Vimana Shastra
बृहद विमानशास्त्र – महर्षि भरद्वाज
भूमिका
वाल्मीकिरामायण का पुष्पक विमान आवालवृद्ध प्रसिद्ध एवं लोकविदित ही है।, पुन: महाराजा भोज के "समराङ्गणमूत्रधार" प्रन्थ में भी पारे से उडने वाले विमान का उल्लेख है।, ऐसे ही "युक्तिकल्पतरु" में भी विमान की चर्चा आाती है*। अतएव विमानकला आयों एवं आयावर्त (भारत) की पुरातनकला है । उसी पुरातनकलापरम्परी में यह प्रस्तुत प्रन्थ भी जानना चाहिए। आर्य आस्तिक थे उनका प्रत्येक कार्य आस्तिकभाव से ओत प्रोत रहता था - ईश्वर की स्ुति से प्रारम्भ होता था, ऐसा ही आचार इस प्रन्थ में भी उपलब्ध होता है-
यद्विमानगतास्सर्वे यान्नि ब्रह्म पर पदम् ।
तन्नत्वा परमानन्द श्रुतिमस्तकगोचरम् ॥ १॥
माण्डक्ये च यदोड्कार, परापरविभागतः ।
विमानत्वेन मुनिना तदेवात्राभिवर्रिणत ॥१५॥।
वाचक प्रणवो ह्यत्र विमान इति वर्णित ।। १६ ।।
तमारुह्य यथाशास्त्र गुरूक्तेनैव वत्मना ।
ये विशन्ति ब्रह्मपद ब्रह्मचर्यादिमाघनात् ।
यस्य तत्पुष्पक नाम विमान कामग शुभम्।
वीर्यादावाजित भद्र येन यामि विहायसम् ॥
(वाल्मीकि० रा० आरारण्य० ४८1६)
लघु दारुमय महाविहङ्ग हृढसुक्िट्टतनु विधाय तस्य ।
उदरे रसयन्त्रमादधीत उवलनाधारमधोऽस्य चाग्निचूणांम् ॥
(समराङ्गण० यन्त्रवि० ३१1६५)
व्योमयानं विमान वा पूर्वमासीन्महीभुजाम् ॥
(युक्तिकल्पतरु० यानप्र० ५०)
तदत्र मङ्गलश्लोकरूपेण प्रतिपादितः ॥ २० ॥
(वृत्तिकार)
पुरातन ऋषि महर्षि चाहे वे धर्मप्रवर्तक हों किसी विद्या या कला के आविष्कारक हों वे सभी अपने विषय को वेद से अनुमादित या आविष्कृत हुआ घोषित करते हैं । धर्मप्रवर्तक मनुजहराराज कहते हैं "धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रु ति " ( मनु० २१३) धर्म का ज्ञान करने के इच्छुकों के लिये परम प्रमाण बेद है । राजनीति के व्यवस्थापक वे ही मनुमहाराज कहते हैं '"सनापत्यं च राज्यं च वेदशास्त्रविदर्हति" (मनु०१२।१८०) सेनाके स्वामी होने और राज्यशासन करनेकी योग्यना वेदका वेत्ता प्राप्त कर सकता है । तथा "वेदो ह्यार्थवर्ण चिकितसां प्राह" ( चरक- सू० ३०२०) चिकित्सा को अथर्व बेद कहता है । इसी प्रकार इस प्रस्तुत विमानकला के प्रव्र्तक या आविष्कारक महर्षि भरद्वाज ने भी बेद से विमानकला का आविपकार किया है "निर्मध्य तद्वदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनि । नवनीतं समुद्रुत्य यन्त्रसर्वस्वरूरकम्" (वृत्ति कार १०) भरद्वाज महामुनि ने वेद समुद्र का निर्मन्थन करके "यन्त्रसर्वस्तर"
प्रन्थ (जिमका एक भाग यह वैमानिक प्रकरण है) मक्खनरूर मे निकालकर दिया है। वेद में विमानकला के विधायक अनेक मन्त्र हैं, उदाहरणर्थ दो तीन मन्त्र यहा प्रस्तुत करने हैं वेदा यो वीना पदमन्तरिक्षेण पतताम् ।
