जुड़ी कई प्रक्रियाओं पर आध्यात्मिक प्रक्रिया का मुखौटा लगा दिया जाता है।

मान लीजिए, मैं भारत में हूँ और आप अमेरिका में। मैं आपके पास फूल भेजना चाहता हूँ, लेकिन मैं कोलंबस की तरह यात्रा नहीं करना चाहता। अगर मैं उस फूल को अचानक आपकी गोद में पहुँचा देता हूँ, तो यह गुह्य-विद्या होगी। इसमें कुछ भी आध्यात्मिक नहीं है; यह बस जीवन के भौतिक आयाम को सँभालने का एक और तरीका है।

भारत में, हमारे पास कई जटिल और परिष्कृत गुह्य-प्रक्रियाएँ हैं। ऐसे कई लोग हैं, जो बस एक फोटो देखकर उस व्यक्ति के जीवन को बना या बिगाड़ सकते हैं। वे यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि उस व्यक्ति को कोई ऐसी बीमारी पकड़ ले, जो आम तौर पर इतने कम समय में शरीर में नहीं हो सकती। ये गुह्य-विद्या का अभ्यास करने वाले सेहत को सुधार भी सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उनमें से ज़्यादातर लोग अपनी क्षमता का इस्तेमाल बुरा काम करने के लिए ही करते हैं, क्योंकि इन नकारात्मक क्षमताओं की बाजार में अधिक माँग है। बहरहाल, चाहे इसे सेहत बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाए या सेहत सुधारने के लिए – मुद्दा यह नहीं है – गुह्य-विद्या का इस्तेमाल निजी लक्ष्य-प्राप्ति के लिए अनुचित है।

योग-परंपरा प्रसिद्ध योगी गोरखनाथ के किस्सों से भरी पड़ी है। लोग कहते हैं कि वे ग्यारहवीं शताब्दी में हुए थे, लेकिन कई ऐसे ग्रंथ हैं जो उन्हें काफी पहले का बताते हैं। वे एक महान योगी मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। मत्स्येंद्रनाथ की उपलब्धियाँ इतने ऊँचे स्तर की थीं कि उनको अकसर शिव या आदियोगी के अवतार के रूप में पूजा जाता था। कथाएँ बताती हैं कि मत्स्येंद्रनाथ लगभग 600 साल तक जीवित रहे। इसे न तो अक्षरशः लेने की ज़रूरत है और न ही अतिशयोक्ति मानकर नकारने की। यह बस इतना बताता है कि उनका जीवन-काल असाधारण रूप से लंबा था और उन्हें कितने अधिक आदर के साथ देखा जाता था।

गोरखनाथ उनके शिष्य बन गए। वे अपने गुरु पर बहुत श्रद्धा रखते थे और उन्हें पूजते थे। गोरखनाथ आग की तरह प्रचंड थे। मत्स्येंद्रनाथ जानते थे कि गोरखनाथ में आग ज़्यादा और नियंत्रण कम है। आग कई चीज़ों को जला देती है। गोरखनाथ अज्ञानता के दायरे में जलने लगे, और अचानक उन्हें बहुत ज़्यादा शक्ति प्राप्त हो गई। मत्स्येंद्रनाथ ने देखा कि गोरखनाथ अपनी क्षमता से ज़्यादा आगे निकलने लगे हैं, तो उन्होंने उनसे कहा, ‘चौदह साल के लिए कहीं चले जाओ। मेरे पास मत रहो। तुम मुझसे कुछ ज़्यादा ही ग्रहण करने लगे हो।’

गोरखनाथ के लिए ऐसा करना सबसे कठिन चीज़ थी। अगर मत्स्येंद्रनाथ ने कहा होता, ‘अपने प्राण दे दो,’ तो वे एक पल में प्राण त्याग देते, लेकिन ‘चले जाओ’ एक ऐसी चीज़ थी, जो वे सहन नहीं कर सके। लेकिन चूँकि उन्हें यही आदेश मिला था, तो वे चले गए।

वे चौदह साल तक एक-एक करके दिन काटते हुए वापस लौटने के दिन का इंतजार करते रहे। जैसे ही वह अवधि खत्म हुई, वे तुरंत वापस लौटे। जब वे आए, तो उन्होंने पाया कि मत्स्येंद्रनाथ जिस गुफा में रहते थे, उसकी रखवाली एक शिष्य-योगी कर रहा था। गोरखनाथ ने कहा, ‘मैं अपने गुरु से मिलना चाहता हूँ!’

