in part 5

प्रेम-मंत्र

प्रेम के बारे में आपका क्या कहना है? क्या बिना शर्त प्रेम जैसी कोई चीज़ होती है? क्या यह दो इंसानों के बीच सचमुच हो सकता है? ऐसे सवाल अकसर पूछे जाते हैं।

एक दिन शंकरन पिल्लै एक पार्क में गए। उन्होंने पत्थर की एक बेंच पर एक सुंदर युवती को बैठे देखा। वे भी उसी बेंच पर बैठ गए। कुछ मिनटों के बाद वे उसके पास आ गए। वह दूर खिसक गई। उन्होंने कुछ मिनट इंतजार किया, और फिर उस युवती के और पास आ गए। वह फिर से दूर खिसक गई। जब उन्होंने फिर ऐसा किया, तो वह बेंच के बिलकुल किनारे पर आ गई। वे उसके एकदम करीब आ गए और अपनी बाँह उसके गले में डाल दी, युवती ने उनका हाथ धकेल दिया। तब वे घुटनों के बल बैठ गए, एक फूल तोड़ा और उसे युवती को देते हुए कहा, ‘आई लव यू। मैं तुमसे इतना प्यार करता हूँ, जितना मैंने अपने जीवन में आज तक कभी किसी से नहीं किया।’

सूरज डूब रहा था। उनके हाथ में फूल था। उन्होंने उसे प्रेम-याचना की दृष्टि से देखा। सबसे बढ़कर, माहौल बिलकुल सही था। वह पिघल गई। उसके बाद प्रकृति ने अपना रंग दिखाया और दोनों एक-दूसरे के साथ घुल-मिल गए। शाम रात में गहरा गई। शंकरन पिल्लै अचानक उठ खड़े हुए और बोले, ‘रात के आठ बज गए हैं। मुझे जाना होगा।’

वह बोली, ‘क्या? अभी? तुमने तो अभी कहा था कि तुम मुझसे इतना प्यार करते हो, जितना किसी और से नहीं करते!’

‘हाँ, हाँ, बिलकुल, लेकिन मेरी पत्नी इंतजार कर रही होगी।’

आम तौर पर हम उन दायरों में रिश्ते बनाते हैं, जो हमारे लिए आरामदेह और फायदेमंद होते हैं। लोगों को शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक, आर्थिक या सामाजिक ज़रूरतें पूरी करनी होती हैं। इन ज़रूरतों को पूरा करने का सबसे अच्छा तरीका है लोगों से यह कहना, “आई लव यू” यह तथाकथित प्रेम का एक मंत्र बन गया है : “खुल जा सिमसिम।” इसे बोलकर आप जो चाहें, पा सकते हैं।

प्रेम एक गुण है; यह ऐसी चीज़ नहीं है जिसका किसी दूसरे के साथ कोई लेना-देना हो। हम जो-कुछ भी करते हैं, वह किसी न किसी रूप में कुछ ज़रूरतें पूरी करने के लिए होता है। अगर आप यह समझ जाते हैं, तो संभव है कि आपके अंदर प्रेम एक स्वाभाविक गुण की तरह उपजे। लेकिन आप खुद को यह विश्वास दिलाने का धोखा देते रह सकते हैं कि आपने जिन रिश्तों को अपनी सुविधा, आराम और खुशहाली के लिए बनाया है, वे असल में प्रेम के रिश्ते हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि उन रिश्तों में प्रेम का अनुभव बिलकुल नहीं होता, लेकिन वह कुछ हद तक ही होता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कितनी बार प्रेम की घोषणा की गई है; अगर कुछ उम्मीदें और ज़रूरतें पूरी नहीं हुईं, तो चीज़ें बिखर जाएँगी। यह वास्तव में परस्पर-लाभ-योजना बन गया है।

शर्तों पर प्रेम और शर्त-रहित प्रेम जैसी कोई चीज़ नहीं होती : शर्तें होती हैं या प्रेम होता है। आप जब प्रेम की बात करते हैं, तो इसे बिना शर्त का ही होना होगा। जिस पल कोई शर्त आ जाती है, उसी पल यह बस लेन-देन बन जाता है। हो सकता है कि यह सुविधाजनक लेन-देन हो, हो सकता है कि यह एक अच्छा इंतजाम हो, लेकिन वह आपको तृप्ति नहीं देगा या वह आपको एक दूसरे आयाम में नहीं ले जाएगा। वह बस सुविधा के लिए होता है। प्रेम का सुविधाजनक होना ज़रूरी नहीं है; ज़्यादातर समय यह सुविधाजनक नहीं होता। इसकी कीमत जीवन से चुकानी पड़ती है। आपको इसमें खुद को दे देना होता है।

अगर आपको प्रेम में होना है, तो आपको “होना” नहीं चाहिए। अंग्रेजी की कहावत “फॉलिंग इन लव” बहुत सटीक है। आप प्रेम में चढ़ते नहीं हैं, आप प्रेम में खड़े नहीं होते हैं, आप प्रेम में उड़ते नहीं हैं, आप प्रेम में गिरते (फॉलिंग) हैं। आपका कुछ-न-कुछ गिरना चाहिए या पिघल जाना चाहिए, ताकि दूसरे के लिए जगह बन सके। लेन-देन और प्रेम-संबंध में अंतर होता है। ज़रूरी नहीं कि प्रेम-संबंध किसी खास इंसान से हो; आप जीवन के साथ ही शानदार प्रेम-संबंध रख सकते हैं।

आप क्या करते हैं और क्या नहीं करते, यह आपके आसपास के हालात के अनुसार होता है। हमारे क्रियाकलाप हमेशा बाहरी परिस्थितियों की माँग के मुताबिक होते हैं। लेकिन प्रेम एक आंतरिक अवस्था है, आप अपने भीतर कैसे हैं, वह निश्चय ही बिना शर्त का हो सकता है। प्रेम के क्रियाकलाप समय के साथ उबाऊ और तनावपूर्ण बन सकते हैं। आपको एहसास होना चाहिए कि प्रेम कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो आप करते हैं; प्रेम आपके होने का तरीका है।



॥साधना॥



प्रेम कभी दो लोगों के बीच नहीं होता। यह आपके भीतर होता है, और आपकी आंतरिकता को किसी दूसरे व्यक्ति या चीज़ का गु़लाम होने की ज़रूरत नहीं है। इसे पंद्रह मिनट के लिए आजमाकर देखिए : जाकर किसी ऐसी चीज़ के साथ बैठिए, जिसके आपके लिए अभी कोई मायने नहीं हैं – यह एक पेड़ हो सकता है, या एक पत्थर, या एक कीड़ा। कुछ दिनों तक इसे लगातार कीजिए। कुछ दिनों बाद, आप पाएँगे कि आप उसे भी उतने ही प्रेम से देख सकते हैं, जितना कि आप अपने पति या पत्नी या माँ या बच्चे को देखते हैं। शायद उस कीड़े को इसका पता न हो, पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर आप हर चीज़ को प्रेम से देख सकते हैं, तो आपके अनुभव में सारी दुनिया खूबसूरत हो जाती है।

भक्ति : एक अनूठा आयाम

अधिकतर लोग सावधानी से जीते हैं। वे अपने प्रेम और खुशी को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में तौलकर बाहर लाते हैं, क्योंकि वे डरते हैं कि कहीं ये खत्म न हो जाएँ। जीवन जीने का सबसे उदार तरीका है – अपने जीवन को सारी सीमाओं से परे चरम पर जीना, ताकि वह सारी दुनिया के सामने मिसाल बन जाए। अगर आप इतने कंजूस हैं कि आप पूरी तरह न तो प्रेम कर सकते हैं, न खुलकर हँस सकते हैं और न ही भरपूर जी सकते हैं, तो आप अव्वल दर्जे के कंजूस-मक्खीचूस हैं! भक्ति का मतलब है कि आप कंजूस नहीं हैं – आप जूस से भरे हैं! भक्त वह व्यक्ति है, जो जीवन को जितना हो सके, अधिक से अधिक अनुभव करना और खोजना चाहता है।

भक्ति जीवन की चीर-फाड़ नहीं है, बल्कि यह पूर्ण रूप से समावेश करना है। भक्ति प्रेम-संबंध नहीं है, बल्कि यह बावलापन है। प्रेम खुद ही दीवाना होता है, लेकिन उसमें थोड़ी-बहुत अक्लमंदी बची रहती है; आप उससे फिर भी लौट सकते हैं। भक्ति में अक्लमंदी का लेशमात्र भी नहीं होता; उससे बाहर आने का कोई तरीका नहीं है। भक्तों के पास जीवन का मधुरतम अनुभव होता है। हर कोई सोच सकता है कि वे मूर्ख हैं, लेकिन वे धरती पर सबसे अच्छा वक्त गुजार रहे होते हैं। अब आप ही तय कीजिए कि मूर्ख कौन है!

जब मैं कहता हूँ “भक्ति”, तो मैं श्रद्धा या विश्वास की बात नहीं करता। विश्वास बस नैतिकता की तरह है। जो लोग किसी चीज़ में विश्वास करते हैं, उन्हें अकसर लगता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं। जिस पल आप किसी चीज़ में विश्वास करते हैं, तो बस इतना ही होता है कि आपकी मूर्खता को आत्मविश्वास हासिल हो जाता है। आत्मविश्वास और मूर्खता का मेल बड़ा खतरनाक होता है, लेकिन आम तौर पर ये साथ-साथ होते हैं। अगर आप अपने आसपास की दुनिया को देखना शुरू करते हैं, तो आपको साफ-साफ समझ आ जाएगा कि आप जो जानते हैं, वह इतना कम है कि आत्मविश्वास के साथ काम करने का कोई तरीका नहीं है। विश्वास इस समस्या को दूर कर देता है; यह आपको ज़बरदस्त आत्मविश्वास दे देता है, लेकिन आपकी मूर्खता का इलाज नहीं करता।

भक्ति कोई क्रियाकलाप नहीं है; यह किसी एक या दूसरी चीज़ के प्रति नहीं होती; भक्ति किसके प्रति है, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। बस इतना ही है कि भक्ति में आप अपने भीतर सारे विरोध विसर्जित कर देते हैं, ताकि चैतन्य साँसों की तरह आसानी से बह सके। ईश्वर कोई ऐसा नहीं है जो वहाँ ऊपर बैठा हो; वह आपके जीवन में हर पल मौजूद एक जीवंत शक्ति है। भक्ति आपको उसके प्रति जागरूक बनाती है।

एक बार की बात है ... एक कैथलिक परिवार के घर में परिवार का मुखिया रात के खाने के वक्त टेबल पर आया, खाने की तरफ़ देखा और हमेशा की तरह भुनभुनाया और अपनी पत्नी और आसपास की हर चीज़ को कोसने लगा। जब कोसना पूरा हुआ और सब अपनी जगह पर बैठ गए, तब वह भी बैठा और प्रार्थना करते हुए बोला, ‘हे ईश्वर, आज के भोजन और टेबल पर मौजूद सारी शानदार चीज़ों के लिए धन्यवाद।’

वहाँ पाँच साल की एक लड़की नम्रता से बैठी हुई थी। आपने देखा होगा कि पाँच साल के बच्चों के लिए हमेशा एक तकिया या कुशन कुरसी पर रखा जाता है, ताकि वे टेबल तक पहुँच सकें, लेकिन फिर भी वे प्लेट तक वाकई कभी नहीं पहुँच सकते। तो उस पाँच साल की लड़की ने, जिसकी गरदन तक टेबल थी, सिर ऊंचा करके कहा, ‘डैडी, क्या ईश्वर हमेशा हमारी सारी प्रार्थनाएँ सुनते हैं?’

उसके अंदर का ईसाईपन तुरंत जाग उठा और उसने कहा, ‘हाँ, क्यों नहीं? हम जितनी भी प्रार्थनाएँ करते हैं, वह हमेशा उन्हें सुनता है।’

तब वह लड़की कुरसी में थोड़ा नीचे धँस गई, क्योंकि वह विचारों में डूब गई थी। कुछ देर बाद, उसने सिर निकालकर कहा, ‘लेकिन डैडी, क्या वह दूसरी बातें भी सुनता है जो हम कहते हैं?’

‘हाँ, हमारे जीवन के हर पल ईश्वर हर चीज़ को सुन और देख रहे हैं, जो हम कहते हैं और करते हैं।’

तब वह फिर थोड़ा नीचे हुई और पूछा, ‘डैडी, तब वे किन बातों पर विश्वास करते हैं?’

मुझे बताइए, भगवान को किस पर विश्वास करना चाहिए – आपकी प्रार्थना पर या आपकी गालियों पर? वह ज़रूर पूरी तरह से भ्रमित हो गया होगा! उसने हार मान ली होगी। चूँकि हम जीवन के सबसे सूक्ष्म पहलुओं को भी व्यवस्थित या संस्थागत बना देते हैं, इसलिए अचानक हर चीज़ अपनी जीवंतता खो देती है और बेजान हो जाती है। हर किसी के मुँह से वही शब्द तोते की तरह बोले जाते हैं, लेकिन उनके कोई मायने नहीं रह जाते। जब हम ऐसी कोई चीज़ कहते हैं जिसके हमारे लिए कोई मायने नहीं होते, जो हमारे भीतर वाकई आग की तरह नहीं जलती, तो यह झूठ बोलने के समान है। तब चुप रहना वास्तव में बेहतर होगा।

हम हमेशा उनकी नकल करने की कोशिश कर रहे हैं, जिन्हें हम अपना मार्गदर्शक और आदर्श मानते हैं। जब किसी ने दो हजार साल पहले कुछ उसी तरह की चीज़ कही, तो वह उसके लिए कारगर हुई – क्योंकि उसके हृदय में उसके लिए ज्वाला थी। वह उस सत्य की वजह से कारगर हुई जो उसके भीतर प्रज्ज्वलित था, न कि उसके बोले हुए शब्दों की वजह से।

भक्ति कोई ठंडी या उत्साह हीन चीज़ नहीं है। यह कायरों के लिए नहीं है। यह आग है। भक्ति जलाती है।

अक्का महादेवी

करीब 900 साल पहले दक्षिण भारत में अक्का महादेवी नाम की महिला तपस्विनी रहती थीं। अक्का शिव की भक्त थीं। अपने बचपन में ही उन्होंने शिव को अपना प्रेमी, अपना पति मान लिया था। उनके लिए यह सिर्फ एक विश्वास नहीं था, बल्कि एक जीती-जागती हकीकत थी।

एक दिन राजा ने इस सुंदर स्त्री को देखा और तय कर लिया कि वह उसे पत्नी बनाएगा। अक्का ने मना कर दिया। लेकिन राजा अपनी जिद पर अड़ा था और उसने उनके माता-पिता को धमकाया, तो वे मान गईं।

अक्का ने उससे शादी तो कर ली, लेकिन राजा को कभी अपने पास फटकने नहीं दिया। वह उनको लुभाने की कोशिश करता, तो वे हमेशा यही कहतीं, ‘शिव ही मेरे पति हैं।’ समय बीतने के साथ राजा का धैर्य जवाब देने लगा। वह पागल हो उठा और एक दिन ज़बरदस्ती पर उतर आया। अक्का ने फिर इनकार कर दिया, ‘मेरे एक और पति हैं। उनका नाम शिव है। वह मेरे पास आते हैं और मैं उनके साथ रहती हूँ। मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती।’

चूँकि उन्होंने एक और पति के होने का दावा किया था, अतः उन पर मुकदमा चलाने और सजा सुनाने के लिए दरबार में लाया गया। अक्का ने सबकी मौजूदगी में कहा, ‘मेरे लिए रानी बनने के कोई मायने नहीं हैं। मैं यहाँ से चली जाऊंगी।’

जब राजा ने देखा कि वे बड़ी आसानी से हर चीज़ छोड़कर जा रही हैं, तो उसने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के अंतिम प्रयास में कहा, ‘तुमने जो-कुछ भी पहना है, ये गहने, ये कपड़े – सब मेरे हैं। इन सबको यहीं छोड़ दो और चली जाओ।’

यह सुनकर, भरे दरबार में अक्का ने अपने सारे गहने उतार दिए, सारे कपड़े भी उतार दिए और निर्वस्त्र होकर वहाँ से चली गईं। उस दिन के बाद से उन्होंने कपड़े पहनने से इनकार कर दिया, हालाँकि कई लोगों ने उनको ऐसा न करने के लिए समझाने की बहुत कोशिश की। उस समय भारत की गलियों में किसी युवती का निर्वस्त्र घूमना, वह भी उनके जैसी सुंदर युवती का, बिलकुल अविश्वसनीय था। उन्होंने अपना जीवन एक घुमंतू भिक्षुणी की तरह बिताया और उन्होंने कुछ अद्भुत कविताओं की रचना की, जो आज तक याद की जाती हैं।

एक कविता में वे कहती हैं (अंग्रेजी अनुवाद ए. के. रामानुजन द्वारा) :

लोग,

स्त्री और पुरुष,

शरमाते हैं जब उनकी लज्जा ढकने वाला कपड़ा गिर जाता है।

जब जीवन का स्वामी

बिना चेहरे के डूबा रहता है

दुनिया में, तो तुम कैसे लज्जा में हो सकते हो?

जब सारी दुनिया ईश्वर की दृष्टि में है,

हर जगह देखती हुई,

तो तुम क्या ढक और छिपा सकते हो?

इस किस्म के भक्त इस दुनिया में रहते तो हैं, लेकिन वे इस दुनिया के नहीं होते। जिस शक्ति और गरिमा के साथ उन्होंने अपना जीवन जिया, उसने उनको हमेशा के लिए मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत बना दिया। अक्का अब भी भारतीय सामूहिक चेतना में एक जीती-जागती उपस्थिति बनी हुई हैं। उनकी लिखी कविताएँ आज तक दक्षिण भारतीय साहित्य की सबसे मूल्यवान रचनाओं में शामिल हैं।



रहस्य को अंगीकार कीजिए

यह सिर्फ एक बचकानी बुद्धि ही है, जो चीज़ों का विश्लेषण करती है और निष्कर्ष पर पहुँच जाती है। अगर आपकी बुद्धि काफी विकसित और परिपक्व है, तब आपको एहसास होता है कि आप जितना ज़्यादा विश्लेषण करते हैं, किसी निष्कर्ष से आप उतने ही ज़्यादा दूर होते हैं।

अगर आप जीवन के किसी भी पहलू में गहराई में जाते हैं, तो आप किसी भी नतीजे से दूर, और दूर चले जाएँगे। जीवन पहले से भी अधिक रहस्यमय हो जाता है। आप जीवन को जितना ज़्यादा खोदते हैं, आप पाते हैं कि यह अंतहीन और अथाह प्रक्रिया है। आप उसे समझ नहीं सकते, क्योंकि आप स्वयं ही जीवन हैं। जब आपको अपने अनुभव में एहसास होता है कि हर परमाणु, रेत का हर कण, हर कंकड़, और सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े तक जीवन का हर अंश, अथाह है, तो आप स्वाभाविक रूप से हर चीज़ के आगे परम भक्तिभाव से नतमस्तक हो जाएँगे। किसी भी गहन विश्लेषण के जरिये जीवन को समझने के बजाय अगर आप बस यूँ ही यहाँ बैठकर साँस लेते हैं, तो आप जीवन को बेहतर जान जाएँगे।

किसी चीज़ की भौतिक प्रकृति से उसका सत्य खोजने की चाहत में जब हम हर चीज़ को चीरते जाते हैं, तब हम कण-भौतिकी के सूक्ष्मतम आयाम में पहुँच जाते हैं। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन से न्यूट्रिनो, बोसोन और सुपर-सिमिट्री कण तक हम गहरे, और गहरे पैठते हुए लगते हैं। लेकिन यह सब फिर भी सिर्फ भौतिक प्रकृति के दायरे में है। हमें बताया गया है कि डार्क-मैटर में पदार्थ की अपेक्षा ब्रह्मांड ज़्यादा है – और इस डार्क-मैटर में परमाणु न होकर अज्ञात किस्म के कण होते हैं।

आप पानी का एक गिलास लेकर उसे देखिए। क्या आप इसके बारे में वाकई जानते हैं? मिसाल के लिए, हाइड्रोजन और ऑक्सीज़न मिलकर पानी क्यों बन जाते हैं? या एक कंकड़ को लीजिए और उसे देर तक ध्यान से देखिए। इसका इस तरह का खास आकार, लंबाई-चौड़ाई और सतह की ऐसी बनावट क्यों है? या आप बस खुद को ही देखिए, आप ऐसे कैसे बन गए? कई लोग जवाब देंगे, ‘ओह, मेरे पिता, मेरी माता – और यह मैं हूँ।’ लेकिन इस तरह से क्यों होता है? इस आकार, इस शरीर, इस व्यक्तित्व का आधार क्या है?