बेदा नाव समुद्रिया. ॥ (ऋ० १॥२५।७]
जो आकाशमें उडते हुए पक्षियों के स्वरूप को जानता है वह समुद्रिय-आकाशीय नौकाओं को-विमानों को जानता है ।
तुग्रो ह भुज्युमश्विनोदमेघे रयि न कव्चिन्ममृवों अ्रवाहा । तमूहधुनों भिरात्मन्वतीभिरन्तरिक्षप्रुद्धिरपोदकारभि
[স্० १॥११६॥३]
बाहिर से सामान लानेवाला लादू पोत ( जहाज ) जलतरङ्कों के उत्पातपूर्ण समुद्र मे कदाचित् डूथना हुआ भोगमामग्री के अध्यक्ष को मरते हुए धन को छोड़ते हुए की भानि छोड देता है तब उस क्यापाराध्यक्ष को अश्विनौ-ज्योतिर्मय और रसमय दो शक्तिया जलसम्पर्करहिन बलवती 'अन्तरिक्षप्रद्रि ' आकाश में उड़नेवाली नौकाओं से वहन करती हैं उडा ले जानी
न्यध्न्यस्य मूध्नि चक रथस्य येमथु ।
परि द्यामन्यदीयते ।।
[電。11]
अबाध्य रथ-विमान की मूर्धा में लगा अन्यत् चक्र जो और चक्रों से अलग है - भूमिवाले चक्रों से अलग है जिसे दो अश्विनौ शक्तियां नियन्त्रित करती है जो कि ' ्या परि-ईयते' आकाश में घूमता है।
f "समुद्र -ध्रन्तरिक्षनाम" निघ० १॥३)
इसी प्रकार 'वातरंहा, त्रिवन्धुरेण, त्रिवृता रथेन, त्रिचकेण' इत्यादि विशेषणों से युक्त विमानकाल्योतक अन्य अनेक मन्त्र हैं ।
कहीं कहीं बेदमन्त्रों की प्रतीक भी विषयप्रसङ्ग में इस प्रन्थ में आजाती है यथा "यद् द्याव इन्द्र ते शतम्" (ऋ० ८१०॥५), "नमस्ते रुद्र मन्यवे " ( यजु० १६।१) एवं कुछ ब्राहामण्त्रन्थों के वचन भी आ जाते हैं।
यह वैमानिकप्रकरण' यन्त्रसर्वस्व" पन्थ का एक भाग है जिसमें ऐसे ही यन्त्रविषयक ४० प्रकरण थे। "यन्त्रसर्वस्त्र" ग्रन्थ के रचयिता महर्षि भरद्वाज होने से इस 'वैमानिक प्रकरण" के भी रचयिता महर्षि भरद्वाज हुए महर्षि भरद्वाज से पूर्व विमानकलासभ्वन्धी शास्त्रों के रचयिता अन्य भो हुए हैं जैसे नारायणमुनि, शौनक,गर्ग, वाचस्यात, चाक्रायणि,घुरिडनाथ जोकि क्रमश विमानचन्तद्रिका, व्योमयानतन्त्र, यन्त्रकल्प, यानविन्दु, खेटयानप्रदीपिका, न्योमयानार्कप्रकाश इन विमानविषयक शास्त्रों के रचायिता थे। । विमान के बनाने वाले विश्वकर्मा, छायापुरुष मनु, मय आदि हुए हैं!। यह "वैमानिक प्रकरण " ८ अध्यायों १०० ५ू०० सूत्रो मे महर्ि भरद्वाज ने रचा था, जैसा कि महार्षि भरद्वाज ने स्वयं अअपने मङ्गलाचरण बचन मे कहा है मूत्रं पञ्चशत युंक्त शताधिकरणगस्वथा ।
अष्टाध्यायसमायुक्तमतिगूढ
मनोहरम्
पूर्वाचार्याश्च तद्पन्थान्र द्वितीयश्लोकतोत्रवीन् ।
विश्वनाथोक्तनामानि तेषा वक्षयै यथाक्रमम् ॥ ३ ३ ॥
नारायरण
शौनकश्च
गर्गों बाचस्पतिस्तथा ।
चाक्रायणिधुण्डिनाथश्चेति