गुफा की रखवाली करने वाले योगी ने कहा, ‘मुझे ऐसे कोई निर्देश नहीं मिले हैं, इसलिए बेहतर होगा कि आप प्रतीक्षा करें।’

गोरखनाथ भड़क गए। उन्होंने कहा, ‘अरे मूर्ख, मैंने चौदह साल इंतजार किया है, मैं नहीं जानता कि तुम यहाँ कब आए। हो सकता है कि तुम परसों ही आए हो। तुमने मुझे रोकने की हिम्मत कैसे की!’

उन्होंने योगी को धक्का देकर किनारे किया और गुफा में चले गए। मत्स्येंद्रनाथ वहाँ नहीं थे। फिर वे लौटकर आए और शिष्य को झकझोरकर पूछा, ‘कहाँ हैं वे? मुझे अभी अपने गुरु से मिलना है!’

शिष्य ने कहा, ‘मुझे कोई निर्देश नहीं मिला है कि मैं आपको बताऊँ कि वे कहाँ हैं।’

गोरखनाथ अब अपना आपा खो बैठे। उन्होंने अपनी गुह्य-शक्ति का इस्तेमाल किया और शिष्य के दिमाग में झाँककर पता लगा लिया कि मत्स्येंद्रनाथ कहाँ हैं। वे उस दिशा में चल पड़े। आधे रास्ते में उनके गुरु उनका इंतजार कर रहे थे।

मत्स्येंद्रनाथ ने कहा, ‘मैंने तुम्हें चौदह साल के लिए इसलिए भेजा था, क्योंकि तुम्हारी रुचि गुह्य-विद्या में बढ़ती जा रही थी। तुम अपनी आध्यात्मिक प्रक्रिया से भटकते जा रहे थे और जो शक्ति इसने तुम्हें दी थी, उसका आनंद लेना शुरू करने लगे थे। जब तुम वापस लौटे, तो सबसे पहले तुमने गुह्य-विद्या का इस्तेमाल मेरे शिष्य के दिमाग को पढ़ने में किया। फिर से चौदह साल के लिए चले जाओ।’ और इस तरह उन्होंने गोरखनाथ को फिर दूर भेज दिया।

गोरखनाथ के इस वर्जित दायरे में दखल देने की कई कहानियाँ हैं, और मत्स्येंद्रनाथ हर बार उन्हें दंड देते थे। अंततः, गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ के सबसे महान शिष्य बने।

योग-संस्कृति में गुह्य-विद्या के साथ हमेशा इसी तरह से पेश आया गया है। इसे कभी सम्मान के साथ नहीं देखा गया। इसे हमेशा जीवन का दुरुपयोग करने वाली चीज़ माना गया, जो उन दायरों में दखल देती है, जहाँ आपको नहीं जाना चाहिए। सिर्फ कुछ ही किस्म के लोग गुह्य-विद्या का अभ्यास करते थे, जो ताकत या पैसे के पीछे भागते थे।

साथ ही, गुह्य-विद्या हमेशा बुरी चीज़ नहीं होती, लेकिन इसके दुरुपयोग के कारण इसकी ऐसी छवि बन गई है। गुह्य-विद्या असल में एक तकनीक या टेक्नोलॉजी है। कोई भी विज्ञान या टेक्नोलॉजी अपने आप में नकारात्मक नहीं होती। अगर कुछ लोग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल दूसरे लोगों की जान लेने या उन्हें यातना देने के लिए करने लगते हैं, तो कुछ समय बाद हमें लगता है, ‘बस, बहुत हो गई ऐसी टेक्नोलॉजी!’ गुह्य-विद्या के साथ यही हुआ है। बहुत ज़्यादा लोगों ने निजी लाभ के लिए इसका दुरुपयोग किया है। अतः आम तौर पर आध्यात्मिक मार्ग पर गुह्य-विद्या से दूर रहा जाता है।

जिसे अकसर गुह्य-विद्या कहते हैं, उसे मोटे तौर पर हम “तंत्र” के रूप में जानते हैं। समाज में आजकल तंत्र को बहुत अपरंपरागत या सामाजिक तौर पर अमान्य पद्धति समझा जाता है। लेकिन अपने प्राचीन मायने में तंत्र का अर्थ बस “तकनीक” होता है। इसका स्वच्छंद कामुकता से कोई लेना-देना नहीं है। गुह्य-विद्या किस्म के तंत्र और आध्यात्मिक तंत्र के बीच के अंतर को स्पष्ट करना ज़रूरी है। इन्हें वाममार्गी तंत्र और दक्षिणमार्गी तंत्र की तरह बाँटा गया है और ये दोनों बिलकुल अलग प्रकृति के हैं।