भारत में परंपरा थी कि आपका जिस किसी से सामना होता था, आप उसके आगे सिर झुकाते थे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह कोई पेड़ है, या गाय है, या साँप है, या बादल है – आप बस सिर झुकाते थे। जब आप हर चीज़ के आगे झुकते हैं, तो ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि आप या तो मूर्ख हैं, या फिर आपने जीवन को उसकी पूरी गहनता में जाना है; गंभीरता के साथ चरम गहराई में देखा है। मूर्ख और आत्मज्ञानी व्यक्ति एक-से दिखते हैं, लेकिन उनमें ज़मीन-आसमान का फर्क होता है। मूर्ख कोई निष्कर्ष निकालने के काबिल नहीं होता, जबकि आत्मज्ञानी कोई निष्कर्ष निकालना नहीं चाहता। बाकी सभी लोग अपने निष्कर्षों को ज्ञान की तरह गरिमामय बना देते हैं। मूर्ख बस जो-कुछ थोड़ा-बहुत जानता है, उसका आनंद लेता है, और आत्मज्ञानी, जिसने जीवन को उसकी पूरी गहनता में देखा है, इसका पूरी तरह से आनंद लेता है। बाकी सब वे लोग हैं, जो लगातार संघर्ष करते हैं और दुःख झेलते हैं।

एक दिन एक आदमी सुबह-सुबह अपने दफ्तर पहुँचा और अपने बॉस से बोला, ‘बॉस, मैं आपको बता दूँ कि तीन कंपनियाँ मेरे पीछे पड़ी हैं। इसलिए आपको मेरा वेतन बढ़ाना ही होगा।’

उसके बॉस ने कहा, ‘क्या! कौन-सी कंपनियाँ हैं वे? कौन तुम्हें लेना चाहता है?’

उसने कहा, ‘बिजली सप्लाई कंपनी, टेलीफोन कंपनी और गैस कंपनी।’

तो तथाकथित ‘स्मार्ट’ लोगों के पीछे, जिन्होंने जीवन के बारे में अपने ठोस निष्कर्ष निकाले हुए हैं, हमेशा कोई चीज़ होती है! या फिर, वे हमेशा किसी चीज का पीछा करने में व्यस्त रहते हैं। एक मूर्ख शांति से बैठ सकता है। एक आत्मज्ञानी शांति से बैठ सकता है। बाकी लोग नहीं बैठ सकते।

भक्ति आपके मार्ग की सारी बाधाओं को विसर्जित करने का आसान तरीका है। जो लोग “बंदर सरीखे मन” की बकबक रोकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, अगर वे भक्त बन जाते हैं, तो बकबक छूमंतर हो जाएगी।

अगर आप झुकना, हर चीज़ को खुद से ऊँचा मानना सीख लेते हैं, तो यह आपके आत्मसम्मान के लिए ठीक नहीं लगता। लेकिन भक्त बनने का मतलब यह नहीं है कि आपको जैसा चाहे नचाया जा सकता है। जो झुकना जानता है, वह टूटेगा नहीं। (इसी कारण आपको हर सुबह हठ-योग करने को प्रेरित किया जाता है – ताकि आपका शरीर टूटे नहीं!) आपके अंदर हर चीज़ के साथ ऐसा ही है।

दुर्भाग्य से, इन दिनों तथाकथित आध्यात्मिक गुरु भी आत्मसम्मान के बारे में बातें कर रहे हैं। “आत्म” और “सम्मान”, दोनों ही समस्या हैं। दोनों बेहद सीमित चीज़ें हैं; दोनों ही नाज़ुक हैं; दोनों हमेशा असुरक्षित रहेंगे। अगर आपके अंदर सम्मान की चाह नहीं है, तो बहुत अच्छा है। अगर आपके पास “आत्म” यानी अहं नहीं है, तो यह शानदार बात है!



॥साधना॥



जब आप किसी चीज़ को खुद से बहुत विशाल जैसा अनुभव करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से आप उसके आगे झुक जाएँगे। अगर आप भक्त बनना चाहते हैं, तो अपने जीवन में जागते हुए क्षणों के दौरान, हर घंटे में कम से कम एक बार, आप हाथ जोड़ें और किसी चीज़ के सामने झुकें। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह कौन है या क्या है। यह ज़रूरी है कि उसमें चुनाव न करें। आप जो कुछ भी देखें, बस अपना सिर झुकाएँ – चाहे वह एक पेड़ हो, पहाड़ हो, कुत्ता हो, बिल्ली हो, या कुछ भी। इसमें शरीर की हरकत ज़रूरी नहीं है; यह एक आंतरिक कार्य हो सकता है। बस ऐसा दिनभर कीजिए, हर घंटे पर। कोशिश कीजिए कि यह हर मिनट हो सके। जब ऐसा हर मिनट पर हो, तब इसके लिए अपने हाथों और शरीर का इस्तेमाल करना ज़रूरी नहीं है। आप बस अपने मन में कीजिए। एक बार जब यह आपके होने का तरीका बन जाता है, तब आप भक्त होते हैं।

अगर आप अपना पूरा जीवन भी लगा दें, तब भी आप एक पत्ती, या एक हाथी, या एक चींटी, या एक परमाणु को नहीं समझ पाएँगे। आप डीएनए के एक अणु को भी समझ पाने में असमर्थ हैं। हर चीज़ जो आप समझ नहीं सकते, वह अस्तित्वगत बुद्धिमत्ता है और आपकी बुद्धिमत्ता से उच्च अवस्था में है। जब आपको इसका एहसास होता है – जब आप वाकई यह देख पाते हैं – तो आप भक्त होते हैं।

भक्त ऐसा व्यक्ति है, जो उसमें विसर्जित होने को तैयार है, जिसके प्रति उसकी भक्ति है। अगर आप जीवन के भक्त हैं, तो आप उसके साथ एक हो जाएँगे। आप जीवन-प्रक्रिया के प्रति बाहरी व्यक्ति मत बनिए। भक्त बन जाइए। विसर्जित हो जाइए।





ऊर्जा


क्रिया-योग की शरण लें

अभी मनुष्य शरीर और मन के साथ तमाम तरीकों से पहचान बना लेता है। लेकिन बुनियादी तौर पर, आप जिसे “मैं” कहते हैं, वह ऊर्जा की थोड़ी-सी मात्रा है। आधुनिक विज्ञान ने बिना किसी संदेह के यह सिद्ध कर दिया है कि संपूर्ण अस्तित्व एक ही ऊर्जा से बना है, जो करोड़ों अलग-अलग आश्चर्यजनक तरीकों से स्वयं को जाहिर कर रही है। जब आइंस्टीन ने E=mc2 का सूत्र दिया, तो आसान शब्दों में, वे यह कह रहे थे कि अस्तित्व में हर चीज़ को एक ही ऊर्जा की तरह देखा जा सकता है। सारे धर्म जब कहते हैं कि “ईश्वर हर जगह है”, तो वे थोड़े अलग तरीके से उसी चीज़ का दावा कर रहे हैं।

आधुनिक विज्ञान ने अपने निष्कर्ष गणित की गणनाओं से निकाले हैं। धर्म अपने निष्कर्षों पर विश्वास से पहुँचे हैं। लेकिन योगी ऐसा व्यक्ति है, जो गणनाओं या विश्वास से मानने वाला नहीं है। वह अपने बोध को बढ़ाकर स्वयं ही परम का अनुभव करना चाहता है। इस कारण, योग-परंपरा में भगवान का जिक्र नहीं किया जाता, और न ही उसे नकारा जाता है।

मनुष्य में विस्तार करने की लालसा वास्तव में निराकार परम बुद्धिमत्ता की अभिव्यक्ति है। यह बुद्धिमत्ता ही हमारे अस्तित्व का स्रोत है। अपनी लालसा के स्रोत को खोजने की कोशिश करने के बजाय हम इसे बाहरी दुनिया में अभिव्यक्ति देने का प्रयास करते हैं। हमारी इंद्रियों की बहिर्मुखी प्रकृति होने के कारण, हम धोखे से यह विश्वास करने लगते हैं कि बाहरी अभिव्यक्ति किसी तरह से तृप्ति देगी। जब आप अभिव्यक्ति को कारण मानकर उसे गलत समझते हैं, तब यह आज़ादी नहीं, केवल उलझाव ही लाता है ।

हर व्यक्ति की जीवन-ऊर्जाओं का एकमात्र लक्ष्य अनंत को स्पर्श करना है। यही हमारे सृजन का मूल है। वे किसी दूसरे उद्देश्य को नहीं जानते। हो सकता है कि आपका मन पैसे या एक नए घर के बारे में सोच रहा हो, हो सकता है कि आपके शरीर को नींद या भोजन की लालसा हो, लेकिन आपकी ऊर्जाएँ हमेशा आपकी शारीरिक और मानसिक संरचनाओं द्वारा निर्धारित सीमाओं को तोड़ने की कामना कर रही होती हैं। धीरे-धीरे, जिंदगी चलाने की प्रक्रिया में, तमाम लोगों ने अपनी जीवन-ऊर्जाओं की दिशा के साथ चलना बंद कर दिया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि वे विश्वास करने लगे हैं कि वे एक पृथक या स्वतंत्र इकाई हैं।

लेकिन स्वतंत्र इकाई होना केवल एक भ्रम है। अपने भौतिक और मानसिक शरीरों में मौजूद चीज़ों को आपने बाहर से इकट्ठा किया है। वे आपकी हैं, लेकिन वे “आप” नहीं हैं। अगर आप अपने शरीर के बताए रास्ते पर चलना चाहते हैं, तो वह सीधे कब्र की ओर जा रहा है। इसी तरह से, जिसे भी आप अपने “मन” के रूप में जानते हैं, वह बस उन तमाम चीज़ों का जटिल संग्रह है, जो यह जमा करता रहा है। मन के उद्देश्य पूरी तरह से खुद के बनाए होते हैं। हो सकता है कि वे अभी ठीक लगें, लेकिन आम तौर पर, वे आपको जीवन-प्रक्रिया से पूरी तरह से दूर ले जाते हैं। इसलिए अगर आप मन के बताए रास्ते पर चलते हैं, तो आपको पता होना चाहिए कि आप एक वैकल्पिक मनोवैज्ञानिक सृष्टि की ओर बढ़ रहे हैं; हो सकता है कि यह आकर्षक हो, प्रेरक हो, या लंबे समय तक तसल्ली देने वाला हो, लेकिन इसका अस्तित्वगत वास्तविकता से बिलकुल भी संबंध नहीं है।

संपूर्ण योग-प्रक्रिया का लक्ष्य व्यक्ति को जीवन की विस्तार करने की स्वाभाविक लालसा के साथ एक असीमित तरीके से तालमेल में लाना है। यह प्रक्रिया मनुष्य की इस मौलिक आवश्यकता को सचेतन अभिव्यक्ति देती है। योग-विज्ञान में विभिन्न आध्यात्मिक अभ्यासों का ध्येय इस लालसा की तीन स्तरों पर सहायता करना है : भौतिक शरीर, मानसिक शरीर, और मानव-प्रणाली की तीसरी परत, प्राणमयकोष या ऊर्जा-शरीर।

योग का अर्थ शारीरिक और मानसिक प्रक्रिया का अलग-अलग अनुभव करना है, स्वयं के आधार की तरह नहीं, बल्कि उस तरह से, जो आपके द्वारा बनाया गया है। जब आप इन दो उपकरणों, शरीर और मन को सचेतन रूप से सँभालते हैं, तब जीवन का आपका अनुभव सौ प्रतिशत आपका अपना बनाया होता है। आपको बस इतना करना है कि अपने और हर उस चीज़ के बीच एक दूरी पैदा करनी है, जो आपने बाहर से इकट्ठी की है।

आपने इस जीवन में जो कुछ भी इकट्ठा किया है, वह आप जहाँ भी जाएँ, आपके साथ रहता है। यह आपसे बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है, और परिणामस्वरूप, एक अचेतन स्तर पर आपका भी इससे लगाव है। यह एक बोझ बन जाता है, क्योंकि आप नहीं जानते कि इसे कब नीचे रख देना है और कब इसे उठालेना है। इसे एक बोरे की तरह आप हर समय अपने कंधों पर ढोते हैं।

लेकिन इसे नीचे रखना आपके लिए संभव है। यह फिर भी आपका साथी होगा, लेकिन कम से कम यह उतना बोझिल नहीं होगा! जो आपने इकट्ठा किया है, उसके और खुद के बीच कुछ दूरी बनाना निश्चय ही संभव है। आप जब चाहें इसका इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन आपको इससे अपनी पहचान जोड़ना आवश्यक नहीं है। अगर आप यह दूरी कायम नहीं रख सकते, तो जीवन के बारे में आपकी पूरी समझ अस्पष्ट रहेगी। आपकी याददाश्त और आपकी कल्पना – जिसमें आपकी सारी धारणाएँ, विश्वास और भावनाएँ भी शामिल हैं – मनोवैज्ञानिक दायरे से संबंध रखती हैं। जब मनोवैज्ञानिक और अस्तित्वगत के बीच स्पष्ट दूरी होती है, केवल तभी जीवन का स्वाद लिया जा सकता है और उससे आगे जाया जा सकता है।

आध्यात्मिक प्रक्रिया का अर्थ है जीवन की ओर वापस लौटना। इसका मतलब है अपनी जीवन-ऊर्जाओं की गहरी बुद्धिमत्ता के अनुसार चलना। आपकी जीवन-ऊर्जाएँ किस दिशा में जाना चाहती हैं, इसे पहचानने के कई तरीके हैं। अगर आप शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से पहचान हटा लेते हैं, तो आप इसे स्पष्ट रूप से देख पाएँगे। जब आप सचेतन होकर अपनी जीवन-ऊर्जाओं की दिशा में जाते हैं, केवल तभी आपको समभाव और संतुलन प्राप्त होता है। केवल ऐसी स्थिर अवस्था में ही आप उल्लास के उच्चतम स्तर को खोजने और जीवन के गहनतम रहस्यों में प्रवेश करने का साहस करेंगे।

दर्द है, पर पीड़ा नहीं

यह उन दिनों की बात है, जब मैं मोटर साइकिल पर देशभर में घूमा करता था। एक दिन जब मैं एक निर्जन इलाके में था, एक अजीब दुर्घटना हुई और मेरी पिंडली की मांसपेशी हड्डी तक गहरी कट गई। मैं एक स्थानीय क्लीनिक में गया और डॉक्टर से उसका इलाज करने के लिए कहा। डॉक्टर ने घाव को देखा और कहा कि उसके पास इसे ठीक करने का कोई तरीका नहीं है, क्योंकि उसके पास सुन्न करने की सुविधा नहीं है। उसने सलाह दी कि मैं जल्दी से किसी बड़े अस्पताल जाऊँ और तुरंत चिकित्सा-सहायता प्राप्त करूँ। मैंने कहा कि मेरे पास समय नहीं है, मुझे अपनी यात्रा जारी रखनी है, क्योंकि मेरा अपने कार्यक्रम में पहुँचना ज़रूरी है। मैंने उससे कहा कि उसे ही टाँके लगाने होंगे। उसने मना कर दिया। बहुत खून बह रहा था। काफी बहस के बाद वह तैयार हो गया, क्योंकि जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ खून का तालाब बनता जा रहा था। तो बिना सुन्न किए उसने मेरी मांसपेशियों को सीना शुरू किया, जिसमें लगभग तीन अलग-अलग स्तरों पर बावन टाँके लगे। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मैं उससे बातें कर रहा था और वह पसीने-पसीने हो रहा था और हाँफ रहा था। जब सब पूरा हो गया, तो उसने मुझसे बड़े अविश्वास से पूछा, ‘क्या आपकी टाँग में बिलकुल भी दर्द नहीं हो रहा?’

दर्द था, भयंकर असहनीय दर्द था। लेकिन दर्द होना एक स्वाभाविक चीज़ है, और यह अच्छा है। बिना दर्द के आपको पता नहीं चलेगा कि आपकी टाँग कट गई या नहीं। लेकिन पीड़ा एक बिलकुल अलग चीज़ है। दर्द अपने आप में ही पर्याप्त तकलीफदेह है; पीड़ा से इसे और अधिक क्यों बनाएँ? पीड़ा पूरी तरह से खुद की पैदा की हुई होती है। और हर इंसान के पास यह विकल्प होता है : पीड़ा भोगे या नहीं। दूसरे विकल्प को चुनने में बहुत अधिक बुद्धिमत्ता की ज़रूरत नहीं होती।



कर्म का गोरखधंधा

एक बार की बात है ... एक दिन शंकरन पिल्लै अपने मित्रों के साथ शराबखाने में बैठे थे। अचानक घड़ी ने आठ का घंटा बजाया। शंकरन पिल्लै ने अपना गिलास रख दिया, उठे और दरवाजे की तरफ़ जाने लगे।

उनके दोस्तों ने कहा, ‘अरे, क्या समस्या है? तुम कहाँ जा रहे हो? अपना ड्रिंक खत्म क्यों नहीं करते?’ लेकिन शंकरन पिल्लै बिना कुछ बोले, जिंदा लाश की तरह, दरवाजे की तरफ़ चलते रहे।

उनके दोस्त हँसने लगे और बोले, ‘ठीक है, अब हम समझ गए! आठ बज गए हैं और तुम्हें घर पर होना चाहिए। तुम अपनी पत्नी से डरते हो ना? तुम क्या हो – एक मर्द या चूहा?’

शंकरन पिल्लै एक पल के लिए रुके, पीछे घूमे, और कहा, ‘मैं घर का मर्द हूँ। अगर मैं चूहा होता, तो मेरी बीवी मुझसे डरती!’

वे धीरे-धीरे चलते हुए घर पहुँचे। उनकी पत्नी का नियम था कि उन्हें आठ बजे तक घर पहुँच जाना चाहिए। आज मर्द-चूहा बहस ने और शराब के नशे में उनकी धीमी चाल ने देर करा दी। उनकी पत्नी अपने हाथ में बेलन लिए घर की ड्योढ़ी पर बैठी थी। उसने उन पर आँखें तरेरकर कहा, ‘बेवकूफ, आज फिर तुमने शराब पी है? यहाँ आओ, मैं तुम्हें दिखाती हूँ।’

शंकरन पिल्लै एक दुबले-पतले, लेकिन फुरतीले आदमी थे। वे अपनी पत्नी की तरफ़ धीरे से आगे बढ़े, लेकिन फिर वे उसके ऊपर से छलाँग लगाकर घर के अंदर भाग गए। वह उठी और उनके पीछे भागी। उन्होंने उसे घर भर में दौड़ाया। उन्हें यकीन था वह उन्हें कभी नहीं पकड़ पाएगी। काफी भागदौड़ के बाद वे बेडरूम में तीर की तरह घुसे और बिस्तर के नीचे घुस गए। वह उनके पीछे भागकर आई। वह एक मोटी औरत थी और बिस्तर के नीचे नहीं घुस सकती थी। वे वहाँ सुरक्षित लेटे हुए थे। पत्नी चिल्लाई, ‘तुम कायर हो, बिस्तर के नीचे क्या कर रहे हो? बाहर निकलो! तुम एक मर्द हो या चूहा?’

शंकरन पिल्लै ने जवाब दिया, ‘मैं इस घर का मर्द हूँ, मैं जहाँ चाहूँ, वहाँ लेटने की मुझे आज़ादी है।’

यही एकमात्र जगह थी, जहाँ उस पल वे छिप सकते थे, लेकिन वे दावा कर रहे थे कि यह उनकी आज़ादी है। दुर्भाग्य से, अधिकतर लोग बस यही कर रहे हैं : वे अपनी विवशताओं पर, अपनी सीमाओं पर अपने चयन का लेबल लगा रहे हैं। किसी परिस्थिति में जो किया जाना चाहिए, यदि आप प्रसन्नतापूर्वक कर सकते हैं, तो इसे आज़ादी कहेंगे। लेकिन जो आपको पसंद है, स्वयं को सिर्फ वहीं तक सीमित कर देना विवशतापूर्ण जीने का तरीका है। यह विवशता “कर्म” की एक चाल है। यह प्राचीन शब्द दुनिया में लोकप्रिय इस्तेमाल से क्षत-विक्षत हो गया है।

आखिर कर्म का ठीक-ठीक अर्थ क्या है?