शास्त्रकृतस्स्वयम् ॥३४॥
विमानचन्द्रिका
व्योमयानतन्त्रस्तथेव
च
खेटयानप्रदीपिका ॥३५॥
यानविन्दु
व्योमयानार्कप्रकाशशचेति शास्त्राणि पट् क्रमात् ।
नारायणादिमुनिभि प्रोक्तानि ज्ञानवितमे ॥३६॥
यन्त्रकल्पो
विचार्येतानि विधिवद् भरद्वाज कृपानिधि ।
वैमानिकप्रकरण
पारिभाषिकरूपेण
सर्वलोकोपकारकम्
विस्तरात् ॥३७॥
(वृत्तिकार)
रचयामास
विश्वकर्मा द्यायापुरुषमनुमयादि""
(वृत्तिकार)
कृतं स्वयं साधिविति विश्वकर्मणा
दिव गते वायुपये प्रतिष्ठित व्यराजतादिर्यपथस्य लक्ष्मवत् । (बाल्मीकि रा० मुन्दर० ८1१1२)
ई]
वैमानिप्रकरण कथ्यतेस्मिन् यथामति ।
समस्त सूत्रपाठ कहा है यह तो पता नईीं लगता, हां प्रारम्भ से क्रमशः १४ सूत्र तो इस में दिए हुए हैं, क्यचित् क्वचित् बीच में भी दिए हुए मिलते हैं और अव्यवस्थितरूप में किन्तु वृत्तिकार बोधानन्द के वृत्तिश्लोक ही मिलते हैं । वृत्तिकार बोधानन्द यति हैं। लगभग तीन सहस्र श्लोक इस में हैं और यह प्रन्थ २३ कापियों में प्राप्त हुआ है। इस प्रन्थ का काल क्या है यह कुछ नहीं बताया जा सकता है, मूलइस्त लेख इमें नहीं मिला किन्तु प्रतिलिपि (Transoript) इमें मिला है । ट्रांस्क्रि्ट कापी १६१८ ई० की इमें बडोदा राजकीय संस्कृत लाईब्रेरी में मिली थी पुन १६१६ ई० की प्रतिलिपि (Transoript) यह अब मिली जो आज से ४० वर्ष पूर्व की है, इस्तकापी के मोटे कागज पुराने ढंग के हैं जो अन्य पक्के कागज की पट्टियों में चिपके हुए हैं । पूना कालिज ( से प्राप्त कापी) के फिल्म फोटो भी प्राप्तहुए हैं उनपर लिखा है "गो वेक्कटाचल शर्मा १६-८ १६१६, ३-६-१६१६ तारीखें प्रतिलिपिकर्ता ने दी हैं। सूत्रों में हो क्या श्लोकों में भी भाषा पुरानी जचनी है, 'एध' धातु का प्रयोग बढने अर्थ में नहीं किन्तु प्राप्त होने अर्थ में आता है" नाशमेघते, लयमेधते । सन्धिया भी आधुनिक ही नहीं आतीं। पतत्यदा, त्रथाम०, एकमप्यदि, यन्त्राएयथाक्रमम् केन्द्र ्वात० " आदि प्रयोग आते हैं । 'लोहनन्त्र, दर्पणप्रकरण, शक्तितन्त्र' श्रादि लगभग १०० पुरातन ग्रन्थों के उल्लेख भी दिए हैं । नारायण गालव आदि ३६ आचार्यों के नाम भी विमानकलाविषयक शास्त्रनिर्मातृत्व और मतप्रदर्शन के प्रसङ्ग में ए हैं जिनकी सूचि साथ में दी है । विमान में अनेक अप्रसिद्ध नवीन अद्भुत यन्त्र बनाकर रखने का त्िधान भी किया है। इस से प्रन्थ की पुरातनता प्रतीत होती है ।
विमान शब्द का अर्थ--
महर्षि भरद्वाज के सूत्र और अन्य आचार्य विश्वम्भर आदि के मत में वि-पक्षी की भाति गति के मान से एक बेश से दूसरे देश एक द्वीप से दूसरे द्वीप और एक लोक से दूसरे लोक को जो आकाश में उडकर जानेवाला यान हो वह विमान कहा जाता है । एक लोक से दूमरे लोक में विमान पहुंचने महादेव महादेवीं वारणी गएणपति गुरुम् ।