वाममार्गी तंत्र में तरह-तरह के अनुष्ठान होते हैं, जो बहुतों को बड़े विचित्र लग सकते हैं। वाममार्गी तंत्र में काफी बाहरी चीज़ें शामिल होती हैं; इसे संपन्न करने के लिए आपको चीज़ों की ज़रूरत होती है और विस्तृत इंतजाम करने होते हैं। गुह्य-विद्या के इस्तेमाल को आम तौर पर वाममार्गी तंत्र कहा जाता है। इसने लोगों को दूरस्थ लोगों से संपर्क बनाने, एक-साथ दो अलग जगहों पर मौजूद होने और अपने फायदे तथा दूसरों के नुकसान के लिए ऊर्जाओं का इस्तेमाल करने की शक्ति दी है। जबकि दक्षिणमार्गी तंत्र कहीं ज़्यादा आंतरिक है; यह आपको अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल करके चीज़ों को घटित करने में सक्षम बनाने से संबंध रखता है। आप जीवन के सभी साधारण पहलुओं का इस्तेमाल अंदर की तरफ़ मुड़ने और खुद के साथ कोई चीज़ करने के लिए, एक व्यक्तिपरक विज्ञान की तरह करते हैं। वाममार्गी तकनीक एक अल्पविकसित निम्नस्तरीय तकनीक है और उन लोगों को उपलब्ध है, जिनकी दीक्षा नहीं हुई है। जबकि, दक्षिणमार्गी तकनीक बहुत परिष्कृत है और सिर्फ शक्तिशाली दीक्षाओं के जरिये उपलब्ध होती है।

तंत्र एक तरह की क्षमता है; इसके बिना कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया नहीं होती। अगर आपके अंदर तंत्र नहीं है, तो आपके पास लोगों का रूपांतरण करने के लिए कोई तकनीक नहीं है। आपके पास सिर्फ शब्द हैं। शब्द प्रेरणा देने वाले और दिशा दिखाने वाले हो सकते हैं, लेकिन रूपांतरण लाने वाले नहीं। एक विद्वान को गुरु नहीं कहा जा सकता। रूपांतरण की टेक्नोलॉजी के बिना कोई गुरु नहीं होता। तो तंत्र के बिना कोई गुरु नहीं होता। आजकल बहुत सारे लोग गुरु होने का दावा करते हैं, लेकिन वे केवल ग्रंथों के ज्ञान को अपने तरीके से फेंट रहे हैं। एक असली गुरु का काम पूरे मानव-सिस्टम को कर्म की चक्रीय संरचना हासिल करने से रोककर, उसे उसकी चरम संभावना के लिए साफ करना होता है। यह मैकेनिक के काम की तरह है, जिसमें कर्म की गाँठें निकाली जाती हैं! अगर किसी व्यक्ति में तंत्र या टेक्नोलॉजी नहीं है, तो आप उसे गुरु नहीं कह सकते।

कुंडलिनी की शक्ति

“कुंडलिनी” का शाब्दिक अर्थ होता है ऊर्जा। हर व्यक्ति में कुंडलिनी एक तरह की ऊर्जा होती है, जो अधिकतर सोई हुई और निष्क्रिय रहती है। योग-परंपरा में इसे हमेशा एक कुंडली लगाए साँप की तरह दर्शाया जाता है।

एक कुंडली लगाया साँप उच्च स्तर की निश्चलता को जानता है। साँप जब गतिहीन होता है, तो यह इतना ज़्यादा निश्चल होता है कि अगर यह आपके रास्ते में पड़ा हो, तो भी आप इसे अनदेखा कर देंगे। यह जब हरकत करता है, तभी आप उसे देख पाते हैं। लेकिन इन कुंडलियों में बहुत फुरतीली गतिशीलता छिपी होती है। तो कुंडलिनी की तुलना साँप से इसलिए की जाती है, क्योंकि यह ज़बरदस्त ऊर्जा हर व्यक्ति के अंदर मौजूद है, लेकिन जब तक वह गतिशील नहीं होती, आपको इसके होने का कभी एहसास नहीं होता।