कर्म का शाब्दिक अर्थ है “कार्य”। कार्य तीन प्रकार का होता है। यह शरीर से हो सकता है, मन से हो सकता है, या ऊर्जा से हो सकता है। आप अपने शरीर, मन या ऊर्जा से जो भी करते हैं, वह कुछ अवशेष छोड़ता है। इस अवशेष की अपनी संरचना या छाप बन जाती है, और यह परिणाम रूपी छाप आपके साथ ही रहती है। जब आपके पास काफी मात्रा में ये छापें जमा हो जाती हैं, तो धीरे-धीरे ये स्वयं को प्रवृत्तियों का रूप दे देती हैं, और आप स्वचालित खिलौने की तरह बन जाते हैं – अपनी संरचनाओं के गुलाम, अपने भूतकाल की कठपुतली।

कर्म एक पुराने सॉफ्टवेयर की तरह है, जिसे आपने स्वयं के लिए अनजाने में लिखा है। आप जिस प्रकार के कार्य करते हैं, उसी के अनुसार आप अपना सॉफ्टवेयर लिखते हैं। एक बार जब आप किसी खास तरह का सॉफ्टवेयर लिख लेते हैं, तो आपका पूरा सिस्टम उसी के अनुसार कार्य करता है। पिछली लिखी जानकारी के आधार पर स्मृति की कुछ खास संरचनाएँ बनती हैं और वे खुद को दोहराती रहती हैं। जीवन बस चक्रीय होता है।

यही कारण है कि आपके जीवन में कुछ पैटर्न बार-बार वापस आते रहते हैं। कुछ भिन्नताएँ हो सकती हैं, लेकिन वे वास्तव में वही रहते हैं, और पीढ़ियों तक स्वयं को दोहराते रहते हैं। कुछ समय बाद, यह पुनरावर्तन घातक हो सकता है। यह बताना महत्त्वपूर्ण है कि ये पैटर्न आपको भीतर से संचालित करते हैं, बाहर से नहीं। किसी दूसरे को आप पर बाहर से नियंत्रण नहीं करना होता। हर समय आपका आंतरिक तानाशाह आपको संचालित करता है। हो सकता है कि आपको लगे कि यह एक नया दिन है। परिस्थितियाँ दूसरी हो सकती हैं, लेकिन अपने भीतर से आप वही चीज़ बार-बार अनुभव करते हैं। और इसलिए, चीज़ें जितनी बदलती हैं, वे वैसी ही बनी रहती हैं – भौतिक रूप से नहीं, अनुभव के स्तर पर। आप असहाय-से कर्म की लकीर में अटके रहते हैं।

आज़ादी अब एक खोखला शब्द हो गया है, क्योंकि आप जैसा सोचते हैं, महसूस करते हैं, और जीवन को समझते हैं – यहाँ तक कि जिस तरह से आप बैठते हैं, खड़े होते हैं, और चलते हैं – वह आपकी पिछली छापों से संचालित होता है। जब से आप पैदा हुए, उस पल से आपके माता-पिता, आपका परिवार, आपकी शिक्षा, आपके मित्र, आप जहाँ रहे हैं, और आपने जहाँ की यात्रा की है – इन सब चीज़ों ने आपकी हर चीज़ तय की है। कर्म जीवन के हर पहलू पर गूढ़ रूप से छप गया है। यह आपकी मानसिक स्मृति, आपके शरीर की बुनियाद, आपकी रासायनिक संरचना, और आपकी ऊर्जा तक पर छप गया है। सब बैकअप सिस्टम हैं। अगर आप अपना शरीर या अपना दिमाग खो भी देते हैं, तब भी आप अपने कर्मों को नहीं खोते। बैकअप सिस्टम इतना सक्षम है।

जिसे आप अपना व्यक्तित्व मानते हैं – विशिष्टताएँ और प्रवृत्तियाँ, जो आप हैं – वह उन जानकारियों के कारण है, जिन्हें आपने अचेतन रूप से इकट्ठा किया है। इन प्रवृत्तियों को पारंपरिक रूप से “वासना” कहा गया है। वासना का शाब्दिक अर्थ गंध होता है। आज कूड़ेदान में किस तरह का कूड़ा है, वही तय करता है कि उससे कैसी गंध निकलेगी। आप किस तरह की गंध छोड़ते हैं, यह इससे तय होता है कि आप किस तरह की जीवन-परिस्थितियों को अपनी ओर आकर्षित करेंगे।

मान लीजिए कि कूड़ेदान में आज एक सड़ी हुई मछली है। हो सकता है कि यह गंध आपको दुर्गंध लगे, लेकिन कई दूसरे कीड़े-मकोड़े उसकी तरफ़ आकर्षित हो रहे होंगे। कल अगर कूड़ेदान में फूल पड़े होंगे, तो उसकी गंध अलग होगी और फिर भी अलग तरह के जीव-जंतु उसकी तरफ़ खिचेंगे।

लगभग तीस साल पहले जब मैं पहली बार दक्षिण भारत के शहर कोयंबटूर गया, तो एक स्थानीय डॉक्टर के घर में मेहमान बनकर रुका था। वे एक मिलनसार आदमी थे और उन्होंने मुझे अपने परिवार में हुई एक घटना बताई। वे केरल के रहने वाले थे और उनकी बड़ी बेटी को मछली बहुत पसंद थी। वह देहरादून में पढ़ रही थी जहाँ उसे मछली खाने को नहीं मिलती थी, इसलिए जब भी वह छुट्टियों में घर आती, तो हर दिन मछली खाना चाहती थी। डॉक्टर की पत्नी शाकाहारी थी, लेकिन मछली न खाने के बावजूद वह मछली पका दिया करती थी।

अगर आप देश के उस हिस्से से हैं, तो आप सुखाई गई एक खास तरह की छोटी मछली के बारे में जानते होंगे। इसकी गंध बहुत तेज होती है। अगर यह किसी ट्रक में ले जाई जा रही हो, तो आप अपनी गाड़ी उससे दो मील पीछे रखना चाहेंगे या ओवरटेक करते समय साँस रोककर रखेंगे। जब यह घर में पकाई जाती है, तो पड़ोसियों को उनके घर से भगाने की एक अच्छी रणनीति समझी जाती है! इस लड़की को उसी मछली का व्यंजन पसंद था।

तो जब उनके घर में वह सूखी मछली तली जा रही थी, तो ऐसा लग रहा था कि घर से भूतों को भगाया जा रहा है। यहाँ तक कि एक मुर्दा भी उस गंध से उठ खड़ा हो! उसकी माँ रसोई में गई और रसोइयों को बताया कि व्यंजन कैसे बनाना है, लेकिन जैसे ही मछली तलने की गंध आने लगी, वह किचन से निकल भागी, क्योंकि उसे गंध बरदाश्त नहीं हो रही थी। इस दौरान वह लड़की बेडरूम में थी, और जिस पल उसे वह गंध आई, वह भागकर किचन की तरफ़ गई। माँ और बेटी दोनों आपस में टकरा गईं – और माँ की नाक टूट गई!

मैंने इसका जिक्र किसी इनाम या दंड की मिसाल के तौर पर नहीं, बल्कि तीव्र लगाव और अरुचि के संभावित परिणामों की मिसाल के तौर पर किया है। जब ये आपके जीवन पर हावी रहते हैं, तो किसी किस्म की टूट-फूट का होना लाजिमी है। ये वासनाएँ या प्रवृत्तियाँ, आपके द्वारा किए गए शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक क्रियाकलापों की वजह से जमा हुई छापों के विशाल भंडार से पैदा होती हैं। आप जिसे अपना व्यक्तित्व कहते हैं, वह बस इन प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति है।

आज अगर आप किसी काम को एक खास तरीके से कर रहे हैं और कोई आपसे पूछता है कि आप उसे दूसरी तरह से क्यों नहीं कर सकते, तो आप अकसर कह देते हैं, ‘यह मेरा स्वभाव है। क्या मैं अपना मनचाहा नहीं कर सकता?’ यह आपका स्वभाव नहीं है। आप वह नहीं कर रहे, जो आप चाहते हैं। ये प्रवृत्तियाँ विवशता बन गई हैं। यही आपका बंधन है – एक तरह का सॉफ्टवेयर, जो आप खुद के लिए अनजाने में लिखे जा रहे हैं। एक बार जब आपका सॉफ्टवेयर तय हो जाता है, तो ऐसा लगता है कि आप अपने जीवन में केवल एक ही रास्ते पर जा सकते हैं। ऐसा लगता है कि आपकी नियति पूर्वनिर्धारित है। जबकि, आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब है कि हमने सचेतन तौर पर अपने सॉफ्टवेयर को फिर से लिखने का मन बना लिया है।

भारत में “कर्म” बहुत आम शब्द है। अगर लोग किसी किस्म का विवशतापूर्ण व्यवहार दिखाते हैं, तो दूसरे तुरंत कह देते हैं, ‘ओ, ये उनके कर्म हैं।’ इसका अर्थ है कि यह उनका अपना बनाया हुआ है। किसी अनुभव की मधुरता या कड़वाहट उस घटना में नहीं, बल्कि इस बात में है कि आप उसे कैसे लेते हैं और उसके प्रति कैसे प्रतिक्रिया करते हैं। एक व्यक्ति के लिए जो एक बहुत कड़वा अनुभव है, वही किसी दूसरे के लिए एक वरदान हो सकता है।

एक बार एक दुःखी व्यक्ति कब्र के पत्थर के पास बैठकर जोरों से रो रहा था और अपना सिर उस पर पटक रहा था, ‘ओ, मेरा जीवन! यह कितना निरर्थक है। अब जबकि तुम जा चुके हो, मेरा शरीर लाश हो गया है। काश तुम जिंदा होते! काश भाग्य इतना निर्दयी नहीं होता! अगर तुम चले नहीं गए होते, तो मेरा जीवन कितना अलग होता!’ पास में एक पादरी ने उसकी बातें सुनीं, तो बोला, ‘मुझे लगता है कि इस कब्र के नीचे लेटा व्यक्ति तुम्हारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण था?’

‘महत्त्वपूर्ण? हाँ वाकई!’ वह आदमी और जोर से रोने लगा, ‘वह मेरी पत्नी का पहला पति था!’

तो आपके जीवन की गुणवत्ता हमेशा इस बात से तय होती है कि आप जीवन को कैसे अनुभव करते हैं, न कि इस बात से कि जीवन आपके सामने क्या पेश करता है।

यह याद रखना महत्त्वपूर्ण है कि कर्म कोई नकारात्मक शब्द नहीं है। कर्म आपके जीवन को स्थिरता और स्वरूप प्रदान करता है। हर पल आपकी पाँच इंद्रियों के माध्यम से आपके सिस्टम में तमाम छापों की बाढ़ आ रही है और सब-कुछ रिकॉर्ड होता जा रहा है। इस जमा हुई जानकारी के साथ कुछ भी गलत नहीं है। यह आपके जीवित रहने के लिए बहुत उपयोगी है। अगर आपने इस सबको मिटा दिया, तो आपको जीवन के सबसे आसान पहलुओं को सँभालना भी नहीं आएगा। आध्यात्मिक प्रक्रिया कर्म की छापों के इस भंडार को ध्वस्त करने का प्रयास नहीं करती, बल्कि आपको इसके प्रति अधिक जागरूक बनने में, और इससे थोड़ी दूरी स्थापित करने में सहायता करती है। यह आपको इससे बाहर अलग खड़े होने में सक्षम बनाती है।

तो, आपका सॉफ्टवेयर अपने आप में समस्या नहीं है। यह समस्या सिर्फ तभी बनता है, जब यह आपके जीवन पर शासन करने वाला बन जाता है। अच्छे कर्म और बुरे कर्म की बात करना अच्छे बंधन और बुरे बंधन की बात करने जैसा है। ऐसी कोई चीज़ नहीं होती। कर्म बस आपकी अपनी रचना है। यह न तो अच्छा है और न ही बुरा। यह सॉफ्टवेयर तभी तक उपयोगी हो सकता है, जब आप इससे कुछ हद तक आज़ाद रहें। आध्यात्मिक प्रक्रिया का उद्देश्य बस इतना ही है : आपके ऊपर से कर्म की पकड़ ढीली करना। आपके पिछले कर्मों की प्रकृति चाहे जो हो, एक व्यक्ति में इस पल के कर्म का पूरा नियंत्रण अपने हाथ में लेने के लिए पर्याप्त जागरूकता होती है।

अगर आप किसी तरह का रूपांतरण चाहते हैं, अपने जीवन में किसी रूप में आगे बढ़ना चाहते हैं, तो यह तभी हो सकता है, जब आप कर्म के चक्रीय ढाँचे को तोड़ देते हैं। कोई भी चीज़ जो चक्रीय है, वह लगातार चलती हुई लगती है, लेकिन वास्तव में वह कहीं नहीं जाती। अगर आप जीवन के प्रति संवेदनशील हैं, तो आपको इसका एहसास जल्दी हो जाता है। अगर आप कम संवेदनशील हैं, तब आपको बूढ़े होने पर इसका एहसास होता है। हर चीज़ आपकी इच्छानुसार होती हुई लग सकती है : आपका पेशेवर जीवन सफलता की ऊँचाइयाँ प्राप्त कर सकता है, आपकी संपत्ति बढ़ सकती है, आपका परिवार फल-फूल सकता है, लेकिन आप वास्तव में कहीं नहीं पहुँच रहे होते। आप जितनी शीघ्रता से सफलता प्राप्त करते हैं, आपको इसका एहसास उतना ही जल्दी होता है। जब आप किसी न किसी तरह की अपूर्णता की एक खास अवस्था में होते हैं, तब आप सोचते हैं कि एक बार जब आपके सपने साकार हो जाएँगे, सब-कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन अगर सारी चीज़ें, जिनके आपने सपने देखे हैं, बहुत जल्दी साकार हो जाती हैं, तब आपको अचानक एहसास होता है कि यद्यपि हर चीज़ आपके मन-मुताबिक हो रही है, जीवन फिर भी अतृप्त बना हुआ है और आपकी लालसाएँ कायम हैं।

जब तक आप इस चक्र को नहीं तोड़ते, तब तक आपके जीवन में कोई असली विकल्प नहीं होते। कभी-कभी आपको लग सकता है कि आपने कुछ महत्त्वपूर्ण अनुभव किया है। चीज़ें बदली हुई लग सकती हैं, और हर चीज़ अगले तीन दिन तक शानदार लग सकती है, लेकिन चौथे दिन आप वापस उसी ढर्रे में पहुँच जाते हैं। क्या ऐसा आपके साथ कई बार नहीं हुआ? ऐसा इसलिए है, क्योंकि जब तक आप कर्मों की गिरफ्त में हैं, विचारों, भावनाओं, गतिविधियों की कोई आज़ादी नहीं होती, और सबसे बढ़कर, अनुभव की कोई आज़ादी नहीं होती।

साथ ही, कर्म से बचना भी कोई समाधान नहीं है। हो सकता है कि बचना आपको रोजमर्रा के जीवन में कुछ संतुलन और स्थिरता दे, लेकिन धीरे-धीरे यह आपको जीवन और आनंद से वंचित कर देता है। यह स्वयं में बहुत नकारात्मक कर्म है। नकारना, दमन करना, या जीवन से बचना आज़ादी के बजाय बंधन अधिक पैदा करता है। ‘मैं कर्म नहीं चाहता,’ ऐसी इच्छा रखना ही बहुत बड़ा कर्म है!

जीवन जीने की प्रक्रिया ही कर्म का विसर्जन है। अगर आप अपने जीवन के हर पल को भरपूर जीते हैं, तब आप बड़ी मात्रा में कर्म को विसर्जित कर देते हैं। आपके जीवन में जो-कुछ भी आता है, जब आप उसे पूरी तरह से अनुभव करते हैं, जब आप विचार और भावना द्वारा बिना विचलित हुए, और बिना किसी मनोवैज्ञानिक नाटक के जीवन की हर साँस को पूरी तीव्रता से अनुभव करते हैं, तब आप जीवन और मृत्यु की प्रक्रिया से ही मुक्त हो जाते हैं। आप न सिर्फ अधिक जीवंत होते हैं; आप स्वयं जीवन होते हैं।

योग आपको न सिर्फ अपने कर्म से, बल्कि कर्म के स्रोत से भी दूरी बनाने का तरीका देता है। भेद करने वाली बुद्धि ही कर्म का स्रोत है। यह हर पल आपको अपने जीवन के गुलाम होने का, या एक दर्शक होने का, या मालिक होने का विकल्प प्रदान करता है। कुछ खास मात्रा में प्रयास और अभ्यास से हम सब अपने लिए आनंद और खुशहाली का सॉफ्टवेयर लिख सकते हैं।



॥साधना॥



आपकी सारी सांसारिक उपलब्धियाँ सिर्फ उन लोगों की तुलना में कीमती हैं, जिनके पास वे नहीं हैं। जब आपको एहसास होता है कि यह आनंद किसी दूसरे के वंचित होने से पैदा होता है, तो क्या आप इसे वाकई खुशी कह सकते हैं? क्या यह एक तरह की बीमारी नहीं है? यही समय है कि हर कोई इस पर ग़ौर करे। अगर आप इस धरती पर अकेले हों, तो तब आप अपने लिए क्या चाहेंगे? स्वयं से यह प्रश्न कीजिए और देखिए कि यह आपको कहाँ ले जाता है?

इसे आजमाकर देखिए। पाँच मिनट के लिए अकेले बैठिए और यह देखिए कि आपका जीवन किस तरह का होगा, अगर आप इस दुनिया में पूरी तरह से अकेले हों। अगर आपके पास खुद से तुलना करने के लिए कोई या कुछ भी नहीं है, तो आप सचमुच किसकी लालसा करेंगे? अगर कोई बाहरी सराहना या आलोचना नहीं है, तो आपके लिए वाकई किस चीज़ के मायने होंगे? अगर आप यह हर दिन करते हैं, तो आप उस जमा किए हुए कर्म के झमेले के साथ संगति में होने के बजाय, जो आप मानते हैं कि आप हैं, उस जीवन की लालसा के साथ तालमेल में आ जाएँगे, जो जीवन आप असल में हैं।

क्रिया का मार्ग

बुनियादी तौर पर, “क्रिया” का मतलब है “आंतरिक कार्य।” आंतरिक कार्य उसे कहते हैं, जिसमें शरीर या मन या ऊर्जा के भौतिक आयाम शामिल नहीं होते। जैसा कि हमने पहले स्थापित किया है, शरीर और मन आपके हैं, लेकिन फिर भी आपसे बाहर हैं। आपने इन दोनों को बाहर से इकट्ठा किया है : शरीर भोजन का संग्रह है और मन विचारों का संग्रह। यहाँ तक कि आपके ऊर्जा-शरीर पर अंकित छाप पाँच इंद्रियों से प्राप्त जानकारी का संग्रह है। जब आपमें अपनी ऊर्जा के अभौतिक पहलू से कार्य करने की योग्यता आ जाती है, तब वह कार्य “क्रिया” कहलाता है। यह सब थोड़ा गूढ़ लग सकता है, लेकिन अगर आपको किसी ऐसे व्यक्ति से दीक्षा मिली है, जिसे ऊर्जा के क्षेत्र में दक्षता प्राप्त है, तो आपके लिए क्रिया का अभ्यास करना संभव होगा।

अगर आपके क्रिया-कलाप बाहरी अभिव्यक्ति पाते हैं, जिसमें शरीर, मन और ऊर्जा का भौतिक आयाम शामिल हो, तो वह कर्म होगा। लेकिन अगर आप भीतर की ओर मुड़कर भौतिक के सारे आयामों से परे कोई कार्य करते हैं, तो वह क्रिया होता है। कर्म आपको बाँधने की प्रक्रिया है। क्रिया आपको मुक्त करने की प्रक्रिया है। योग का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू हमेशा ऊर्जा के भौतिक आयामों से परे कार्य करना होता है। भौतिकता के चार आयामों में से आप शरीर के क्रिया-कलापों के प्रति सबसे अधिक सचेतन हैं, मानसिक क्रिया-कलापों के प्रति काफी कम, और ऊर्जा के प्रति न के बराबर। जिस पल आप अपनी जीवन-ऊर्जा के अभौतिक पहलू से कार्य करना सीख लेते हैं, तब आप अचानक अपने भीतर और बाहर आज़ादी के एक नए स्तर पर पहुँच जाते हैं।

आप अपनी जीवन-ऊर्जा के अभौतिक पहलू तक कैसे पहुँच सकते हैं? योग के सभी अभ्यास, जिसमें आसन, साँस, मन का दृष्टिकोण, और ऊर्जा को सक्रिय करना शामिल हैं, वास्तव में शरीर की पहली तीन परतों, यानी भौतिक, मानसिक और ऊर्जा-शरीर को तालमेल में लाने की दिशा में काम करते हैं। उनको तालमेल में लाने पर ही आप भौतिक से परे के आयामों तक – मौलिक जीवन-ऊर्जा तक – पहुंच बना सकते हैं।

मैंने अनेक लोगों को देखा है, जो एक साधारण-सी क्रिया करना शुरू करते हैं, और अचानक वे इतने रचनात्मक बन जाते हैं कि वे ऐसी चीज़ें हासिल करने में समर्थ हो जाते हैं, जो उन्होंने अपने जीवन में संभव होने की कभी कल्पना नहीं की थी। ऐसा सिर्फ इसलिए है, क्योंकि उन्होंने अपने कर्म की बुनियाद को थोड़ा ढीला बना लिया है। अपने शरीर, मन और ऊर्जा की भौतिक प्रक्रिया में उलझे रहने के बजाय, उन्होंने अपनी ऊर्जाओं को बदलाव के लिए झकझोर दिया है। यह ऐसी चीज़ है, जो हर इंसान करना सीख सकता है।

आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए क्रिया-योग एक बहुत शक्तिशाली तरीका है, लेकिन साथ ही यह ज़बरदस्त लगन की माँग करता है। आज के आधुनिक शहरी लोगों के लिए, जो अपने शरीर को पूरी क्षमता से इस्तेमाल करने के आदी नहीं हैं, क्रिया-योग दूभर और अमानवीय लग सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि क्रियाएँ व्यापक हैं और इनके लिए अत्यधिक अनुशासन, लगन और शुद्धता की ज़रूरत होती है। अधिकतर लोगों के पास योग के इस मार्ग पर चलने के योग्य शरीर, सोच या भावनाओं की स्थिरता नहीं है। लोगों को अपने बचपन से ही हर समय आराम से जीने की आदत पड़ जाती है। शारीरिक आराम के एक स्तर का आदी होना समस्या नहीं है। लेकिन लगातार आराम ही खोजते रहना : यही सबसे बड़ी समस्या है। उस तरह की सोच और भावनाएँ क्रिया-योग के मार्ग के लिए ठीक नहीं हैं।

साथ ही, क्रिया-योग उन लोगों से नहीं कराया जा सकता, जो हर वक्त “आज़ादी” की बात करते हैं। यह उनके लिए नहीं है, जो हमेशा पूछते रहते हैं, ‘मुझे अपनी आइसक्रीम खाने की आज़ादी क्यों नहीं है? जब मेरा मन करे, तब मैं क्यों सोकर नहीं उठ सकता? मैं जब चाहूँ, जो चाहूँ, क्यों नहीं खा और पी सकता? मैं जिसके साथ चाहूँ, जब चाहूँ, सेक्स क्यों नहीं कर सकता?’ अगर आप क्रिया का मार्ग अपनाते हैं, तो सभी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक प्रक्रियाओं में एक बुनियादी अनुशासन लाना होगा। अगर आप अपनी चेतना के शिखर को छूना चाहते हैं, तो यह अनुशासन अनिवार्य है। अगर आप पूरी रात तक पार्टी करते रहे हैं, तो अगली सुबह एेवरेस्ट की चोटी की चढ़ाई नहीं कर सकते! यही तर्क यहाँ पर भी लागू होता है।

जब आपको क्रिया-योग के कुछ नियम-अनुशासन दिए जाते हैं, तो आपको उनका पालन करना होता है। हो सकता है कि अनुशासन की आवश्यकता आप आगे चलकर समझें, लेकिन इसकी पूरी व्याख्या कभी नहीं की जा सकती। और अगर इसे समझाना पड़े, तो क्रिया का सार नष्ट हो जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि क्रिया तर्क के ढाँचे से परे जाने और अनुभव करने का साधन है, ताकि उन अभौतिक आयामों तक पहुँचा जा सके, जिन्हें आध्यात्मिक या रहस्यमय माना जाता है।

अगर मैं बस अभ्यासों की तरह आपको क्रियाएँ सिखाना चाहता, तो मैं उन्हें आसानी से एक किताब में लिख सकता था, और आप उन्हें सीख लेते और याद कर लेते। लेकिन क्रिया को एक जीवंत प्रक्रिया होने के लिए, जो आपके सिस्टम में एक खास तरह से अंकित हो जाए, एक खास अनुशासन, लगन और ग्रहणशीलता की ज़रूरत होती है। जब आप बिलकुल नए इलाके में चलते हैं, और अगर आपको राह दिखाने वाले पर भरोसा नहीं है, तो यात्रा अनावश्यक रूप से लंबी और कठिन हो जाती है।

आम तौर पर क्रिया के मार्ग पर अधिकतर गुरु शिष्यों को इंतजार कराते हैं। पारंपरिक रूप से, जब एक शिष्य किसी गुरु के पास क्रिया-योग सीखने जाता था, तो उससे एक साल तक फर्श बुहारने को कहा जाता था, और फिर एक और साल तक बरतन धोने को कहा जाता था! इसके बाद भी अगर उसका भरोसा अडिग रहता था, तब गुरु शायद उसे क्रिया की दीक्षा देने की सोचता था। इसके पीछे एक कारण है। एक बार जब आप किसी इंसान को एक खास तरह से सशक्त बना देते हैं कि उसका सिस्टम सामान्य स्तर से ज़्यादा जीवंत हो जाए, और अगर उसकी सोच और भावनाएँ वैसी नहीं हैं, जैसी कि होनी चाहिए, तो वह खुद को ही भारी नुकसान पहुँचा सकता है। हालाँकि, आज की दुनिया में लोगों में उस किस्म का भरोसा आने के लिए उनके पास उतने समय का होना और तब इन क्रियाओं को अंकित करना कठिन है। यह असंभव नहीं है, लेकिन इसकी संभावना नहीं के बराबर है।

मैंने अपने जीवन के इक्कीस साल एक शक्तिशाली क्रिया – शांभवी महामुद्रा – को रूपांतरित करने में लगाए हैं, ताकि उसे आज की दुनिया में बड़ी संख्या में लोगों को सिखाया जा सके। कुछ खास पहलुओं को, जिससे लोगों को स्वयं या दूसरों को हानि पहुँच सकती थी, या जिससे उनके आसपास के तत्त्व प्रभावित हो सकते थे, उन्हें सुरक्षित तरीके से निकाल दिया है, ताकि उसके शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक लाभ ही बाकी रह जाएँ। उन दो दशकों के दौरान मैं जानबूझकर हर तरह की सार्वजनिक पहुँच से दूर रहा, क्योंकि मेरा पूरा ध्यान मुख्यतया इस क्रिया के पुनर्गठन पर केंद्रित था, ताकि यह बिना किसी प्रतिकूल प्रभाव के व्यापक रूप से प्रदान की जा सके।

एक संपूर्ण मार्ग के रूप में क्रिया-योग सिर्फ उन लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण है, जो रहस्यमय आयाम में खोज करने में रुचि रखते हैं। अगर आपकी रुचि सिर्फ खुशहाली में है, या आप बस आत्मज्ञान चाहते हैं, तो क्रिया को एक छोटे स्तर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन क्रिया-योग को एकमात्र मार्ग की तरह अपनाने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि इसके लिए बहुत अधिक परिश्रम की आवश्यकता है।

अगर आप बिना किसी मार्गदर्शन के क्रिया के मार्ग पर बहुत तीव्रता से चलते हैं, तो भी उसका फल मिलने में कई जीवन-काल लग सकते हैं। अगर आपके लिए कोई सक्रिय रूप से इसकी प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने वाला मौजूद है, तो आंतरिक प्रकृति और रहस्यमय आयाम की खोज के लिए क्रिया सबसे शक्तिशाली और शानदार पद्धति हो सकती है। वरना क्रिया एक तरह से घुमावदार रास्ता है। इस मार्ग पर आप बस खुशहाली, आनंद या आत्मबोध ही प्राप्त नहीं करना चाहते, बल्कि जीवन बनाने की प्रक्रिया को भी जानना चाहते हैं; आप जीवन की याँत्रिकी समझना चाहते हैं। इसी कारण से यह काफी लंबी प्रक्रिया है।

क्रिया के मार्ग पर चलने वाले लोगों की मौजूदगी बिलकुल अलग तरह की होती है, क्योंकि अपनी ऊर्जा पर उनकी दक्षता होती है। वे जीवन को छिन्न-भिन्न कर सकते हैं और फिर से इकट्ठा करके जोड़ सकते हैं। अगर आप दूसरे मार्ग पर चल रहे हैं, जैसे ज्ञान-मार्ग, तो आपकी बुद्धि की धार बहुत पैनी हो सकती है, लेकिन अपनी ऊर्जाओं के साथ आप कुछ खास नहीं कर सकते। इसी तरह से, अगर आप भक्ति या समर्पण के मार्ग पर हैं, तो भी आप अपनी ऊर्जाओं के साथ कुछ खास नहीं कर सकते। और आप इसकी परवाह भी नहीं करते, क्योंकि तब आपकी भावनाओं की तीव्र मधुरता ही मायने रखती है; आप बस उसमें विसर्जित हो जाना चाहते हैं, जिसके प्रति आपकी भक्ति है। अगर आप कर्म के मार्ग पर हैं, तो आप इस दुनिया में तमाम चीज़ें कर सकते हैं, लेकिन स्वयं के साथ आप कुछ भी नहीं कर सकते। इसके विपरीत, क्रिया-योगी अपनी आंतरिक दुनिया के साथ जो चाहे कर सकते हैं, और वे बाहरी दुनिया के साथ भी काफी-कुछ कर सकते हैं।



॥साधना॥



असल में हर व्यक्ति में कर्मों की संरचना एक चक्रीय तरीके से काम करती है। अगर आप बारीकी से ग़ौर करें, तो पाएँगे कि दिनभर में वही चक्र बार-बार हो रहे हैं। अगर आप बहुत ध्यान देने वाले व्यक्ति हैं, तो आप देखेंगे कि हर चालीस मिनट में आप एक शारीरिक चक्र से गुजरते हैं। एक बार जब आपको इसका एहसास हो जाता है, तब ज़रूरी एकाग्रता और जागरूकता के साथ आप उस चक्र पर सवार हो सकते हैं और उन चक्रों द्वारा निर्धारित सीमाओं से परे जाने की तरफ़ बढ़ सकते हैं। इसलिए हर चालीस मिनट पर जीवन आपको एक अवसर प्रदान करता है – जागरूक बनने का अवसर।

हर चालीस से अड़तीस मिनट पर, दाहिने और बाएँ नथुनों से आने-जाने वाली साँस की प्रबलता में भी बदलाव आता है। आपकी साँस कुछ देर तक दाहिने नथुने में प्रबल रहती है और फिर बाएँ नथुने में। आप इस बारे में जागरूक हो जाइए, ताकि आप यह जान जाएँ कि आपके भीतर कम से कम कोई चीज़ लगातार बदल रही है। इस जागरूकता को और अधिक बढ़ाया जा सकता है और आप अपने शरीर पर सूर्य और चंद्रमा के प्रभाव के प्रति भी जागरूक हो सकते हैं। अगर आप चंद्र और सौर चक्रों के साथ अपने शरीर को संतुलन में ले आते हैं, तो आपका शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य सुनिश्चित है।

ऊर्जा का भँवर-जाल

योग-पद्धति हमें मनुष्य के ऊर्जा-शरीर की संरचना का एक व्यापक और विस्तृत दृष्टिकोण प्रदान करती है। ऊर्जा-सिस्टम में बहत्तर हज़ार नाड़ियाँ या “चैनल” होते हैं। ऊर्जा या प्राण इन्हीं नाड़ियों से होकर प्रवाहित होता है। ये बहत्तर हज़ार नाड़ियाँ तीन बुनियादी नाड़ियों से निकलती हैं : दाहिनी नाड़ी को पिंगला कहते हैं, बाईं नाड़ी को इड़ा, और बीच की नाड़ी को सुषुम्ना।

ये तीन नाड़ियाँ ऊर्जा-प्रणाली का आधार होती हैं। पिंगला पुरुष-प्रकृति का प्रतीक है और इड़ा नारी-प्रकृति का। यहाँ पर “पुरुष-प्रकृति” और “नारी-प्रकृति” का अर्थ लिंग-भेद के संदर्भ में नहीं है, बल्कि यह स्वभाव के कुछ खास गुणों से जुड़ा है। इन गुणों के प्रतीक ये दो चैनल हैं।

अगर किसी व्यक्ति की पिंगला बहुत प्रबल है, तो उसमें बहिर्मुखी और खोजी प्रवृत्ति के गुण प्रमुख होंगे। अगर इड़ा अधिक प्रबल है, तो ग्रहणशीलता और विचारशीलता के गुण मुख्य होंगे। कोई व्यक्ति पुरुष है या स्त्री, उसका इन गुणों से कोई लेना-देना नहीं है। आप एक पुरुष हो सकते हैं, फिर भी आपमें इड़ा ज़्यादा प्रबल हो सकती है; आप एक स्त्री हो सकती हैं, फिर भी पिंगला प्रबल हो सकती है।

पिंगला और इड़ा को सूर्य और चंद्रमा की तरह भी दर्शाया जाता है – सूर्य पुरुष-प्रधान गुणों का और चंद्रमा नारी-सुलभ गुणों का प्रतीक है। सूर्य प्रचंड है और अपनी किरणें चारों ओर बिखेरता है। चंद्रमा किरणों को ग्रहण करता है और परावर्तित करता है। चंद्रमा के बढ़ने-घटने के चक्र से औरतों के शरीर का चक्र जुड़ा हुआ है। आपके दिमाग के स्तर पर, पिंगला तार्किक आयाम का प्रतीक है; जबकि इड़ा सहजज्ञान आयाम का। यह द्वैत मनुष्य जीवन के भौतिक दायरे का आधार है। व्यक्ति तभी पूर्ण होता है, जब पुरुष-प्रधान पक्ष और नारी-सुलभ पक्ष दोनों पूरी क्षमता से काम करते हैं और उचित संतुलन में होते हैं।

सुषुम्ना, जो केंद्रीय नाड़ी है, आपके शरीर-विज्ञान का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिससे अधिकतर लोग आम तौर पर अनजान होते हैं। यद्यपि सुषुम्ना का बहत्तर हजार नाड़ियों से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन फिर भी यह पूरे सिस्टम की धुरी का काम करती है। एक बार जब ऊर्जाएँ आपकी सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती हैं, तब आपमें एक तरह का संतुलन बना रहता है, चाहे आपके आसपास कुछ भी क्यों न हो रहा हो। अभी, हो सकता है कि आप काफी संतुलित हों, लेकिन अगर बाहरी परिस्थिति चुनौतीपूर्ण है, तो आप भी परेशान हो जाएँगे। ऊर्जाओं के सुषुम्ना में प्रवेश कर जाने पर, आप अपने भीतर कैसे हैं, यह बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता, क्योंकि सुषुम्ना बहत्तर हजार नाड़ियों से जुड़ी नहीं है।

आजकल चक्रों की बहुत बातें हो रही हैं। “चक्र” का अर्थ है पहिया, और योग-पद्धति में इसका बहुत महत्त्व और खास मायने हैं। आजकल “ह्वील अलाइनमेंट सेंटर” होते हैं जो आपके चक्रों को संतुलित करने, आपके अवरोधों को दूर करने, और आपकी बीमारियों, भूतकाल, वर्तमान और भविष्य का उपचार करने का दावा करते हैं। इन दिनों तमाम लोग चक्रों पर काम कर रहे हैं। यह एक बड़ी सनक बन गई है, लेकिन यह खतरनाक हो सकती है। इस सूक्ष्म और गूढ़ विषय को सावधानी और सतर्कता से सँभालने का यही समय है।

नाड़ियों का कोई प्रकट रूप नहीं होता, वे दिखाई नहीं देतीं। अगर आप शरीर को काटकर उसके अंदर खोजें, तो आपको कुछ भी नहीं मिलेगा। लेकिन आप जैसे-जैसे ज़्यादा जागरूक होते जाते हैं, आप देखेंगे कि ऊर्जा यूँ ही यहाँ-वहाँ नहीं जाती, बल्कि उसके रास्ते तय होते हैं।

शरीर-तंत्र में “चक्र” वह शक्तिशाली केंद्र हैं, जहाँ नाड़ियाँ खास तरीके से मिलकर ऊर्जा का भँवर बनाती हैं। नाड़ियों की तरह चक्रों की प्रकृति भी सूक्ष्म होती है और उनका भी भौतिक अस्तित्व नहीं होता। वे अकसर एक त्रिकोण बनाते हुए मिलते हैं (वृत्त की तरह नहीं, जैसा कि “चक्र” शब्द संकेत करता है)। हर मशीन में सभी घूमने वाले पुर्जे हमेशा गोल होते हैं, क्योंकि एक गोलाकार चीज़ ही कम से कम घर्षण के साथ घूम सकती है। इन ऊर्जा-केंद्रों का ऐसा नाम इसलिए रखा गया, क्योंकि “चक्र” या “पहिया” गतिशीलता का एहसास कराता है।

शरीर में कुल 114 चक्र हैं। दो शरीर के बाहर हैं और 112 शरीर के अंदर। इन 112 चक्रों में से 7 मुख्य चक्र हैं। अधिकतर लोगों के लिए इनमें से केवल 3 सक्रिय रहते हैं; बाकी या तो मंद या कम सक्रिय रहते हैं। आपको अपना सांसारिक जीवन जीने के लिए सभी 114 चक्रों को सक्रिय नहीं करना होता। बस कुछ ही चक्रों की सहायता से आप एक काफी संपूर्ण जीवन जी सकते हैं। अगर आपको पूरे 114 चक्र सक्रिय करने हों, तो आपको शरीर का बिलकुल आभास भी नहीं रहेगा। योग का उद्देश्य आपके ऊर्जा-सिस्टम को इस तरह से सक्रिय करना है कि आपकी शारीरिक चेतना लगातार नीची होती रहे, ताकि आप यहाँ बैठकर शरीर में रहें, लेकिन खुद शरीर ना रहें।

दक्षिण भारत में सदाशिव ब्रह्मेंद्र नाम के एक प्रसिद्ध योगी थे। वे “निर्काया” थे, जिसका शाब्दिक अर्थ “शरीर-विहीन” योगी होता है। उनको अपने शरीर के होने का कोई आभास नहीं रह गया था। इस अवस्था में व्यक्ति को कपड़े पहनने का भी खयाल नहीं आता। वे बस नंगे ही घूमते थे। इस अवस्था में घर, संपत्ति या भौतिक सीमा का भी कोई बोध नहीं रहता।

एक दिन वे टहलते हुए कावेरी नदी के किनारे राजा के बगीचे में चले गए। राजा वहाँ अपनी रानियों के साथ बैठा हुआ आराम कर रहा था। अपनी ही नग्नता से अनजान सदाशिव ब्रह्मेंद्र बगीचे में घूमते रहे। राजा को बहुत गुस्सा आया, ‘यह कौन मूर्ख है, जो मेरी रानियों के सामने नंगा घूमने की हिम्मत कर रहा है?’