शास्त्रकार मरद्वाज प्रणििपत्य यथामति ।। १ ।।
बासाना सुखबोधाय बोधानन्दयतीर्वर. ।
सग्रहाद् वैमानिकप्रकरणस्य यथाविधि ॥
लिलेख बोघानन्यवृत्त्यार्या व्याख्या मनोहराम् ॥४॥
(बुत्तिकार )
t पतित यदा, त्रि याम० एकमपि यदि, यन्त्राणि यथाक्रमम्, केन्द्रप वात०। वेगसाम्यादू विमानोण्डजानामिति ॥ अ ० १ | १ ।।
देशाद् देशान्तर तद्वदू द्वीपादू द्वीपान्तरं तथा ।
लोकाल्लोकान्तरं चापि योऽम्बरे गन्तुमहंति ।
स विमान इति प्रोक्ता खेटशास्त्रविदा वरैं. f
(इति विश्वम्भरः)
3]
की कल्पना आज की ही नहीं किन्तु १६४३ ई० में तो इमने इसे अपनी बडोदात्राली "विमानशास्त्र"
नामक प्रकाशित पुस्तक में आज से १६ वर्ष पूर्व दिया था और उक्त लेख का ट्राम्कि्ट ( प्रतिलिपि) १६१८ ई० अर्थात् भज से चालीस वर्ष पूर्व वर्तमान था पुन उस ट्राम्किप्ट के मूल म्येनुम्क्रिप्ट में न जाने कब का पुराना है। अपितु मङ्गल, बुध, शुक्र आदि प्रहों और नक्षत्रों की कक्षासन्धियों में आ जाने पर विपत्तियों से वचाने का वर्णन भी ता है ।
विमान के जातिभेद-
मान्त्रिक (योगसिद्धि से मम्पन्न), तान्त्रिक ( औषधयुक्ति एवं शक्तिमय वस्तुप्रयोग से सम्पन्न ), कृतक-यान्त्रिक (कला मशीन ए जिन आदिद से प्रयुक्त) ये तीन प्रकार के होते हैं । कृतक ज्ञाति में शकुन विमान (पक्षी के आकार का पंखपुच्छसहित विमान ), रुक्म विमान (खनिज पदार्थों के बोग से रुक्म अर्थात सोने जैसी आभा सम्पादिन किण जोहे के बना चिमा ) गुन्दर बिमान (शू से भूए के आधार पर चलनेवाला जेट विमान) कहे हैं तथा त्रिपुर तिमान (तीनों म्बल जल गगन मे चलने तरने उडनेवाला विमान) आादि २५ कहे हैं |
विमान की गतियां और मार्ग--
विमान की भिन्न भिन्न गतिया चालन, कम्पन, ऊष्ध्वगमन, अधोगमन, मण्डल गत-चक्रगातघूमगति, विचित्रगति, अनुलोमग्गात-दक्षिणगति, विलोमगति- वामगति, पराइ्मुखनति, स्वम्भनगति, तिर्यगति-तिरछीगति, विविधगति या नानागनि' हैं जो कि त्रिद्यन् के योग या विद्युन्-शक्ति से होती हैं। विमान के मार्ग आकाश में रेखवापथ, मएडन, कक्ष्य, शक्ति, केन्द्र, ये पाच कहे हैं | विमानगति के अवरोधक भी आकाशीय पाच आवत्त्त (बव्वएडर ) बतलाए हैं ।
रक्षाविधान और यन्त्रविधान--