एक भरपूर सांसारिक जीवन जीने के लिए इस भौतिक ऊर्जा की एक बूँद ही पर्याप्त है। जब भौतिकता से परे जाने की बात आती है, सिर्फ तभी आपको ऊर्जा के उफान की ज़रूरत होती है, जो आपको इस वास्तविकता से परे पहुँचा देगी। यह कुछ हवाई यात्रा के लिए आवश्यक ऊर्जा और रॉकेट छोड़ने के लिए आवश्यक ऊर्जा में अंतर की तरह है। धरती के वातावरण में उड़ना और अंतरिक्ष-यात्रा के लिए वातावरण के अवरोध को तोड़ना बिलकुल अलग चीज़ें हैं। इसी तरह से, भौतिकता से परे जाने के लिए ऊर्जा के एक अलग आयाम की ज़रूरत होती है।

भारत में शायद ही ऐसा कोई मंदिर हो, जहाँ साँप की कोई न कोई आकृति न बनी हो। ऐसा इसलिए नहीं है, क्योंकि इस संस्कृति में साँप की पूजा होती है। यह दर्शाती है कि एक पवित्र स्थान में आपके अंदर सोई हुई ऊर्जाओं को जगाने की संभावना मौजूद है।

साँप बोध की असाधारण क्षमता के लिए जाने जाते हैं। इसका एक कारण यह है कि वे बहरे होते हैं और केवल स्पंदनों से अनुभव करते हैं। साँप खासकर उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होता है, जो ध्यान की अवस्था में होता है। इस परंपरा में, हमेशा से कहा गया है कि अगर कोई योगी किसी जगह पर ध्यान में है, तो कहीं न कहीं उसके आसपास साँप भी होगा। अगर आपकी ऊर्जा निश्चल हो जाती है, तो साँप सहज ही आपकी तरफ़ आकर्षित होता है।

हालाँकि शारीरिक तंत्र की दृष्टि से साँप और इंसान के बीच बिलकुल समानता नहीं होती, लेकिन ऊर्जा-तंत्र के लिहाज से ये काफी नजदीक हैं। अगर आप जंगल में किसी नाग को देख लें, तो हो सकता है कि वह बिना किसी विरोध के आपके हाथों में आ जाए, क्योंकि उसकी और आपकी ऊर्जा एक-दूसरे के बहुत करीब होती है। जब तक कि आपके मन में भय न हो, जिसे वह खतरे के रूप में लेता है, साँप का काटने का कोई इरादा नहीं होता। साँप अपने जहर को कीमती समझता है और उसे यूँ ही बरबाद नहीं करता। साँप के जहर में औषधीय गुण होते हैं, जिन्हें आज दुनिया में लगातार पहचाना जा रहा है।

हालाँकि, साँप को बाइबिल की आदम और हव्वा की कहानी की वजह से प्राचीन काल से अच्छी दृष्टि से नहीं देखा गया है। लेकिन अगर आप उस कहानी को बारीकी से देखें, तो साँप ने ही धरती पर जीवन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वरना, बस एक मूर्ख जोड़ा ऐसे ही भटक रहा था, जिसे यह नहीं पता था कि आपस में क्या किया जाए। उस शानदार साँप के बिना आप और मैं यहाँ इस धरती पर नहीं होते!

अंततः, कुंडलिनी-ऊर्जा का ऊपर उठना ही जीवन के विस्तृत बोध का आधार है। आदियोगी या शिव की पारंपरिक मूर्तियाँ उनके साथ एक साँप को दर्शाती हैं, जो यह संकेत देता है कि उनका बोध अपने शिखर पर है। अगर ऊर्जा एक खास मात्रा और तीव्रता के स्तर तक उठती है, सिर्फ तभी वास्तविकता का बोध उसकी चरम शुद्धता में किया जा सकता है। वरना हमारे पास मौजूद हर दूसरे कर्म की छाप (जो करोड़ों-अरबों साल पहले से जमा हो रही है, जब हम केवल एक कोशिका वाले जीव थे) वास्तविकता को देखने के हमारे तरीके को दूषित कर देगी।





आनंद


एक शुरुआत

अधिकतर लोगों के जीवन में आनंद कभी-कभार आने वाले मेहमान की तरह होता है। इस किताब का मकसद जीवन भर के लिए उसे आपका साथी बना देना है।