राजा ने अपने सिपाही उनके पीछे भेज दिए। सिपाही सदाशिव ब्रह्मेंद्र को पुकारते हुए उनके पीछे भागे। उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। वे बस टहलते रहे। गुस्से में आकर एक सिपाही ने अपनी तलवार निकाली और उन पर वार कर दिया। उनका दाहिना हाथ कटकर गिर गया। सदाशिव ब्रह्मेंद्र ने अपनी चाल तक धीमी नहीं की। वे चलते रहे।

यह देखकर सिपाही स्तब्ध रह गए और भयभीत हो गए। उन्हें एहसास हुआ कि वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। राजा और उसके सिपाही उनके पीछे भागे, उनके पैरों में गिरकर उनसे क्षमा माँगी, और उन्हें बगीचे में वापस ले आए। वे उस बगीचे में जीवनभर रहे, और अंत में अपना शरीर वहीं पर त्याग दिया।

योग-परंपरा में इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं। जब आपकी ऊर्जाएँ एक उच्च अवस्था में होती हैं, तो भौतिक अस्तित्व का बोध इतना कम हो जाता है कि व्यक्ति के लिए कई दिनों तक बिना किसी बाहरी पोषण के गुजार लेना भी संभव होता है।

मानव-शरीर-तंत्र में चक्रों की क्या भूमिका है? सात मौलिक चक्र हैं – मूलाधार, जो गुदा और जननांग के बीच स्थित होता है; स्वाधिष्ठान, जो जननांग से ठीक ऊपर होता है; मणिपूरक, जो नाभि से तीन चौथाई इंच नीचे होता है; अनाहत, जो पसलियों के मिलने की जगह के नीचे गड्ढे में होता है; विशुद्धि, जो कंठ के गड्ढे में होता है; आज्ञा-चक्र दोनों भौंहों के बीच होता है और सहस्रार चक्र, जिसे ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं, सिर की सबसे ऊपरी जगह पर होता है (यह नवजात बच्चे के सिर में ऊपर सबसे कोमल जगह होती है)।

ये चक्र सात विभिन्न आयाम हैं, जिनके माध्यम से आपकी ऊर्जा को अभिव्यक्ति मिलती है। आपके भीतर होने वाले अनुभव – क्रोध, पीड़ा, शांति, खुशी और परमानंद – आपकी जीवन-ऊर्जा की अभिव्यक्ति के अलग-अलग स्तर हैं। अगर आपकी ऊर्जा मूलाधार में प्रबल है, तो आपके जीवन में भोजन और नींद का सबसे प्रमुख स्थान होगा। अगर आपकी ऊर्जा स्वाधिष्ठान में सक्रिय है, तो आपके जीवन में सुख प्राप्त करना सबसे महत्त्वपूर्ण होगा; आप भौतिक सुखों का भरपूर मज़ा लेने का प्रयास करेंगे। अगर आपकी ऊर्जा मणिपूरक में प्रबल है, तो आप एक कर्मशील व्यक्ति होंगे; आप दुनिया में बहुत-से काम कर सकते हैं। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। इसी तरह से आपकी ऊर्जा अगर विशुद्धि में सक्रिय है, तो आपकी मौजूदगी बहुत शक्तिशाली होगी। अगर आपकी ऊर्जा आज्ञा में सक्रिय है या आप आज्ञा तक पहुँच गए हैं, तो इसका मतलब है कि बौद्धिक स्तर पर आपने सिद्धि पा ली है। यह बौद्धिक सिद्धि आपके अंदर स्थिरता और शांति की अवस्था ला सकती है। आपके आसपास चाहे कुछ भी हो रहा हो या कैसे भी हालात हों, आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

ये बस तीव्रता के अलग-अलग स्तर हैं। सुख तलाशने वाले के जीवन में भोजन और नींद के पीछे भागने वाले की तुलना में अधिक तीव्रता होती है। वह व्यक्ति, जो इस दुनिया में कुछ नया करना चाहता है, उसकी तीव्रता सुख तलाशने वाले से ज़्यादा होगी। एक कलाकार या सृजनात्मक व्यक्ति के जीवन में इन तीन लोगों की तुलना में अधिक तीव्रता होती है। अगर आपने विशुद्धि को पा लिया है, तो यह तीव्रता का बिलकुल अलग आयाम होता है, और आज्ञा का स्तर उससे भी ऊँचा है। एक बार जब इंसान की ऊर्जा सहस्रार तक पहुँच जाती है, तो वह पागलों की तरह परमानंद में झूमता है। आप बिना किसी बाहरी उकसावे के ही आनंद में झूमते हैं, क्योंकि आपकी ऊर्जाओं ने उस चरम शिखर को छू लिया है।

निचले और ऊपरी चक्रों की बात करना भ्रामक हो सकता है। यह कुछ-कुछ एक बिल्डिंग की नींव और छत की तुलना करने जैसा है। छत बेहतर नहीं होती; नींव कमतर नहीं होती। किसी बिल्डिंग की क्वालिटी, जीवन-काल, स्थिरता और सुरक्षा काफी हद तक उसकी छत की तुलना में उसकी नींव पर अधिक निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, भौतिक शरीर में आपकी ऊर्जाओं को कुछ हद तक मूलाधार में होने की आवश्यकता है। “मूल” का अर्थ है जड़ या स्रोत, और आधार का अर्थ है नींव। शरीर की बनावट में यह आधार है। अगर आपको विकास करना है, तो आपको इसे उन्नत बनाना होगा।

साथ ही, चक्रों का न केवल भौतिक आयाम होता है, बल्कि आध्यात्मिक आयाम भी होता है। अगर आप इसमें सही किस्म की जागरूकता ले आते हैं, तो उसी मूलाधार को इस सीमा तक रूपांतरित किया जा सकता है, जहाँ आप भोजन और नींद की विवशतापूर्ण आवश्यकता से पूरी तरह से मुक्त हो जाते हैं।

चक्र दो आयामों में से किसी एक आयाम में आते हैं : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक और संबंधित चक्र शरीर को स्थिर और आधार से जुड़ा रखने से अधिक संबंध रखते हैं। ये गुण धरती और आत्म-सुरक्षा से जुड़े हैं। जब आपकी ऊर्जा इन चक्रों में प्रबल होती है, तब आपके गुण सांसारिक होते हैं और आप प्रकृति की पकड़ में अधिक होते हैं। ऊपरी चक्र – विशुद्धि, आज्ञा, सहस्रार और संबंधित चक्र – ऐसे केंद्र हैं, जो आपको धरती के आकर्षण से दूर खींचते हैं। वे अनंत की लालसा से संबंध रखते हैं। वे आपको उस शक्ति के प्रति ग्रहणशील बनाते हैं, जिसे हम आम तौर पर कृपा कहते हैं।

बीच का चक्र, अनाहत, इन दो वर्गों के बीच का संतुलन है। यह आपके निचले और ऊपरी चक्रों के बीच के स्थान की तरह है – आत्म-सुरक्षा की प्रवृत्ति और मुक्ति की ओर जाने की प्रवृत्ति के बीच का स्थान। इसे एक-दूसरे को काटते हुए दो त्रिभुजों के रूप में दर्शाया जाता है। एक त्रिभुज का सिरा नीचे की ओर और दूसरे का ऊपर की ओर होता है, जिससे छह सिरों वाला सितारा या स्टार बन जाता है। कई धार्मिक परंपराओं ने इसे एक पवित्र प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया है, क्योंकि इन संस्कृतियों में कुछ आत्मज्ञानी लोगों ने अपनी परम प्रकृति को अनाहत के माध्यम से प्राप्त किया था, और उन्होंने इस चक्र के काटते हुए त्रिभुजों को अपने भीतर देखा था।

विशुद्धि का शाब्दिक अर्थ होता है छलनी। यह चक्र आपके कंठ के गड्ढे में स्थित है। अगर आपका विशुद्धि शक्तिशाली हो जाता है, तो आपके पास अपने भीतर प्रवेश करने वाली हर चीज़ को छानने की और उसे स्वीकार करने या न करने की क्षमता होती है। या दूसरे शब्दों में, एक बार जब आपका विशुद्धि बहुत सक्रिय होता है, तब आप इतने शक्तिशाली बन जाते हैं कि बाहरी प्रकृति का आप पर कोई प्रभाव नहीं होता। भारतीय प्रतिमाओं में आदियोगी को नीलकंठ यानी नीले गले वाला दर्शाया गया है, क्योंकि वे बाहरी दुनिया के विष को छानने और उसे अपने गले में रोक देने में सक्षम हैं। वे उसे अपने अंदर प्रवेश करने से रोक सकते हैं।

अगर आपकी ऊर्जाएँ आज्ञा-चक्र में प्रवेश कर जाती हैं, जो आपकी भौहों के बीच स्थित है, तब आपको बौद्धिक स्तर पर ज्ञान हो जाता है, लेकिन अनुभव के स्तर पर फिर भी मुक्त नहीं होते। भारत में आठवीं सदी में महान रहस्यदर्शी दार्शनिक आदिशंकर ने देशभर में यात्राएँ कीं और आध्यात्मिक शास्त्रार्थ में अनगिनत पंडितों को हरा दिया। उनका तर्क अकाट्य था, क्योंकि आज्ञा-चक्र में एकत्व का अनुभव व्यक्ति को बौद्धिक अंतर्दृष्टि और बोध का असाधारण स्तर प्रदान कर देता है।

सातवाँ चक्र सहस्रार वास्तव में आपके शरीर के ठीक बाहर स्थित होता है। अधिकतर लोगों के लिए यह निष्क्रिय रहता है। यद्यपि, आध्यात्मिक अभ्यास से या बहुत तीव्र तरीके से जीवन जीने से आप इसे सक्रिय कर सकते हैं। अगर आप अपने सहस्रार तक पहुँच जाते हैं, तो आपका अनुभव फिर केवल बौद्धिक नहीं रह जाता; वह आपके अनुभव में उतर आता है। आप अब अवर्णनीय परमानंद में गोते लगाते हैं और गहनतम रहस्यमय क्षेत्र आपके लिए खुलने लगते हैं। अगर आवश्यक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक संतुलन पैदा करने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक साधना नहीं की गई हो, तो कभी-कभी आप परमानंद की ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जो आपके नियंत्रण से बाहर होती है। भारतीय परंपरा में, इन परमानंद में डूबे रहस्यदर्शियों को “अवधूत” कहा जाता था। वे चेतना की इतनी बदली हुई अवस्था में होते थे कि अकसर उनके आसपास रहने वाले लोगों को उन्हें खाना खिलाना पड़ता था और उनकी देखभाल करनी पड़ती थी, क्योंकि वे जीवन के भौतिक पहलुओं को अपने आप सँभाल पाने में सक्षम नहीं होते थे।

मौलिक रूप से, किसी भी आध्यात्मिक मार्ग को मूलाधार से सहस्रार की यात्रा की तरह, या एक आयाम से दूसरे आयाम में विकास करने के रूप में देखा जा सकता है। योग-पद्धति में कई प्रकार के आध्यात्मिक अभ्यास हैं, जो व्यक्ति को अपनी ऊर्जाओं को एक चक्र से दूसरे चक्र में ले जाने में सहायता करते हैं। लेकिन, आज्ञा से सहस्रार में जाने का कोई मार्ग नहीं है। आपको उसमें या तो छलाँग लगानी होती है या उसमें गिरना होता है।

भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गुरु की ज़बरदस्त महत्ता के पीछे यह एक कारण है। आज्ञा से सहस्रार में छलाँग लगाने के लिए अत्यधिक भरोसे की आवश्यकता होती है। मान लीजिए कि आपके सामने अतल कुंड है, और कोई आपको उसमें कूद जाने को कहता है। ऐसा कर सकने के लिए आप या तो पूरी तरह से पागल होंगे, या आपमें असाधारण साहस होगा, या आपको उस व्यक्ति पर अटूट भरोसा होगा। बहुत कम लोग इतने पागल होते हैं कि वे अपना जीवन पूरी बेफिक्री में जी सकें; अधिकतर लोग सावधानी से, और अपनी सीमाओं की रक्षा करने की ज़रूरतों से संचालित होकर जीते हैं। तो, 99.9 प्रतिशत लोगों के लिए भरोसे की ज़रूरत होती है। बिना भरोसे के वे कभी छलाँग नहीं लगाएँगे।

हालाँकि, इस अगाध कुंड को डरावनी खाई की काली छवि के रूप में देखने की ज़रूरत नहीं है। इसके बदले, यह एक ऐसे स्थान को दर्शाता है, जो चोट खाने और पीड़ा की सभी संभावनाओं से मुक्त है। यह एक बिलकुल नया आयाम है, जो दोषरहित तरीके से न दोहराने वाला है। यह आयाम तुलना से परे है। यह आपको एक अलग इकाई के बजाय सर्व-समावेशी अनंत प्रकृति में, आनंद से परे की निश्चलता में पहुँचाता है।

और इसलिए, छलाँग लगाना फायदेमंद है। छलाँग ही सब-कुछ है। इस छलांग से तली-रहित अगाध कुंड सीमा-रहित आज़ादी बन जाता है।



॥साधना॥



खुली आँखों से, अपनी भौंहों के बीच के स्थान से छह से नौ इंच की दूरी पर बारह से अड़तालीस मिनट तक अपना ध्यान केंद्रित करने से आपको अपने अलग-अलग चक्रों की प्रकृति और संरचना का एहसास हो सकता है। यह आपके ध्यान के स्तर और उसकी अवधि पर निर्भर करेगा। इसका बोध तनावपूर्ण बाहरी परिस्थितियों के कारण होने वाले चक्रों की अनियमित हलचल को स्थिर करने में सहायता कर सकता है। क्रिया-योग के एक बहुत परिष्कृत प्रकार का यह बस एक पहलू है, जो आपको अपने आंतरिक आकाशीय आयाम तक पहुँच प्रदान करता है।

अनजानी राह

योग के छठे अंग को “ध्यान” कहा जाता है। यह वास्तव में अपनी शारीरिक और मानसिक संरचना की सीमाओं से परे उठने के बारे में है। ध्यान बौद्ध भिक्षुओं के साथ भारत से चीन तक गया, जहाँ इसे “चान” कहा जाने लगा। यह योग दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों से होता हुआ जापान पहुँचा और “ज़ेन” बन गया, और बिना किसी सिद्धांत पर जोर दिए, यह सीधे अंतर्दृष्टि पाने की पूरी पद्धति के रूप में प्रचलित हुआ। ज़ेन एक ऐसा आध्यात्मिक मार्ग है, जिसमें कोई ग्रंथ, किताबें, नियमावली या पूर्वनिर्धारित अभ्यास नहीं हैं। यह एक अपरिचित मार्ग है।

उस पद्धति के इस्तेमाल का, जिसे हम अब ज़ेन कहते हैं, पहला लिखित जिक्र लगभग आठ हजार साल पहले मिलता है, जो गौतम बुद्ध से बहुत पहले का काल था। राजा जनक बहुत तेजस्वी व्यक्ति और प्रचंड साधक थे। उनके अंदर जानने की आग निरंतर जलती रहती थी। उन्होंने अपने राज्य के सभी आध्यात्मिक गुरुओं से सलाह ली थी। कोई भी उनकी सहायता नहीं कर सका, क्योंकि उन सबने पुस्तकें पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया था। उन्हें अब तक कोई ऐसा नहीं मिला था, जिसको आंतरिक अनुभव प्राप्त हुआ हो।

एक दिन राजा शिकार करने के लिए गए। जंगल में बहुत अंदर तक घुड़सवारी करने के बाद उन्हें एक योगी दिखे। वे रुक गए। एक छोटी कुटिया के सामने अष्टावक्र बैठे हुए थे। वे तब तक के सर्वाधिक सिद्ध योगियों और आध्यात्मिक गुरुओं में से एक थे। जनक उनका अभिवादन करने के लिए घोड़े से उतरने को तैयार हुए। उन्होंने उतरने के लिए काठी पर से अपना पैर घुमाया ही था कि अष्टावक्र ने कहा, “रुको!”

जनक वहीं रुक गए। उनका एक पैर रकाब में था और दूसरा बीच हवा में। वह एक कष्टदेह स्थिति थी, लेकिन जनक उसी स्थिति में अष्टावक्र को देखते हुए बिना हिले लटके रहे। हम नहीं जानते कि गुरु ने उन्हें कितनी देर तक उस तरह से रखा, लेकिन उस कष्टदेह स्थिति में अचानक जनक को पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त हो गया। अष्टावक्र ने जो तरीका अपनाया, वह उस तरह का था, जिसे आजकल दुनिया में आम तौर पर ज़ेन के नाम से जानते हैं।

एक बार की बात है ... एक ज़ेन-गुरु थे जिनका हर कोई आदर करता था, लेकिन वे किसी तरह की शिक्षा नहीं देते थे। वे अपने कंधों पर हमेशा एक बोरी लेकर चलते थे, जिसमें बहुत-सी चीज़ें होती थीं, और उन चीज़ों में कुछ मिठाइयाँ भी होती थीं। वे जिस भी गाँव या कस्बे में जाते थे, बच्चे उनके चारों ओर इकट्ठे हो जाते थे, और वे उनमें मिठाई बाँटकर चल देते थे। लोग उनसे शिक्षा देने को कहते थे, लेकिन वे हँस देते और अपने रास्ते चले जाते।

एक दिन एक आदमी, जो खुद एक प्रसिद्ध ज़ेन-गुरु था, उनसे मिलने आया। वह यह सुनिश्चित करना चाहता था कि क्या यह बोरी वाला आदमी वास्तव में एक ज़ेन है या नहीं। तो उसने उनसे पूछा, ‘ज़ेन क्या है?’ तुरंत उस आदमी ने बोरी नीचे गिरा दी और सीधा खड़ा हो गया।

तब उसने पूछा, ‘ज़ेन का उद्देश्य क्या है?’ इस पर उस आदमी ने बोरी उठाकर अपने कंधों पर डाल ली और चल दिया।

योग भी ऐसा ही है। सारे आध्यात्मिक अभ्यास ऐसे ही हैं। जब आप योग या ज़ेन की अवस्था प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको अपना बोझ गिरा देना होता है, रास्ते में हर चीज़ को छोड़ देना होता है, सबसे आज़ाद रहना होता है, और सीधे खड़े होना होता है। और योग का उद्देश्य क्या है? सचेतन होकर पूरे बोझ को एक बार फिर से उठा लेना। और अब यह बोझ जैसा नहीं लगता!



प्रतिष्ठा-विज्ञान

किसी स्थान को पवित्र बनाने या उसकी प्रतिष्ठा करने का क्या अर्थ है?

“प्रतिष्ठा” शब्द अकसर थोड़ी लापरवाही से इस्तेमाल होता है। अधिकांश लोगों के लिए इसका मतलब विस्तृत रीति-रस्मों को संपन्न करना है, जो हमारे जीवन को बहुत सुंदरता और कलात्मकता प्रदान करती हैं, लेकिन इसकी कोई असली उपयोगिता नहीं है। अधिकतर लोग मानते हैं कि यह बस बकवास है, जिसका मकसद आध्यात्मिक प्रक्रिया को उलझाना और अधिकांश भोले-भाले डरपोक लोगों का शोषण करना है। यही समय है कि हम इस सतही समझ को छोड़ें और गहराई में देखें।

अगर आप मिट्टी को भोजन में रूपांतरित करते हैं, तो हम उसे कृषि कहते हैं। अगर आप भोजन को मांस और हड्डी में बदलते हैं, तो हम उसे पाचन कहते हैं। अगर आप मांस को फिर से मिट्टी बना देते हैं, तो हम उसे दाह-संस्कार

कहते हैं। अगर आप इस मांस या किसी पत्थर या फिर किसी खाली स्थान को ईश्वरीय संभावना में बदल देते हैं, तो उसे प्रतिष्ठा कहते हैं।

प्रतिष्ठा एक जीवंत प्रक्रिया है। यह एक संस्कृत-शब्द है। जैसा कि हमने पहले चर्चा की है, आधुनिक विज्ञान हमें बताता है कि हर चीज़ बस एक ही ऊर्जा है, जो खुद को करोड़ों अलग-अलग तरीकों से अभिव्यक्त कर रही है। अगर ऐसा है, तो जिसे आप ईश्वर कहते हैं, जिसे आप पत्थर कहते हैं, जिसे आप आदमी या औरत कहते हैं या राक्षस कहते हैं, वे सभी अलग-अलग तरीकों से काम करती हुई एक ही ऊर्जा है। अगर आपके पास ज़रूरी तकनीक है, तो आप अपने आसपास के साधारण-से स्थान को एक ईश्वरीय ऊर्जा से सराबोर कर सकते हैं। आप बस एक चट्टान के टुकड़े को लेकर उसे देवी या देवता बना सकते हैं। इस प्रक्रिया को प्रतिष्ठा कहते हैं।

खासकर भारत में, प्राचीन समय से प्रतिष्ठा-प्रक्रिया के बारे में ज्ञान के एक विशाल भंडार को पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम रखा गया है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आपका जीवन चाहे जितना अच्छा क्यों न हो, या आप चाहे जितने समय तक क्यों न जीएँ, जीवन के एक मोड़ पर आपमें सृष्टि के स्रोत के संपर्क में आने की मौलिक लालसा अवश्य उठेगी। अगर इन गहरे आयामों तक पहुँचने की संभावना पैदा नहीं की जाती और हर खोजने वाले व्यक्ति को उपलब्ध नहीं कराई जाती, तो समाज को अपने नागरिकों के लिए असली खुशहाली प्रदान करने में असफल माना जाएगा।

इस जागरूकता की वजह से ही भारतीय संस्कृति में लोगों ने हर गली में मंदिर बनाए। इसके पीछे विचार मंदिरों के बीच होड़ पैदा करना नहीं था। सोच बस इतनी थी कि कोई भी ऐसे स्थान में न रहे, जो प्रतिष्ठित नहीं है।

किसी व्यक्ति के लिए प्रतिष्ठित स्थान में रहना एक बड़े सौभाग्य की बात होती है। जब आप ऐसा करते हैं, तब आपके जीने का तरीका बिलकुल अलग हो जाता है। आप पूछ सकते हैं, ‘क्या मैं उसके बिना नहीं रह सकता?’ आप रह सकते हैं। अगर आप जानते हैं कि आप अपने खुद के शरीर को मंदिर कैसे बनाएँ, तो मंदिर जाना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। हाँ, आप अपने शरीर की भी प्रतिष्ठा कर सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या आप उसे वैसा कायम रख पाते हैं?