इस वैमानिक प्रकरण में शत्रुद्वाराप्रयुक्त प्रहारक उपायों से एवं आकाशीय पदार्थो से भी स्वविमान की रक्षा का विधान है यथा-शत्र ने जब अपने विमान के मार्ग में दम्भोलि (तारपीहो जैसी वस्तु) आदि फेंक दी हो तो उमके प्रहार से बचने के लिए अपने विमान की नियंगगति (तिरडीगत) कर दो या अपने विमान को कृत्रिम मेघों में छिपादो अथवा शत्रुजन पर तामस यन्त्र से तम.- अन्धकार छोडदो । शत्रुद्वारा भूमि में छिपाए हुए प्रहारक अग्निगोल आदि पदार्थीं को गुहागर्भादर्श यन्त्र से जानकर उन से स्वविमान को बचा लेना उस दूरबीन जैसे गुहागर्भादर्श] यन्त्र से ऐसे स्थान पर सूर्यकिरणों ऐक्सरे की भांति अन्दर प्रविष्ट हो कर उन छिपे हुए पदार्थो को चित्ररूप में दिखलादेती हैं । एव आकाश में भी शत्र ओं के आक्रमण से बचने के अने क उपाय बनालाए हैं जैसे-शत्र के विमानों ने स्वविमान को चारों ओर से घेर लिया हो तो अपने विमान की द्विचकर कील्री को चल्ाने से ८७ लिट (डिभी) की उवालाशक्ति प्रकट होगी उसे गोलाकार में घुमादेने पर वे शत्र के विमान जवकर नष्ट हो जाेंगे तथा दूर से आते हुए शत्रु, के विमान की भोर ४:८७ तरङ्गे फेक कर उ बडने में भसमर्थ कर देना । नीचे खडी हुई शत्र सेना पर स्त्रविमान से शब्द सङ्कण-महाशब्दप्रदहार करना जिससे वे सैनिक भयभीत होजाें अहरे बनजारें हृदयभङ्ग को प्राप्त होजार्े । एवं श्रकाशीय पदार्थों वर्षों, वात,विद्यु त् ,आतप, शब्द, उल्का, ऊ]
पुच्छलतारों के अवशेषों तथा प्रह-नक्षत्रों की कत्षासन्धियों से रक्षा करना भी कहा है। वर्षोपसंहार यन्त्र से बिमानसे सम्बद्ध वायु ऊपर बेग से प्रगति करेगी उससे पुरोवात(वर्षा क्ञानेवालीवायु) संघर्ष को प्राप्तकरके दो टुकडों में विभक्त हो जावेगी जोकि जल की दो शक्तिया है द्रव (पतलापन) और प्राणन (गीला करनेवाली) पुन विमान पर जल न दूवित होगा-बहेगा -गिरेगा और न गीला कर सकेगा । महावात के आधात से बवने को ्यास्यवातनिरसन यन्त्र लगाना उस से वायु को त्रिमुखी- तीन टुकडों में कर दूर भगा देना । विद्य तू के प्रभाव को दूर रखनेवाला शिरकीलक यन्त्र विमान के मस्तक में लगाना जो कि छुत्री की भाति घूमता हुआ विद्य न् के प्रभाव को कोस्सो दूर रखता है । आतप] (धूपताप) की चति से विमान को बचाने के लिए आतपोपसंहार यन्त्र तगाना जिस से उष्णता का नाश शीतता का प्रसार हो । शक्त्याकर्षणयन्त्र से आकाशतरङ्गों वातसूत्रों से होने वाली दति से विमान को बचाना एवं शन्द, उल्का, पुन्डलतारों के अवशेषों औौर ग्रहों की कहासन्धियों के प्रभावों से विमान को बचाने के लिए विविध यन्त्र लगाना । सुर्यक्िरणों को स्थाधीन करने के लिये परिवेषक्रियायन्त्र लगाना आदि कहा गया है। एवं *1किों को आ कर्षित करके विविध उपयोग लेना भी कहा है । इसी प्रकार रूपाकर्षणयन्त्र रूपों [का - * लिये, विश्वक्रियादर्पण, पश्मनत्रमुखयन्त्र, धूमप्रमारण , औषम्ययन्त्र (ए जिन), त्रिपुरविमान वनाना और मीत्कारीयन्त्र