आनंद कोई ऐसा आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं है, जो पहुँच से बाहर हो। आपके जीवन का कोई भी पहलू जादुई व शानदार तरीके से अभिव्यक्त हो, इसके लिए आनंद का वातावरण होना बहुत ज़रूरी है। अगर आनंद आपके जीवन में नहीं है, तो जीवन की सबसे सुखदायी गतिविधियाँ भी बोझिल बन जाती हैं। आप अपने इर्द-गिर्द जीवन की समस्याओं को अपनी काबिलियत से सँभाल सकते हैं। लेकिन एक बार जब आनंद आपका स्थायी साथी बन जाता है, तो आप खुद अपने जीवन में एक समस्या नहीं रह जाते। इसके बाद जीवन लगातार जाहिर होते जश्न और खोज की एक यात्रा बन जाता है।

मानवता के इतिहास में पहली बार, हमारे पास इस धरती की हर समस्या – जैसे पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा और ऐसी ही दूसरी समस्याओं को सँभालने के लिए ज़रूरी साधन, काबिलियत और तकनीकें हैं। हमारे पास विज्ञान और तकनीक के ज़बरदस्त साधन मौजूद हैं, जो इतने शक्तिशाली हैं कि हम दुनिया को कई बार बना या मिटा सकते हैं। लेकिन अगर ऐसे शक्तिशाली साधनों के इस्तेमाल में करुणा, समावेश, संतुलन और समझदारी की गहन भावना शामिल न हो, तो हम एक वैश्विक त्रासदी के कगार पर खड़े हो सकते हैं। बाहरी खुशहाली की हमारी अंधाधुंध कोशिशों ने इस धरती को पहले ही विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है।

हमारे पास आज जो सहूलियतें और सुख-सुविधाएँ हैं, वे किसी भी पिछली पीढ़ी से बहुत अधिक हैं। फिर भी हम मानवता के इतिहास में सबसे आनंदमय या प्रेममय पीढ़ी होने का दावा नहीं कर सकते। लोगों की एक बहुत बड़ी तादाद लगातार चिंता और अवसाद की अवस्था में रहती है। कुछ अपनी असफलता की पीड़ा झेल रहे हैं, लेकिन विडंबना यह है कि कई लोगों के दुःख का कारण उनकी सफलता है। कुछ अपनी सीमाओं की वजह से पीड़ा सह रहे हैं, लेकिन कई अपनी आज़ादी से पीड़ित हैं।

जिस चीज़ की कमी है, वह है मानव-चेतना। बाकी सब-कुछ अपनी जगह पर है, लेकिन इंसान अपनी जगह पर नहीं है। अगर इंसान अपनी खुशी के रास्ते में खुद रुकावट बनना बंद कर दें, तो हर दूसरा समाधान मौजूद है। मनुष्य को रूपांतरित किए बिना आप दुनिया को रूपांतरित नहीं कर सकते।

मेरा पूरा जीवन इंसानों को सशक्त बनाने के लिए समर्पित रहा है, ताकि वे खुद अपने भाग्य के स्वामी बन सकें। मैं उन्हें आनंदमय समावेश की अवस्था में लाना चाहता हूँ, ताकि एक पीढ़ी के तौर पर हममें जो संभावना हैं, वह हमसे कहीं कतराकर न चली जाए। आपकी खुशी, आपका क्लेश, आपका प्रेम, आपकी यंत्रणा, आपका आनंद, सब आपके ही हाथों में हैं।

बाहर निकलने का एक रास्ता है। और बाहर निकलने का रास्ता अपने अंदर है। सिर्फ अंदर की ओर मुड़ने पर ही हम वास्तव में प्रेम, प्रकाश और हंसी-खुशी की दुनिया बना सकते हैं। यह किताब उस दुनिया का एक प्रवेश-द्वार हो सकती है।

आइए, इसे कर दिखाएँ।





इनर इंजीनियरिंग

इनर इंजीनियरिंग प्रोग्राम अपने बोध को गहरा बनाने का और भीतरी रूपांतरण का एक अनूठा अवसर है। इससे अपने जीवन, कार्य और दुनिया को देखने के आपके तरीके में आमूल परिवर्तन आता है।

इसे व्यक्तिगत विकास के लिए एक गहन कार्यक्रम के रूप में भेंट किया जाता है। ये सेहत व सफलता के साथ-साथ जीवन के उच्च आयामों की खोज करने की संभावना भी प्रदान करता है।