सारी आध्यात्मिक दीक्षाएँ इस हाड़-मांस के शरीर को मंदिर की तरह प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से होती हैं; उसके बाद सिर्फ उसे कायम रखने की ज़रूरत होती है। दीक्षा के बाद हर दिन आध्यात्मिक अभ्यास करना अपने सिस्टम को जीवंतता की उच्च अवस्था में कायम रखने का एक तरीका है। कभी औपचारिक तौर पर, तो कभी अनौपचारिक तौर पर, मैंने समय-समय पर लोगों को शक्तिशाली रूप से प्रतिष्ठित किया है। एक निर्जीव वस्तु, जैसे कि एक पत्थर को प्रतिष्ठित करने में भारी मात्रा में जीवन की कीमत देनी होती है। इंसानों को जीवंत मंदिर बनाना काफी कम खर्चीला है और यह पर्यावरण के लिए अनुकूल है – और साथ ही, वे कहीं भी जा सकते हैं! हालाँकि फायदे कई हैं, लेकिन समस्या यह है कि व्यक्ति को इसे कायम रखने लिए कुछ खास मात्रा में समय, लगन और ऊर्जा लगानी पड़ती है, वरना यह काम नहीं करेगा।

जब दुनिया में लोग बहुत भटके हुए हों, और खुद को एक जीवंत मंदिर बनाने को अनिच्छुक हों, तब पत्थर के मंदिर बनाना आवश्यक हो जाता है। मंदिर बनाने का बुनियादी उद्देश्य उन अधिकांश लोगों को फायदा पहुँचाना है, जिनके जीवन में कोई आध्यात्मिक अभ्यास या साधना नहीं है। अगर कोई इस तरह के प्रतिष्ठित स्थान पर साधना कर सकता है, तो यह दोगुना फायदेमंद होता है। खासकर उनके लिए बाहरी मंदिर अनमोल होता है, जो अपने शरीर को मंदिर बनाना नहीं जानते।

प्रतिष्ठा अनेक तरीकों से की जाती है, लेकिन आम तौर पर इसके लिए विधि-विधान, मंत्र, ध्वनियों, रूपों और दूसरी कई चीज़ों का इस्तेमाल होता है। इसे लगातार देखरेख की ज़रूरत होती है। मंदिर में रीति-रस्म आपके लिए नहीं किए जाते; वे वहाँ पर स्थापित देवता या ऊर्जा-रूप को जीवंत रखने के लिए होते हैं। यह देवता क्या है? यह एक खास उद्देश्य के लिए, जीवन के विभिन्न पहलुओं में तृप्ति प्राप्त करने का साधन होता है। वास्तव में, देवता के लिए पारंपरिक शब्द “यंत्र” है, जिसका शाब्दिक अर्थ मशीन या एक कार्यशील ऊर्जा-रूप होता है। प्राचीन काल से लोगों से हमेशा कहा गया है कि घर में पत्थर की मूर्ति मत रखें। अगर आप उन्हें रखते हैं, तो हर दिन आपको सही तरीके की विधि-विधान प्रक्रिया द्वारा उनकी देखरेख करनी चाहिए। अगर किसी मूर्ति की प्रतिष्ठा मंत्रों से की गई है, और अगर हर दिन ज़रूरी देखरेख नहीं की जाती, तो मूर्ति की ऊर्जा घटने लगती है। इससे आसपास रहने वाले लोगों को भारी नुकसान पहुँच सकता है। दुर्भाग्य से, बहुत-से मंदिरों की दशा ऐसी ही हो गई है, क्योंकि लोगों ने मूर्ति की देखरेख सही तरीके से नहीं की, क्योंकि वे मूर्ति को जीवंत रखना नहीं जानते थे।

प्राण-प्रतिष्ठा इस मायने में अलग प्रक्रिया है, क्योंकि इसमें किसी चीज़ की प्रतिष्ठा के लिए आपकी अपनी जीवन-ऊर्जा इस्तेमाल होती है। जब आप इस विधि से किसी रूप को प्रतिष्ठित करते हैं, तब उसे किसी तरह के रखरखाव या देखभाल की ज़रूरत नहीं होती। यह शाश्वत होता है। जब मैंने ध्यानलिंग की प्रतिष्ठा करने का अपने जीवन का लक्ष्य पूरा किया, तब यह प्राण-प्रतिष्ठा के जरिये किया था। दक्षिण भारत में कोयंबटूर के ईशा योग केंद्र में 1999 में स्थापित ध्यानलिंग एक सूक्ष्म ऊर्जा-रूप है, जिसमें सारे चक्र अपनी तीव्रतम क्षमता पर काम कर रहे हैं। इसी कारण से वहाँ पर किसी तरह का अनुष्ठान या पूजा नहीं की जाती। इसकी ज़रूरत नहीं है। ध्यानलिंग को किसी रखरखाव की ज़रूरत नहीं, क्योंकि उसकी ऊर्जा कभी घटेगी-बढ़ेगी नहीं। अगर आप लिंग के पत्थर को हटा भी दें, तो भी वह वैसा ही रहेगा। समय के साथ धरती पर होने वाले भौतिक या भौगोलिक परिवर्तनों के बावजूद लिंग का ऊर्जा-स्वरूप गायब नहीं होगा! ऐसा इसलिए है, क्योंकि असली लिंग अभौतिक आयाम से बना है, वह नष्ट नहीं किया जा सकता।

भारत के मंदिर कभी प्रार्थना की जगह नहीं थे। परंपरा यह थी कि सुबह उठते ही आप सबसे पहले नहाते थे और सीधे मंदिर जाते थे, वहाँ कुछ देर बैठते थे, और उसके बाद ही अपना दिन शुरू करते थे। मंदिर बैट्री चार्ज करने के सार्वजनिक स्थल जैसा होता था। आजकल अधिकतर लोग यह भूल चुके हैं। वे बस मंदिर जाते हैं, कुछ माँगते हैं, फर्श पर एक सेकंड को बैठते हैं और बाहर आ आते हैं। इसका कोई तुक नहीं है। वहाँ जाने का मतलब है वहाँ की ऊर्जा को अपने अंदर आत्मसात करना।

कोयंबटूर के ध्यानलिंग मंदिर से इसका लाभ उठाने के लिए आपको किसी चीज़ में विश्वास करने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ कोई प्रार्थना करने, कुछ चढ़ावा चढ़ाने या रस्म निभाने की आवश्यकता नहीं है। आपको बस अपनी आँखें बंद करके कुछ देर के लिए बैठने के लिए कहा जाता है। अगर आप स्वयं आजमाते हैं, तो आप पाएँगे कि यह एक ज़बरदस्त अनुभव होता है। ध्यानलिंग तीव्रता का वह उच्चतम स्तर है, जिसे कोई रूप या आकृति प्राप्त कर सकती है। यहाँ तक कि अगर कोई व्यक्ति, जिसे ध्यान के बारे में कुछ भी मालूम नहीं, वहाँ आकर बैठता है, तो वह अपने आप ध्यान की अवस्था में चला जाएगा। यह इस तरह का अद्भुत साधन है।

अगर मुझे आवश्यक समर्थन और मौका मिले, तो मैं पूरी धरती को ही प्रतिष्ठित करना चाहूँगा। मैं इसी चीज़ में निपुण हूँ : तरल हवा को एक बहुत शक्तिशाली जीवंत स्थान में बदलने में, धातु या पत्थर के टुकड़े को ईश्वरीय स्पंदन में बदलने में। मेरा स्वप्न है कि एक दिन पूरी मानवता को प्रतिष्ठित वातावरण में रहना चाहिए। आपके घर को प्रतिष्ठित होना चाहिए, आपकी सड़क को प्रतिष्ठित होना चाहिए, आपके ऑफिस को प्रतिष्ठित होना चाहिए। वे सारे स्थान प्रतिष्ठित होने चाहिए, जहाँ आप अपना समय बिताते हैं। जब आप ऐसे स्थान में रहते हैं, तब आपके विकास को डार्विन जैसे किसी पैमाने के अनुसार होने की ज़रूरत नहीं है; आप सीधे ही परम खुशहाली और आज़ादी की अवस्था की ओर लंबी छलाँग लगा सकते हैं।

भारत में अधिकतर प्राचीन मंदिर शिव के लिए बनाए गए थे – शिव यानी “वह जो नहीं है।” देश में हजारों शिव-मंदिर हैं, और उनमें से अधिकतर में कोई मूर्ति नहीं है। उनमें प्रतीक के तौर पर एक लिंग मौजूद है।

“लिंग” शब्द का मतलब है “आकार या रूप” जब सृष्टि की शुरुआत हुई, या जब निराकार ने आकार लेना शुरू किया, तब इसका सबसे पहला आकार एक दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) यानी तीन-आयामी दीर्घ-वृत्त का था, जिसे हम लिंग कहते हैं। यह दीर्घवृत्ताभ के रूप में शुरू हुआ, और फिर इसने कई दूसरे आकार और रूप ले लिए। अगर आप गहन ध्यान की अवस्था में चले जाते हैं, तो आप पाएँगे कि पूर्ण विसर्जन से ठीक पहले, ऊर्जा एक बार फिर लिंग का रूप ले लेती है। आधुनिक ब्रह्मांड-विज्ञानियों ने यह पता लगाया है कि हर आकाशगंगा का केंद्र हमेशा एक दीर्घवृत्ताभ होता है।

तो, आम तौर पर योग में लिंग को एक परिपूर्ण रूप यानी अस्तित्व का बुनियादी रूप माना जाता है। पहला और आखिरी रूप लिंग ही होता है। इन दोनों के बीच में सृष्टि बनती है। उससे परे जो है, “वह जो नहीं है”, वही शिव है। तो, लिंग का रूप सृष्टि की संरचना में एक छेद या द्वार है। भौतिक सृष्टि के लिए पीछे का द्वार लिंग होता है और सामने का द्वार भी लिंग होता है! यही चीज़ मंदिर को भौतिक की संरचना का द्वार बना देती है। आप इसमें विसर्जित हो सकते हैं और पार जा सकते हैं : यही बात इसे इतनी ज़बरदस्त संभावना बनाती है।

एक रोचक बात यह है कि लिंग दुनिया में बहुत जगहों पर मिलते हैं। अफ्रीका में मिट्टी के लिंग हैं, जो अधिकतर गुह्य-विद्या के लिए इस्तेमाल होते हैं। डेल्फी में ज़मीन के नीचे एक लिंग है, जिसे धरती की नाभि कहते हैं। यह विशुद्ध रूप से मणिपूरक लिंग है, समृद्धि और भौतिक खुशहाली के लिए। जब किसी ने मुझे इसकी तसवीर दिखाई, तो मैं तुरंत जान गया कि किस तरह के लोगों ने इसे प्रतिष्ठित किया होगा। यह अवश्य ही भारतीय योगियों द्वारा हजारों साल पहले किया गया था; इसमें कोई संदेह नहीं है।

जब मैंने टेनेसी में 2015 में योग के प्रवर्तक आदियोगी को प्रतिष्ठित किया था, तो उसे पश्चिमी दुनिया में पारंपरिक योग के लिए ऐतिहासिक घटना और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना गया। दिलचस्पी के तमाम प्राचीन स्थानों को देखने के बाद मुझे पक्का यकीन है कि ऊर्जा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इस किस्म की कोई घटना उत्तरी अमेरिका या वास्तव में पश्चिमी गोलार्ध में पिछले तीन हजार सालों में नहीं हुई। प्राण-प्रतिष्ठा प्रक्रिया के जरिये प्रतिष्ठित यह स्थान सबसे पहले योगी, आदियोगी के लिए श्रद्धांजलि है। पूरी तरह से योग-साधना और अभ्यास के लिए समर्पित यह स्थान उच्चतम स्तर के ऊर्जावान कंपन और प्रचुरता का जीवंत भंडार है। यह पश्चिम के साधकों के लिए अनोखी आध्यात्मिक संभावना प्रस्तुत करता है।

अभी भारत में अधिकतर लिंगों में एक या ज़्यादा-से-ज़्यादा दो चक्र सक्रिय होते हैं। वे हमेशा भौतिक खुशहाली के लिए प्रतिष्ठित किए गए थे। शांति और आनंद बढ़ाने के लिए कुछ अनाहत लिंग भी हैं। ध्यानलिंग इस मायने में अनोखा है कि इसमें सभी सात चक्र ऊर्जा के अपने चरम स्तर पर हैं। सात चक्रों के लिए सात अलग-अलग लिंग बनाना काफी आसान होता, लेकिन उनका असर इतना नहीं होता। तो, ध्यानलिंग सर्वोच्च विकसित प्राणी के ऊर्जा-शरीर की तरह है (पारंपरिक तौर पर जिन्हें शिव कहते हैं), जो अनंतकाल तक सभी के लिए उपलब्ध रहेगा। यह सर्वोच्च अभिव्यक्ति है, जो संभव हो सकती है।

अगर आप ऊर्जा को तीव्रता के सर्वोच्च स्तर तक ले जाते हैं, तो वह एक खास सीमा तक ही रूप बनाए रह सकती है। इसके बाद वह निराकार हो जाती है और अधिकतर लोग उसे अनुभव करने में असमर्थ होते हैं। ध्यानलिंग की प्रतिष्ठा इस तरह से की गई है कि उसमें ऊर्जा को उस सर्वोच्च शिखर तक घनीभूत किया गया है, जिसके बाद कोई आकार नहीं बचेगा। इसका निर्माण इसलिए किया गया था, ताकि हर उस साधक को एक जीवंत गुरु के सान्निध्य में बैठने का मौका उपलब्ध हो, जिसमें इसकी लालसा है।

सबसे बढ़कर, जो बात ध्यानलिंग को एक अभूतपूर्व आध्यात्मिक संभावना बनाती है, वह यह है कि यह जीवन को उसकी पूरी गहनता और पूर्णता में अनुभव करने का अवसर देता है। जो व्यक्ति इसके आभा-मंडल में आता है, वह आकाशीय शरीर या विज्ञानमय-कोष के स्तर पर प्रभावित होता है। अगर आप भौतिक, मानसिक या ऊर्जा-शरीर के माध्यम से कुछ रूपांतरण लाते हैं, तो वह जीवन के दौर में खत्म हो सकता है। लेकिन एक बार जब आपको आकाशीय शरीर के स्तर पर छुआ जाता है, तो यह हमेशा के लिए होता है। अगर आप कई जीवन-कालों से होकर भी गुजरते हैं, फिर भी मुक्ति का यह बीज अंकुरित होने और खिलने के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा करेगा।

साढ़े तीन साल की बहुत गहन प्रतिष्ठा-प्रक्रिया के बाद मैंने ध्यानलिंग को पूरा किया। कई योगियों और सिद्ध-पुरुषों ने इस तरह के लिंग का सृजन करने की कोशिश की थी, लेकिन विभिन्न कारणों से, सारे ज़रूरी तत्त्व एक-साथ नहीं जुटाए जा सके। यह मेरी इच्छा नहीं थी; यह मेरे गुरु की इच्छा थी। हालाँकि मेरे गुरु के साथ मेरा संपर्क क्षणभर को ही था, फिर भी यह हर रूप में प्रभावशाली था। इसने मेरे जीवन का हर कदम निर्धारित किया है, यहाँ तक कि मेरा जन्म भी। मेरे गुरु की कृपा से और तमाम ऐसे लोगों के प्रेम, सहयोग और समझ से – जिन्होंने जाने में या अनजाने में, इच्छा से या अनिच्छा से, सचेतन रूप से या अचेतन रूप से खुद को इसके लिए अर्पित कर दिया – ध्यानलिंग अंततः पूरा हो चुका है। मैं उन सब लोगों का आभारी हूँ।



॥साधना॥



अगर आप पाँच तत्त्वों को एक खास सरल संरचना में इस्तेमाल करना सीख लेते हैं, तो आप अपने लिए एक बहुत लाभदायक ऊर्जा-क्षेत्र बना सकते हैं। यहाँ पर एक आसान विधि दी गई है, जिसे आप आजमा सकते हैं।

नीचे दी गई आकृति को चावल या किसी दूसरे अन्न के आटे से बनाइए। इसके केंद्र में पानी से भरी थाली में एक घी का दीया रखिए। पानी में एक फूल रखिए। आपने अब पानी, अग्नि और वायु से एक ज्यामितीय आकृति बना ली है। पानी में रखा फूल धरती को दर्शाता है। आकाश या ईथर निसंदेह हमेशा उपस्थित रहता है।



इस आसान प्रक्रिया को हर शाम को कीजिए। आप पाएँगे कि आपके कमरे की ऊर्जा एक सूक्ष्म किंतु शक्तिशाली तरीके से बदल गई है। इस तरीके से, आप अपने घर या ऑफिस को हर दिन अनोखे तरीके से सशक्त कर सकते हैं।

दिव्य-ऊर्जा से सराबोर पहाड़

अधिकतर योगियों और दिव्यदर्शियों के लिए समस्या यह रही है कि वे अपने बोध का फल अपने आसपास के लोगों के साथ कभी बाँट नहीं सके। ऐसे व्यक्ति को खोजना आसान नहीं है, जो उसे ग्रहण करने के योग्य हो, जो चीज़ आप जानते हैं। अगर आपको एक भी व्यक्ति मिल जाता है, तो आप भाग्यशाली हैं।

तो, अधिकतर आध्यात्मिक गुरुओं ने अपने ज्ञान को कुछ खास जगहों पर ही जमा किया है। ये निर्जन स्थान थे, लेकिन पूरी तरह से दुर्गम नहीं थे। उन्होंने अकसर पहाड़ की चोटियाँ चुनीं, क्योंकि ऐसी जगहों पर लोगों का आना-जाना और व्यवधान कम होता है। भारत में इस तरह के कई शानदार स्थान हैं। कैलाश पर्वत (पश्चिमी तिब्बत में एक पर्वत की चोटी, जिसे अथाह शक्तिशाली और प्राचीनतम पवित्र स्थान माना जाता है) एक ऐसा स्थान है, जहाँ बहुत लंबे समय से ज्ञान का सर्वाधिक भंडार ऊर्जा के रूप में संचित है।

कैलाश इस धरती पर रहस्यमय ज्ञान का महानतम पुस्तकालय है। पूर्व के लगभग सभी धर्म उसे बहुत पवित्र मानते हैं। हिंदुओं में पारंपरिक तौर पर माना जाता है कि यह परमेश्वर शिव और उनकी पत्नी पार्वती का निवास है। बौद्ध लोग उसे इसलिए पवित्र मानते हैं, क्योंकि माना जाता है कि उनके तीन महान बुद्ध वहाँ रहते हैं। जैनियों का मानना है कि उनके पहले गुरु या तीर्थंकर ने वहीं पर मुक्ति प्राप्त की थी। तिब्बत का मूल धर्म बॉन भी उसे बहुत पवित्र स्थान मानता है।

पिछले ग्यारह सालों से मैं तीर्थ-यात्रियों को अपने साथ लेकर कैलाश जाता रहा हूँ। जब मैं 2007 में वहाँ गया था, तब मेरा स्वास्थ्य खास तौर पर खराब था। मैं कई हफ्तों से बिना रुके यात्रा कर रहा था, जिसके दौरान दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चकराए हुए डॉक्टरों ने मुझे कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त बताया, जिसमें मलेरिया, डेंगू, टाइफाइड और कैंसर तक शामिल था। हैरान डॉक्टरों ने मेरे खून की रिपोर्ट को रहस्यमय करार दे दिया था। अंत में, मैंने अपने अंदर झाँकने और खुद के ऊपर काम करने का निश्चय किया। कुछ दिनों बाद मैं कैलाश गया। इस वक्त तक मैं थोड़ा ठीक हो गया था, लेकिन फिर भी बहुत कमजोर था। जब मैंने कैलाश पर्वत को देखा, तो पाया कि वहाँ बहुत अधिक दिव्य या रहस्यमय ज्ञान पाए जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। तो मैंने कैलाश से ऊर्जा की एक लड़ी ली और उसे अपने ऊर्जा-तंत्र से एक खास तरह से जोड़ दिया। जैसे ही मैंने वह किया, मेरे अंदर जीवंतता का अचानक उफान आ गया और मेरा जर्जर ऊर्जा-शरीर, जो आठ हफ्तों के बुखार से लगभग नष्ट हो गया था, पुनः सामान्य हो गया। मैं जवान दिखने लगा, जवान महसूस करने लगा, यहाँ तक कि मेरी आवाज भी बदल गई – वह भी बस लगभग एक ही घंटे में! बदलाव साफ दिख रहे थे। वहाँ आसपास लगभग दो सौ लोग मौजूद थे, जिन्होंने यह होते हुए देखा।

ज़बरदस्त ऊर्जा-स्पंदनों वाली ऐसी दूसरी जगहें भी हैं, जहाँ दिव्यदर्शियों ने अपनी आध्यात्मिक साधना का फल स्थापित किया है। हिमालय में ऐसे अनगिनत स्थान हैं। अनेक तरह के दिव्यदर्शियों और योगियों ने इन पर्वतों को अपना आवास चुना था। वे जब वहाँ रहे, तो उन्होंने स्वाभाविक रूप से ऊर्जा का एक खास आयाम पीछे छोड़ दिया, और उसके फलस्वरूप, हिमालय में एक खास तरह का आभामंडल इकट्ठा हो गया।

मिसाल के लिए, केदारनाथ हिमालय पर बस एक छोटा-सा मंदिर है। वहाँ कोई देवी-देवता की मूर्ति नहीं है। यह बस एक उभरी हुई चट्टान जैसा है, लेकिन यह दुनिया के सबसे शक्तिशाली स्थानों में से एक है! अगर आप अपनी ग्रहणशीलता बढ़ाने का प्रयास करते हैं और फिर उस तरह की जगह पर जाते हैं, तो वह ऊर्जा आपको बस झकझोर देगी। पूर्व में ऐसे कई स्थान हैं, लेकिन हिमालय ने सबसे ज़्यादा लोगों को आकर्षित किया है।

भारत के दक्षिणी राज्य कर्नाटक में कुमार पर्वत भी ऐसा ही स्थान है। “पर्वत” का मतलब है “पहाड़” और “कुमार” शिव के पुत्र कार्तिकेय का नाम है। उन्होंने दुनिया का रूपांतरण करने की कोशिश में कई लड़ाइयाँ लड़ीं, लेकिन जब उन्हें इसकी निरर्थकता का एहसास हुआ, तो वे इस इलाके में आए। यहीं पर उन्होंने अपनी तलवार पर लगे खून को आखिरी बार धोया था। उन्होंने तय किया कि अगर वे एक हजार साल तक भी लड़ते रहे, तो भी वे इस दुनिया को नहीं बदल पाएँगे; हिंसा से एक हल निकालने में दस नई समस्याएँ पैदा हो जाएँगी। तो वे पहाड़ के ऊपर जाकर उसकी चोटी पर खड़े हो गए। आम तौर पर जब कोई योगी अपने शरीर को त्यागना चाहता है, तो वह या तो बैठ जाएगा या लेट जाएगा, लेकिन चूँकि कार्तिकेय एक महान योद्धा थे, तो वे खड़े रहे और खड़े-खड़े ही अपना शरीर त्याग दिया।

अगर कोई अपने शरीर को बिना कोई नुकसान पहुँचाए उसे त्याग सकता है, तो यह इस बात का संकेत है कि जीवन-प्रक्रिया पर उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त है। भारतीय परंपरा में इसे आम तौर पर महासमाधि कहते हैं।

कई साल पहले जब मैं कुमार पर्वत पर गया था, तब वहाँ मेरे लिए एक छोटा-सा तंबू लगाया गया। मैं उसमें सोना चाहता था, लेकिन जब मैं उसके अंदर गया और लेटने की कोशिश की, तब अनायास ही मेरा शरीर खड़ी हुई स्थिति में आ गया, और तंबू गिर गया। मैं पूरी रात बैठ नहीं पाया, मेरा शरीर केवल खड़ी स्थिति में रह पा रहा था। तब मुझे यह आभास होने लगा कि कार्तिकेय के जीवन का क्या मकसद था। हालाँकि वे हजारों साल पहले इस धरती पर रहे थे, लेकिन उन्होंने जो-कुछ पीछे छोड़ा, उसका स्पंदन अब भी उतना ही जीवंत है।

इस तरह के कार्य को कभी मिटाया नहीं जा सकता। जहाँ पर भी कोई व्यक्ति अपनी जीवन-ऊर्जाओं से कुछ करता है, तो वह एक खास संभावना पैदा करता है, जिसे किसी घटना द्वारा नहीं मिटाया जा सकता। जिस व्यक्ति ने अपने आंतरिक आयाम से थोड़े-बहुत भी प्रयोग किए हैं, उसके काम और मौजूदगी को कभी नष्ट नहीं किया जा सकता।

उदाहरण के लिए, माना जाता है कि गौतम बुद्ध 2500 साल पहले हुए थे, और ईसा मसीह 2000 साल पहले हुए थे। लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है, मेरे लिए वे अभी भी जीवंत वास्तविकता हैं। एक बार जब आप अपनी जीवन-ऊर्जा के साथ एक खास मात्रा में कार्य कर लेते हैं, तो सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए वह कार्य स्थायी होता है और समय भी उसे नष्ट नहीं कर सकता। अगर आप अपने हाड़-मांस के शरीर से काम करते हैं, तो उसका जीवन-काल सीमित होता है। अगर आप अपने दिमाग का इस्तेमाल करके दुनिया में कुछ करते हैं, तो उसका जीवन-काल काफी लंबा होता है। लेकिन अगर आप अपनी मौलिक जीवन-ऊर्जा से कार्य करते हैं, तो वह शाश्वत होता है।

रुपहली पर्वत-चोटियाँ

मेरे शैशवकाल से ही मेरी आँखों में हमेशा पहाड़ बसते थे। जब मैं लगभग सोलह साल का हुआ, तब मैंने अपने दोस्तों से पहली बार इसका जिक्र किया तो उन्होंने कहा, ‘तुम पागल हो क्या! पहाड़ कहाँ हैं?’ तब मुझे एहसास हुआ कि मेरे सिवाय और किसी की दृष्टि में पहाड़ मौजूद नहीं हैं! कुछ समय तक तो मैंने सोचा कि यह पता लगाऊँ कि वे कहाँ है, लेकिन फिर मैंने वह विचार छोड़ दिया।

मान लीजिए कि आपके चश्मे पर एक दाग है, कुछ देर बाद आपको उसकी आदत पड़ जाती है। मेरी पहाड़ की चोटियों के साथ कुछ ऐसा ही था। बहुत बाद में जाकर, जब मेरे पिछले जन्मों की मेरी यादें वापस आईं, और जब मैं ध्यानलिंग की स्थापना के लिए एक उचित जगह तलाश रहा था, तब मैंने आँखों में बसी उस खास चोटी को खोजना शुरू किया।

उसे खोजते हुए मैं हर तरफ़ गया। मैंने लगभग ग्यारह बार अपनी मोटरसाइकिल से गोवा से कन्याकुमारी की 760 मील की यात्रा तय की। हर कच्ची-पक्की सड़क पर मैं लगभग हजारों किलोमीटर की यात्रा कर चुका था।

फिर कई साल बाद, बस संयोग से एक दिन मैं कोयंबटूर के बाहर एक गाँव में पहुँचा। मैं जब एक मोड़ पर गाड़ी चला रहा था, तब मुझे वेलिंगिरि पहाड़ों की सातवीं पहाड़ी दिखी – वह पहाड़ी ठीक मेरे सामने वहीं पर थी, जिसको मैं बचपन से अपनी आँखों में देखता आया था। जिस पल मैंने उस चोटी पर अपनी दृष्टि जमाई – जो मेरे भीतर पूरे जीवन भर रही थी – वह मेरी आंतरिक दृष्टि से गायब हो गई और जीती-जागती वास्तविकता बन गई। अचानक मैं जान गया कि यह मेरे जीवन के कार्य के लिए सबसे अनुकूल स्थान होगा।

अगर आप मुझसे पूछें, ‘इस धरती पर सबसे महान पर्वत कौन-सा है?’ तो मैं हमेशा यही जवाब दूँगा, “वेलिंगिरि।” मैं अपनी आँखों में इस पर्वत की एक छवि लिए पैदा हुआ था और उसने मुझे तभी से परेशान कर रखा था। वह मेरे अंदर रह रहा था और मेरे खुद के नेविगेशन सिस्टम, मेरे आंतरिक राडार का काम कर रहा था। मेरे लिए यह पर्वत केवल एक भौगोलिक वस्तु नहीं है; वह उस संपूर्ण ज्ञान का भंडार है, जिसकी ज़रूरत मुझे ध्यानलिंग बनाने के लिए थी।

“वेलिंगिरि” शब्द का अर्थ है “रुपहला चाँदी का पहाड़,”और इस पर्वत-श्रृंखला का यह नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि ये पहाड़ पूरे साल अधिकतर समय बादलों से ढके रहते हैं। वेलिंगिरि के पहाड़ों को “दक्षिण का कैलाश” भी कहा जाता है, क्योंकि खुद आदियोगी शिव ने तीन महीने से भी अधिक लंबा समय उस पहाड़ की चोटियों पर बिताया था। वे जब यहाँ आए थे, तब वे अपनी सामान्य परमानंद की अवस्था में नहीं थे। (किंवदंतियों के अनुसार, वे स्वयं से नाराज थे, क्योंकि वे अपनी सबसे अधिक समर्पित स्त्री-भक्तों में से एक को दिया हुआ वचन पूरा नहीं कर सके थे।) वे प्रचंड और उदास थे, और वह ऊर्जा आज भी महसूस की जा सकती है। यहाँ से इस परंपरा ने कई योगी दिए, जो क्रोधी प्रकृति के हुए। उन्होंने यहाँ आध्यात्मिक साधना की और वह गुण उनमें भी आ गया। वे किसी खास बात के लिए क्रोध में नहीं थे; वे बस तीव्रता की एक खास अवस्था में थे।

सबसे बढ़कर, यह पहाड़ मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि यहीं पर मेरे गुरु ने शरीर छोड़ा था। इस योग-परंपरा में यह पहाड़ हमारे लिए एक मंदिर, एक जीवंत पवित्र स्थल की तरह है – दिव्यता के प्रवाह और कृपा के झरने की तरह।



समाधि और आत्मज्ञान

कुछ लोगों में रहस्यमय अनुभवों को लेकर बहुत जिज्ञासा होती है। कई लोग असामान्य अनुभव प्राप्त होने का दावा करते हैं, जिसे वे अपने आध्यात्मिक विकास के प्रमाण के रूप में बताते हैं।

इन दिनों लोगों के आध्यात्मिक शब्दकोष में “समाधि” एक आम शब्द है, जिसे रहस्यमय उपलब्धि के प्रमाणपत्र की तरह देखा जाता है।

यह समाधि वास्तव में है क्या?

समाधि समभाव की एक खास अवस्था है, जिसमें बुद्धि अंतर करने के अपने सामान्य तरीके से परे चली जाती है। इसके फलस्वरूप, समाधि भौतिक शरीर पर किसी इंसान की पकड़ को इस तरह ढीला करती है, कि आपके और आपके शरीर के बीच एक दूरी बन जाती है।

समाधियाँ कई तरह की होती हैं। समझने के लिए इन्हें आठ किस्मों में बाँटा गया है। ये आठ प्रकार वास्तव में दो मोटे वर्गों में आते हैं : सविकल्प समाधि (ऐसी समाधियाँ जो बहुत सुखद, आनंदमय और परमानंद जैसे लक्षण या गुण वाली हों); और निर्विकल्प समाधि (ऐसी समाधियाँ जो सुखद और दु:खद से परे, किसी लक्षण या गुण से रहित हों)। निर्विकल्प समाधि में शरीर से सिर्फ एक बिंदु पर संपर्क रहता है। बाकी की ऊर्जा ढीली और भौतिक शरीर के साथ शामिल नहीं रहती। ऐसी अवस्थाओं को कुछ समय के लिए बनाकर रखा जाता है, जिससे आपके और आपके शरीर के बीच अंतर स्थापित होने में सहायता मिले।

किसी के भी आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर समाधि एक महत्त्वपूर्ण कदम है, लेकिन फिर भी, यह अंतिम लक्ष्य नहीं होती। किसी खास तरह की समाधि का अनुभव कर लेने का मतलब यह नहीं है कि आप अस्तित्व के चक्र से मुक्त हो गए। यह बस अनुभव का एक नया स्तर होता है। यह कुछ ऐसा है कि जब आप बच्चे थे, तब आपने जीवन को एक खास तरह से अनुभव किया था। जब आप वयस्क हो जाते हैं, तो आपके अनुभव का स्तर अलग हो जाता है। आप अपने जीवन में अलग-अलग मुकाम पर उन्हीं चीज़ों को बिलकुल अलग तरीके से अनुभव करते हैं। समाधियाँ बस उसी तरह होती हैं।

कुछ लोग समाधि के किसी खास स्तर में जा सकते हैं और कई सालों तक उसी अवस्था में बने रह सकते हैं, क्योंकि यह सुखद होती है। इस अवस्था में न तो कोई स्थान और न ही कोई समय रह जाता है, और न ही कोई शारीरिक समस्या, क्योंकि कुछ हद तक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बाधाएँ टूट जाती हैं। लेकिन यह सिर्फ अस्थायी होता है। जैसे ही वे इस अवस्था से बाहर आते हैं, सारी शारीरिक आवश्यकताएँ और मानसिक आदतें फिर से लौट आती हैं।

आम तौर पर, पूरे होशो-हवास वाले की तुलना में, हलका नशा किए इंसान के उल्लास और अनुभव का स्तर अलग होता है। लेकिन उसे किसी न किसी वक्त नीचे उतरना होता है। सारी समाधियाँ, बिना किसी बाहरी रसायन के, नशे की अवस्था में जाने का तरीका हैं। अगर आप इन अवस्थाओं में जाते हैं, तो आपके लिए एक नया आयाम खुल जाता है। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह आपको स्थायी रूप से रूपांतरित नहीं करता। आप किसी दूसरी वास्तविकता में नहीं पहुँचे हैं। आपके अनुभव का स्तर और गहरा हो गया है, लेकिन सही अर्थ में, आप मुक्त नहीं हुए हैं।

ज़्यादातर आत्मज्ञानी लोग कभी समाधि की अवस्था में नहीं बने रहे। गौतम बुद्ध ने अपने आत्मज्ञान के बाद सालों तक कभी बैठकर ध्यान नहीं किया। उनके कई शिष्य बरसों तक लंबे ध्यान में रहे, लेकिन गौतम ने खुद कभी ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्हें यह एहसास हो गया होगा कि यह उनके लिए ज़रूरी नहीं है। आत्मज्ञान प्राप्त करने से पहले उन्होंने सभी आठ तरह की समाधियों का अभ्यास और अनुभव किया था, और फिर उन्हें छोड़ भी दिया। उन्होंने कहा, ‘यह वह नहीं है, जो मैं चाहता हूँ’ वे जानते थे कि इनसे उन्हें आत्मज्ञान नहीं मिलेगा। समाधि अनुभव का सिर्फ एक उच्च स्तर है, एक तरह की आंतरिक एल.एस.डी., बिना किसी बाहरी पदार्थ के। इससे बोध का स्तर बदल जाता है। इसमें खतरा यह है कि आप इसी में अटक सकते हैं, क्योंकि यह मौजूदा सच्चाई से कहीं ज़्यादा सुंदर होती है, लेकिन जैसा कि हम जानते हैं, सबसे सुंदर अनुभव भी समय के साथ उबाऊ बन सकता है।

अगर आपने अपने जीवन में आत्मज्ञान को सर्वोच्च प्राथमिकता बना लिया है, तो हर वो चीज़ बेकार है, जो आपको एक और कदम अपनी चरम आज़ादी के पास नहीं ले जाती। मान लीजिए, आप एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ाई कर रहे हैं : तो आप एक भी कदम इधर-उधर नहीं ले जाएँगे, क्योंकि चोटी तक पहुँचने के लिए ऊर्जा की हर बूँद की ज़रूरत है। अब अगर आपको अपनी चेतना के शिखर पर पहुँचना है, तो आपको ऊर्जा के हर कतरे की ज़रूरत पड़ेगी, जो आप जुटा सकते हैं। फिर भी वह काफी नहीं है! अब, आप ऐसा कोई काम नहीं करना चाहेंगे, जो आपको मुख्य लक्ष्य से भटका दे।

आप पूछ सकते हैं कि यह आत्मज्ञान क्या है? आखिरकार, ज़्यादातर लोग जो चाह रहे हैं, वो बस अच्छी सेहत, खुशहाली, पैसा, प्रेम और सफलता है। क्या आपको वाकई आत्मज्ञान की ज़रूरत है?

आइए, इस पर सबसे आसान तरीके से ग़ौर करते हैं। क्या यह सच नहीं कि आप अपने कंप्यूटर के बारे में जितना ज़्यादा जानते हैं, आप उसे उतनी ही अच्छी तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं? क्या यह सच नहीं कि आपके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हर चीज़ या यंत्र को उसकी पूरी क्षमता से इस्तेमाल कर पाना उसके बारे में आपकी जानकारी पर निर्भर करता है? क्या यह सच नहीं कि उच्च स्तर की बुद्धिमत्ता और निपुणता वाला व्यक्ति एक साधारण-से यंत्र का भी जादुई तरीके से इस्तेमाल कर सकता है? क्या आपने कुछ लोगों को एक प्लास्टिक के टुकड़े पर सवार होकर, जिसे सर्फ-बोर्ड कहते हैं, आश्चर्यजनक चीज़ें करते देखा है? वह बस एक प्लास्टिक का टुकड़ा है, और वे उससे कैसे-कैसे फुरतीले और सुंदर करतब करते हैं!

इसी तरह से, मनुष्य के शरीर-तंत्र के कार्य करने के तरीके को आप जितनी गहराई से समझेंगे, आपका जीवन उतना ही जादुई होगा। हर संस्कृति में कुछ लोग ऐसे हुए हैं, जिन्होंने कुछ ऐसे कार्य किए, जिसकी वजह से दूसरे लोग चमत्कार में विश्वास करने लगे। ये सारे कार्य, जिन्हें चमत्कार माना जाता है, बस उन लोगों की जीवन तक अधिक गहरी पहुँच होने का नतीजा हैं। जैसा कि मैंने बार-बार कहा है, वह पहुँच हर किसी को उपलब्ध है, जो गहराई में देखने और खोज करने को तैयार है।

तंत्र : रूपांतरण की तकनीक

आजकल गुह्य-विज्ञान (ऑकल्ट साइंसेज) से जुड़ी कई प्रक्रियाओं पर आध्यात्मिक प्रक्रिया का मुखौटा लगा दिया जाता है।

मान लीजिए, मैं भारत में हूँ और आप अमेरिका में। मैं आपके पास फूल भेजना चाहता हूँ, लेकिन मैं कोलंबस की तरह यात्रा नहीं करना चाहता। अगर मैं उस फूल को अचानक आपकी गोद में पहुँचा देता हूँ, तो यह गुह्य-विद्या होगी। इसमें कुछ भी आध्यात्मिक नहीं है; यह बस जीवन के भौतिक आयाम को सँभालने का एक और तरीका है।

भारत में, हमारे पास कई जटिल और परिष्कृत गुह्य-प्रक्रियाएँ हैं। ऐसे कई लोग हैं, जो बस एक फोटो देखकर उस व्यक्ति के जीवन को बना या बिगाड़ सकते हैं। वे यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि उस व्यक्ति को कोई ऐसी बीमारी पकड़ ले, जो आम तौर पर इतने कम समय में शरीर में नहीं हो सकती। ये गुह्य-विद्या का अभ्यास करने वाले सेहत को सुधार भी सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उनमें से ज़्यादातर लोग अपनी क्षमता का इस्तेमाल बुरा काम करने के लिए ही करते हैं, क्योंकि इन नकारात्मक क्षमताओं की बाजार में अधिक माँग है। बहरहाल, चाहे इसे सेहत बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाए या सेहत सुधारने के लिए – मुद्दा यह नहीं है – गुह्य-विद्या का इस्तेमाल निजी लक्ष्य-प्राप्ति के लिए अनुचित है।

योग-परंपरा प्रसिद्ध योगी गोरखनाथ के किस्सों से भरी पड़ी है। लोग कहते हैं कि वे ग्यारहवीं शताब्दी में हुए थे, लेकिन कई ऐसे ग्रंथ हैं जो उन्हें काफी पहले का बताते हैं। वे एक महान योगी मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। मत्स्येंद्रनाथ की उपलब्धियाँ इतने ऊँचे स्तर की थीं कि उनको अकसर शिव या आदियोगी के अवतार के रूप में पूजा जाता था। कथाएँ बताती हैं कि मत्स्येंद्रनाथ लगभग 600 साल तक जीवित रहे। इसे न तो अक्षरशः लेने की ज़रूरत है और न ही अतिशयोक्ति मानकर नकारने की। यह बस इतना बताता है कि उनका जीवन-काल असाधारण रूप से लंबा था और उन्हें कितने अधिक आदर के साथ देखा जाता था।

गोरखनाथ उनके शिष्य बन गए। वे अपने गुरु पर बहुत श्रद्धा रखते थे और उन्हें पूजते थे। गोरखनाथ आग की तरह प्रचंड थे। मत्स्येंद्रनाथ जानते थे कि गोरखनाथ में आग ज़्यादा और नियंत्रण कम है। आग कई चीज़ों को जला देती है। गोरखनाथ अज्ञानता के दायरे में जलने लगे, और अचानक उन्हें बहुत ज़्यादा शक्ति प्राप्त हो गई। मत्स्येंद्रनाथ ने देखा कि गोरखनाथ अपनी क्षमता से ज़्यादा आगे निकलने लगे हैं, तो उन्होंने उनसे कहा, ‘चौदह साल के लिए कहीं चले जाओ। मेरे पास मत रहो। तुम मुझसे कुछ ज़्यादा ही ग्रहण करने लगे हो।’

गोरखनाथ के लिए ऐसा करना सबसे कठिन चीज़ थी। अगर मत्स्येंद्रनाथ ने कहा होता, ‘अपने प्राण दे दो,’ तो वे एक पल में प्राण त्याग देते, लेकिन ‘चले जाओ’ एक ऐसी चीज़ थी, जो वे सहन नहीं कर सके। लेकिन चूँकि उन्हें यही आदेश मिला था, तो वे चले गए।

वे चौदह साल तक एक-एक करके दिन काटते हुए वापस लौटने के दिन का इंतजार करते रहे। जैसे ही वह अवधि खत्म हुई, वे तुरंत वापस लौटे। जब वे आए, तो उन्होंने पाया कि मत्स्येंद्रनाथ जिस गुफा में रहते थे, उसकी रखवाली एक शिष्य-योगी कर रहा था। गोरखनाथ ने कहा, ‘मैं अपने गुरु से मिलना चाहता हूँ!’

गुफा की रखवाली करने वाले योगी ने कहा, ‘मुझे ऐसे कोई निर्देश नहीं मिले हैं, इसलिए बेहतर होगा कि आप प्रतीक्षा करें।’

गोरखनाथ भड़क गए। उन्होंने कहा, ‘अरे मूर्ख, मैंने चौदह साल इंतजार किया है, मैं नहीं जानता कि तुम यहाँ कब आए। हो सकता है कि तुम परसों ही आए हो। तुमने मुझे रोकने की हिम्मत कैसे की!’