इनर इंजीनियरिंग ऐसे साधन और समाधान भेंट करता है, जिससे आप अपने जीवन को वैसा बनाने के काबिल हो जाते हं, जैसा आप चाहते हैं। यह योग-विज्ञान की प्राचीन विधियों का उपयोग करके, जीवन को गहराई में तलाशने का एक द्वार है।

यह प्रोग्राम आपको शरीर, मन, भावनाओं और जीवन-ऊर्जा को बेहतर ढंग से सँभालने के व्यावहारिक तरीके प्रदान करता है। इनर इंजीनियरिंग में एक ज़बरदस्त रूपांतरण लाने वाली योग क्रिया – शाम्भवी महामुद्रा सिखाई जाती है। शाम्भवी महामुद्रा 21 मिनट की एक ऊर्जा-प्रक्रिया है, यह एक बहुत ही शक्तिशाली और शुद्धिकारक प्रक्रिया है, जो आपके अन्दर आनंद का रसायन पैदा करती है। ये आपके पूरे सिस्टम को संतुलित करने की एक विधि है।





ईशा फाउंडेशन

1992 में Sadhguru द्वारा स्थापित, ईशा फाउंडेशन, मानवीय संभावनाओं व क्षमता के विकास के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय लाभ-रहित संस्था है। आंतरिक रूपांतरण लाने वाले इसके सशक्त योग कार्यक्रमों से लेकर, इसकी प्रेरणा प्रदान करने वाली सामाजिक तथा पर्यावरण संबंधी योजनाएँ, ईशा की सभी गतिविधियाँ विश्व शांति और विकास के लिए एक संयुक्त संस्कृति पैदा करने के उद्देश्य से रची गई हैं।

ईशा फाउंडेशन दुनियाभर में फैले 300 से भी अधिक शहरी केंद्रों से कार्य करता है; यह 30,00,000 से भी अधिक स्वयंसेवकों के योगदान द्वारा चलाया जाता है। फाउंडेशन का मुख्यालय ईशा योग केंद्र में है, जो दक्षिण भारत में वेलिंगिरि पर्वत की तलहटी में स्थित है, तथा अमेरिका में, मध्य टेनेसी के कंबरलैंड पठार में स्थित ईशा इंस्टिट्यूट ऑफ इनर साइंस में है।

व्यक्तिगत विकास में मदद करने, मानवीय चेतना जागृत करने, समुदायों को पुनःस्थापित करने और पर्यावरण सुधार के लिए ईशा फाउंडेशन बड़े पैमाने की मानव-सेवी योजनाओं पर भी अमल करता है। इसमें शामिल हैं :

• ग्रामीण कायाकल्प कार्यक्रम – यह ग्रामीण पुनरुत्थान कार्यक्रम है, जो निःशुल्क चिकित्सा के साथ-साथ समुदायों को पुनःस्थापित कर रहा है, इससे दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाके में 4,600 से अधिक असहाय गाँवों में मानव-उत्थान का कार्य हो रहा है।

• प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स – प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स, पर्यावरण-क्षरण को रोकने तथा पर्यावरण स्वच्छ बनाने की दिशा में कार्य करता है। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य तमिलनाडु राज्य में 11 करोड़ 40 लाख पेड़ लगाना है, जिससे राज्य के 33 प्रतिशत क्षेत्रफल को हरे आवरण से ढका जा सके। प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स ने सिर्फ तीन दिनों में 2,56,289 लोगों द्वारा 8,52,587 पौधे लगाकर ‘गिनिज वर्ल्ड रिकॉर्ड’ बनाया है। ईशा फाउंडेशन को 2008 के इंदिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

• ईशा विद्या – ईशा विद्या अंग्रेजी माध्यम व कंप्यूटर आधारित शिक्षा के क्षेत्र में एक विशेष पहल है। अभी पूरे तमिलनाडु में आठ स्कूल और आंध्र प्रदेश में एक स्कूल है, जो करीब 5,200 बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बना रहे हैं। इनमें से कई बच्चे स्कूल जाने वाली पहली पीढ़ी के हैं और लगभग 60 फ़ीसदी विद्यार्थियों को पूर्ण छात्रवृत्ति दी जाती है। ईशा विद्या फिलहाल राज्य सरकार के 520 स्कूलों और 79,000 छात्रों के साथ मिलकर काम कर रही है। ईशा कई राज्य सरकारों के साथ साझेदारी करके पूरे भारत के 25,000 स्कूलों के 3 करोड़ बच्चों को सरल योग अभ्यास भी सिखा रही है।

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