उन्होंने योगी को धक्का देकर किनारे किया और गुफा में चले गए। मत्स्येंद्रनाथ वहाँ नहीं थे। फिर वे लौटकर आए और शिष्य को झकझोरकर पूछा, ‘कहाँ हैं वे? मुझे अभी अपने गुरु से मिलना है!’

शिष्य ने कहा, ‘मुझे कोई निर्देश नहीं मिला है कि मैं आपको बताऊँ कि वे कहाँ हैं।’

गोरखनाथ अब अपना आपा खो बैठे। उन्होंने अपनी गुह्य-शक्ति का इस्तेमाल किया और शिष्य के दिमाग में झाँककर पता लगा लिया कि मत्स्येंद्रनाथ कहाँ हैं। वे उस दिशा में चल पड़े। आधे रास्ते में उनके गुरु उनका इंतजार कर रहे थे।

मत्स्येंद्रनाथ ने कहा, ‘मैंने तुम्हें चौदह साल के लिए इसलिए भेजा था, क्योंकि तुम्हारी रुचि गुह्य-विद्या में बढ़ती जा रही थी। तुम अपनी आध्यात्मिक प्रक्रिया से भटकते जा रहे थे और जो शक्ति इसने तुम्हें दी थी, उसका आनंद लेना शुरू करने लगे थे। जब तुम वापस लौटे, तो सबसे पहले तुमने गुह्य-विद्या का इस्तेमाल मेरे शिष्य के दिमाग को पढ़ने में किया। फिर से चौदह साल के लिए चले जाओ।’ और इस तरह उन्होंने गोरखनाथ को फिर दूर भेज दिया।

गोरखनाथ के इस वर्जित दायरे में दखल देने की कई कहानियाँ हैं, और मत्स्येंद्रनाथ हर बार उन्हें दंड देते थे। अंततः, गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ के सबसे महान शिष्य बने।

योग-संस्कृति में गुह्य-विद्या के साथ हमेशा इसी तरह से पेश आया गया है। इसे कभी सम्मान के साथ नहीं देखा गया। इसे हमेशा जीवन का दुरुपयोग करने वाली चीज़ माना गया, जो उन दायरों में दखल देती है, जहाँ आपको नहीं जाना चाहिए। सिर्फ कुछ ही किस्म के लोग गुह्य-विद्या का अभ्यास करते थे, जो ताकत या पैसे के पीछे भागते थे।

साथ ही, गुह्य-विद्या हमेशा बुरी चीज़ नहीं होती, लेकिन इसके दुरुपयोग के कारण इसकी ऐसी छवि बन गई है। गुह्य-विद्या असल में एक तकनीक या टेक्नोलॉजी है। कोई भी विज्ञान या टेक्नोलॉजी अपने आप में नकारात्मक नहीं होती। अगर कुछ लोग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल दूसरे लोगों की जान लेने या उन्हें यातना देने के लिए करने लगते हैं, तो कुछ समय बाद हमें लगता है, ‘बस, बहुत हो गई ऐसी टेक्नोलॉजी!’ गुह्य-विद्या के साथ यही हुआ है। बहुत ज़्यादा लोगों ने निजी लाभ के लिए इसका दुरुपयोग किया है। अतः आम तौर पर आध्यात्मिक मार्ग पर गुह्य-विद्या से दूर रहा जाता है।

जिसे अकसर गुह्य-विद्या कहते हैं, उसे मोटे तौर पर हम “तंत्र” के रूप में जानते हैं। समाज में आजकल तंत्र को बहुत अपरंपरागत या सामाजिक तौर पर अमान्य पद्धति समझा जाता है। लेकिन अपने प्राचीन मायने में तंत्र का अर्थ बस “तकनीक” होता है। इसका स्वच्छंद कामुकता से कोई लेना-देना नहीं है। गुह्य-विद्या किस्म के तंत्र और आध्यात्मिक तंत्र के बीच के अंतर को स्पष्ट करना ज़रूरी है। इन्हें वाममार्गी तंत्र और दक्षिणमार्गी तंत्र की तरह बाँटा गया है और ये दोनों बिलकुल अलग प्रकृति के हैं।

वाममार्गी तंत्र में तरह-तरह के अनुष्ठान होते हैं, जो बहुतों को बड़े विचित्र लग सकते हैं। वाममार्गी तंत्र में काफी बाहरी चीज़ें शामिल होती हैं; इसे संपन्न करने के लिए आपको चीज़ों की ज़रूरत होती है और विस्तृत इंतजाम करने होते हैं। गुह्य-विद्या के इस्तेमाल को आम तौर पर वाममार्गी तंत्र कहा जाता है। इसने लोगों को दूरस्थ लोगों से संपर्क बनाने, एक-साथ दो अलग जगहों पर मौजूद होने और अपने फायदे तथा दूसरों के नुकसान के लिए ऊर्जाओं का इस्तेमाल करने की शक्ति दी है। जबकि दक्षिणमार्गी तंत्र कहीं ज़्यादा आंतरिक है; यह आपको अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल करके चीज़ों को घटित करने में सक्षम बनाने से संबंध रखता है। आप जीवन के सभी साधारण पहलुओं का इस्तेमाल अंदर की तरफ़ मुड़ने और खुद के साथ कोई चीज़ करने के लिए, एक व्यक्तिपरक विज्ञान की तरह करते हैं। वाममार्गी तकनीक एक अल्पविकसित निम्नस्तरीय तकनीक है और उन लोगों को उपलब्ध है, जिनकी दीक्षा नहीं हुई है। जबकि, दक्षिणमार्गी तकनीक बहुत परिष्कृत है और सिर्फ शक्तिशाली दीक्षाओं के जरिये उपलब्ध होती है।

तंत्र एक तरह की क्षमता है; इसके बिना कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया नहीं होती। अगर आपके अंदर तंत्र नहीं है, तो आपके पास लोगों का रूपांतरण करने के लिए कोई तकनीक नहीं है। आपके पास सिर्फ शब्द हैं। शब्द प्रेरणा देने वाले और दिशा दिखाने वाले हो सकते हैं, लेकिन रूपांतरण लाने वाले नहीं। एक विद्वान को गुरु नहीं कहा जा सकता। रूपांतरण की टेक्नोलॉजी के बिना कोई गुरु नहीं होता। तो तंत्र के बिना कोई गुरु नहीं होता। आजकल बहुत सारे लोग गुरु होने का दावा करते हैं, लेकिन वे केवल ग्रंथों के ज्ञान को अपने तरीके से फेंट रहे हैं। एक असली गुरु का काम पूरे मानव-सिस्टम को कर्म की चक्रीय संरचना हासिल करने से रोककर, उसे उसकी चरम संभावना के लिए साफ करना होता है। यह मैकेनिक के काम की तरह है, जिसमें कर्म की गाँठें निकाली जाती हैं! अगर किसी व्यक्ति में तंत्र या टेक्नोलॉजी नहीं है, तो आप उसे गुरु नहीं कह सकते।

कुंडलिनी की शक्ति

“कुंडलिनी” का शाब्दिक अर्थ होता है ऊर्जा। हर व्यक्ति में कुंडलिनी एक तरह की ऊर्जा होती है, जो अधिकतर सोई हुई और निष्क्रिय रहती है। योग-परंपरा में इसे हमेशा एक कुंडली लगाए साँप की तरह दर्शाया जाता है।

एक कुंडली लगाया साँप उच्च स्तर की निश्चलता को जानता है। साँप जब गतिहीन होता है, तो यह इतना ज़्यादा निश्चल होता है कि अगर यह आपके रास्ते में पड़ा हो, तो भी आप इसे अनदेखा कर देंगे। यह जब हरकत करता है, तभी आप उसे देख पाते हैं। लेकिन इन कुंडलियों में बहुत फुरतीली गतिशीलता छिपी होती है। तो कुंडलिनी की तुलना साँप से इसलिए की जाती है, क्योंकि यह ज़बरदस्त ऊर्जा हर व्यक्ति के अंदर मौजूद है, लेकिन जब तक वह गतिशील नहीं होती, आपको इसके होने का कभी एहसास नहीं होता।

एक भरपूर सांसारिक जीवन जीने के लिए इस भौतिक ऊर्जा की एक बूँद ही पर्याप्त है। जब भौतिकता से परे जाने की बात आती है, सिर्फ तभी आपको ऊर्जा के उफान की ज़रूरत होती है, जो आपको इस वास्तविकता से परे पहुँचा देगी। यह कुछ हवाई यात्रा के लिए आवश्यक ऊर्जा और रॉकेट छोड़ने के लिए आवश्यक ऊर्जा में अंतर की तरह है। धरती के वातावरण में उड़ना और अंतरिक्ष-यात्रा के लिए वातावरण के अवरोध को तोड़ना बिलकुल अलग चीज़ें हैं। इसी तरह से, भौतिकता से परे जाने के लिए ऊर्जा के एक अलग आयाम की ज़रूरत होती है।

भारत में शायद ही ऐसा कोई मंदिर हो, जहाँ साँप की कोई न कोई आकृति न बनी हो। ऐसा इसलिए नहीं है, क्योंकि इस संस्कृति में साँप की पूजा होती है। यह दर्शाती है कि एक पवित्र स्थान में आपके अंदर सोई हुई ऊर्जाओं को जगाने की संभावना मौजूद है।

साँप बोध की असाधारण क्षमता के लिए जाने जाते हैं। इसका एक कारण यह है कि वे बहरे होते हैं और केवल स्पंदनों से अनुभव करते हैं। साँप खासकर उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होता है, जो ध्यान की अवस्था में होता है। इस परंपरा में, हमेशा से कहा गया है कि अगर कोई योगी किसी जगह पर ध्यान में है, तो कहीं न कहीं उसके आसपास साँप भी होगा। अगर आपकी ऊर्जा निश्चल हो जाती है, तो साँप सहज ही आपकी तरफ़ आकर्षित होता है।

हालाँकि शारीरिक तंत्र की दृष्टि से साँप और इंसान के बीच बिलकुल समानता नहीं होती, लेकिन ऊर्जा-तंत्र के लिहाज से ये काफी नजदीक हैं। अगर आप जंगल में किसी नाग को देख लें, तो हो सकता है कि वह बिना किसी विरोध के आपके हाथों में आ जाए, क्योंकि उसकी और आपकी ऊर्जा एक-दूसरे के बहुत करीब होती है। जब तक कि आपके मन में भय न हो, जिसे वह खतरे के रूप में लेता है, साँप का काटने का कोई इरादा नहीं होता। साँप अपने जहर को कीमती समझता है और उसे यूँ ही बरबाद नहीं करता। साँप के जहर में औषधीय गुण होते हैं, जिन्हें आज दुनिया में लगातार पहचाना जा रहा है।

हालाँकि, साँप को बाइबिल की आदम और हव्वा की कहानी की वजह से प्राचीन काल से अच्छी दृष्टि से नहीं देखा गया है। लेकिन अगर आप उस कहानी को बारीकी से देखें, तो साँप ने ही धरती पर जीवन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वरना, बस एक मूर्ख जोड़ा ऐसे ही भटक रहा था, जिसे यह नहीं पता था कि आपस में क्या किया जाए। उस शानदार साँप के बिना आप और मैं यहाँ इस धरती पर नहीं होते!

अंततः, कुंडलिनी-ऊर्जा का ऊपर उठना ही जीवन के विस्तृत बोध का आधार है। आदियोगी या शिव की पारंपरिक मूर्तियाँ उनके साथ एक साँप को दर्शाती हैं, जो यह संकेत देता है कि उनका बोध अपने शिखर पर है। अगर ऊर्जा एक खास मात्रा और तीव्रता के स्तर तक उठती है, सिर्फ तभी वास्तविकता का बोध उसकी चरम शुद्धता में किया जा सकता है। वरना हमारे पास मौजूद हर दूसरे कर्म की छाप (जो करोड़ों-अरबों साल पहले से जमा हो रही है, जब हम केवल एक कोशिका वाले जीव थे) वास्तविकता को देखने के हमारे तरीके को दूषित कर देगी।





आनंद


एक शुरुआत

अधिकतर लोगों के जीवन में आनंद कभी-कभार आने वाले मेहमान की तरह होता है। इस किताब का मकसद जीवन भर के लिए उसे आपका साथी बना देना है।

आनंद कोई ऐसा आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं है, जो पहुँच से बाहर हो। आपके जीवन का कोई भी पहलू जादुई व शानदार तरीके से अभिव्यक्त हो, इसके लिए आनंद का वातावरण होना बहुत ज़रूरी है। अगर आनंद आपके जीवन में नहीं है, तो जीवन की सबसे सुखदायी गतिविधियाँ भी बोझिल बन जाती हैं। आप अपने इर्द-गिर्द जीवन की समस्याओं को अपनी काबिलियत से सँभाल सकते हैं। लेकिन एक बार जब आनंद आपका स्थायी साथी बन जाता है, तो आप खुद अपने जीवन में एक समस्या नहीं रह जाते। इसके बाद जीवन लगातार जाहिर होते जश्न और खोज की एक यात्रा बन जाता है।

मानवता के इतिहास में पहली बार, हमारे पास इस धरती की हर समस्या – जैसे पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा और ऐसी ही दूसरी समस्याओं को सँभालने के लिए ज़रूरी साधन, काबिलियत और तकनीकें हैं। हमारे पास विज्ञान और तकनीक के ज़बरदस्त साधन मौजूद हैं, जो इतने शक्तिशाली हैं कि हम दुनिया को कई बार बना या मिटा सकते हैं। लेकिन अगर ऐसे शक्तिशाली साधनों के इस्तेमाल में करुणा, समावेश, संतुलन और समझदारी की गहन भावना शामिल न हो, तो हम एक वैश्विक त्रासदी के कगार पर खड़े हो सकते हैं। बाहरी खुशहाली की हमारी अंधाधुंध कोशिशों ने इस धरती को पहले ही विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है।

हमारे पास आज जो सहूलियतें और सुख-सुविधाएँ हैं, वे किसी भी पिछली पीढ़ी से बहुत अधिक हैं। फिर भी हम मानवता के इतिहास में सबसे आनंदमय या प्रेममय पीढ़ी होने का दावा नहीं कर सकते। लोगों की एक बहुत बड़ी तादाद लगातार चिंता और अवसाद की अवस्था में रहती है। कुछ अपनी असफलता की पीड़ा झेल रहे हैं, लेकिन विडंबना यह है कि कई लोगों के दुःख का कारण उनकी सफलता है। कुछ अपनी सीमाओं की वजह से पीड़ा सह रहे हैं, लेकिन कई अपनी आज़ादी से पीड़ित हैं।

जिस चीज़ की कमी है, वह है मानव-चेतना। बाकी सब-कुछ अपनी जगह पर है, लेकिन इंसान अपनी जगह पर नहीं है। अगर इंसान अपनी खुशी के रास्ते में खुद रुकावट बनना बंद कर दें, तो हर दूसरा समाधान मौजूद है। मनुष्य को रूपांतरित किए बिना आप दुनिया को रूपांतरित नहीं कर सकते।

मेरा पूरा जीवन इंसानों को सशक्त बनाने के लिए समर्पित रहा है, ताकि वे खुद अपने भाग्य के स्वामी बन सकें। मैं उन्हें आनंदमय समावेश की अवस्था में लाना चाहता हूँ, ताकि एक पीढ़ी के तौर पर हममें जो संभावना हैं, वह हमसे कहीं कतराकर न चली जाए। आपकी खुशी, आपका क्लेश, आपका प्रेम, आपकी यंत्रणा, आपका आनंद, सब आपके ही हाथों में हैं।

बाहर निकलने का एक रास्ता है। और बाहर निकलने का रास्ता अपने अंदर है। सिर्फ अंदर की ओर मुड़ने पर ही हम वास्तव में प्रेम, प्रकाश और हंसी-खुशी की दुनिया बना सकते हैं। यह किताब उस दुनिया का एक प्रवेश-द्वार हो सकती है।

आइए, इसे कर दिखाएँ।





इनर इंजीनियरिंग

इनर इंजीनियरिंग प्रोग्राम अपने बोध को गहरा बनाने का और भीतरी रूपांतरण का एक अनूठा अवसर है। इससे अपने जीवन, कार्य और दुनिया को देखने के आपके तरीके में आमूल परिवर्तन आता है।

इसे व्यक्तिगत विकास के लिए एक गहन कार्यक्रम के रूप में भेंट किया जाता है। ये सेहत व सफलता के साथ-साथ जीवन के उच्च आयामों की खोज करने की संभावना भी प्रदान करता है।

इनर इंजीनियरिंग ऐसे साधन और समाधान भेंट करता है, जिससे आप अपने जीवन को वैसा बनाने के काबिल हो जाते हं, जैसा आप चाहते हैं। यह योग-विज्ञान की प्राचीन विधियों का उपयोग करके, जीवन को गहराई में तलाशने का एक द्वार है।

यह प्रोग्राम आपको शरीर, मन, भावनाओं और जीवन-ऊर्जा को बेहतर ढंग से सँभालने के व्यावहारिक तरीके प्रदान करता है। इनर इंजीनियरिंग में एक ज़बरदस्त रूपांतरण लाने वाली योग क्रिया – शाम्भवी महामुद्रा सिखाई जाती है। शाम्भवी महामुद्रा 21 मिनट की एक ऊर्जा-प्रक्रिया है, यह एक बहुत ही शक्तिशाली और शुद्धिकारक प्रक्रिया है, जो आपके अन्दर आनंद का रसायन पैदा करती है। ये आपके पूरे सिस्टम को संतुलित करने की एक विधि है।





ईशा फाउंडेशन

1992 में Sadhguru द्वारा स्थापित, ईशा फाउंडेशन, मानवीय संभावनाओं व क्षमता के विकास के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय लाभ-रहित संस्था है। आंतरिक रूपांतरण लाने वाले इसके सशक्त योग कार्यक्रमों से लेकर, इसकी प्रेरणा प्रदान करने वाली सामाजिक तथा पर्यावरण संबंधी योजनाएँ, ईशा की सभी गतिविधियाँ विश्व शांति और विकास के लिए एक संयुक्त संस्कृति पैदा करने के उद्देश्य से रची गई हैं।

ईशा फाउंडेशन दुनियाभर में फैले 300 से भी अधिक शहरी केंद्रों से कार्य करता है; यह 30,00,000 से भी अधिक स्वयंसेवकों के योगदान द्वारा चलाया जाता है। फाउंडेशन का मुख्यालय ईशा योग केंद्र में है, जो दक्षिण भारत में वेलिंगिरि पर्वत की तलहटी में स्थित है, तथा अमेरिका में, मध्य टेनेसी के कंबरलैंड पठार में स्थित ईशा इंस्टिट्यूट ऑफ इनर साइंस में है।

व्यक्तिगत विकास में मदद करने, मानवीय चेतना जागृत करने, समुदायों को पुनःस्थापित करने और पर्यावरण सुधार के लिए ईशा फाउंडेशन बड़े पैमाने की मानव-सेवी योजनाओं पर भी अमल करता है। इसमें शामिल हैं :

• ग्रामीण कायाकल्प कार्यक्रम – यह ग्रामीण पुनरुत्थान कार्यक्रम है, जो निःशुल्क चिकित्सा के साथ-साथ समुदायों को पुनःस्थापित कर रहा है, इससे दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाके में 4,600 से अधिक असहाय गाँवों में मानव-उत्थान का कार्य हो रहा है।

• प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स – प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स, पर्यावरण-क्षरण को रोकने तथा पर्यावरण स्वच्छ बनाने की दिशा में कार्य करता है। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य तमिलनाडु राज्य में 11 करोड़ 40 लाख पेड़ लगाना है, जिससे राज्य के 33 प्रतिशत क्षेत्रफल को हरे आवरण से ढका जा सके। प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स ने सिर्फ तीन दिनों में 2,56,289 लोगों द्वारा 8,52,587 पौधे लगाकर ‘गिनिज वर्ल्ड रिकॉर्ड’ बनाया है। ईशा फाउंडेशन को 2008 के इंदिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

• ईशा विद्या – ईशा विद्या अंग्रेजी माध्यम व कंप्यूटर आधारित शिक्षा के क्षेत्र में एक विशेष पहल है। अभी पूरे तमिलनाडु में आठ स्कूल और आंध्र प्रदेश में एक स्कूल है, जो करीब 5,200 बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बना रहे हैं। इनमें से कई बच्चे स्कूल जाने वाली पहली पीढ़ी के हैं और लगभग 60 फ़ीसदी विद्यार्थियों को पूर्ण छात्रवृत्ति दी जाती है। ईशा विद्या फिलहाल राज्य सरकार के 520 स्कूलों और 79,000 छात्रों के साथ मिलकर काम कर रही है। ईशा कई राज्य सरकारों के साथ साझेदारी करके पूरे भारत के 25,000 स्कूलों के 3 करोड़ बच्चों को सरल योग अभ्यास भी सिखा रही है।

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