बाहिर की बाधु को खींचने के लिये लगाना जिस से त्रिपुर -। क । व जल मे भी श्वाम ले सकें, वायु विद्य न धुम के यथोचित उपयोगार्थ प्राणकुएडलिनीयन्त्र तेगमाक. उरनाभापक कालमापकयन्त्र लगाए जावें एव बिदा तु से चालित या विद्यत के योगसे ३२ यन्त्र प्रयुक्त किए जार्व । विमान के प्रत्येक अङ्ग को भिन्न भित्न कृत्रिम लोहे से तैयार करके बनाना, लोहों का खनि से ही प्राप्त होना नहीं किन्तु सकी प्रामि के १२ म्थान बरतलाए गए हैं। भुगर्भ में खवनिज पदार्थों की सहम्रों रेखा पक्तियां कही हैं । इस्यादि बानें इस वैमानिक प्रकरण में अपने अपने स्थान पर मिलेंगी । धन्यवाद--
मर्घप्रथम हम ऋ षि दयानन्द का महान घन्यवाद करते हैं जिन्हान ऋग्वेदादि माप्यमूमिका ग्थ र वेदभाग्य में स्थान स्थान पर विमानयान उसके द्वारा आकाश मे उदान एवंयात्रा करने का वर्गन ऐसे समय में किया। जवकि किसी को इम यूग मे स्त्रान में भी इस बात की कल्पना न थी । उम ऋषिके वचनों से रिन हो विमानविपयक पुरातन प्रन्धां की खोज में इम प्रवृत्त हुए । लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व बडादा राजकीय संस्कृत पुम्तकभत्रन (लाई ब्री) से हस्तलखित इस वेमानिक प्रकरण কা সুछ भाग हमे प्राप्त हुआ था उमकी हिन्दी अनुवाद 'त्रिमानशास्त्र' नाम से हमने प्रकाशित भी कर दिया था उसी के शावारपर अन्य स्योज हुई बडोदा, पूना, उनर, द्दाक्षण आदि से यह श्लोकसामप्री हमें प्राप्ुई,एतदर्थ श्री विनयनोष जी भट्टाचार्य P H ]) अध्यत् राजकीय मंस्कृत लाईब्ररी बडोदा का हम बन्यवाद करते हैं और श्री सुरेन्द्रनाथ जी गोयल एयर कमोडर के सहयोग की भी हम सरहाना करते हैं । पुन गुरुकुलकांगडी के अधिकारियों विशेषन गुरुकुल के कुलपति श्री पं० इन्द्र जी विद्यावाचस्यति ्ा भी मैं अत्यधिक हार्दिक घन्यवाद करता हूं जिन्होंने इस अनुवादकार्य के सम्पादनार्थ गुरुकुल में स्थान तथा पुस्तकभवन স্থषि दयानन्द ने वेदभाष्य मे "शब्दायगानान् विपानान्-शब्द करते हुए विमान" ऐमा भी लिखा है। जैसा कि विमान उड़ते हुए शब्द करते है ।
(लाई भेरी) से पुस्तकों के उपयोग आदि की सर्व सुविधाए हमें प्रदान करने की महती कृपा की है । अन्ति में सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा का भी मैं धन्यवाद करता हूँ जिमने मेरे द्वारा समर्पित इम मेंट का स्वागत कर इसे प्रकाशित किया है पुन रसायनाचाय, आयुर्वेदाचार्य, स्वनिजशास्त्री, भूगर्भशास्त्री, खयगोलविद्यावेत्ता ज्योतिषी एवं वैज्ञानिक विद्वान् महानुभाव इस का अवलोकन कर इम में आप विविध यन्त्रो धातुप्रसङ्गों विद्युत् शक्तियों रेडियो-सकेतों राकेट जेमी बातों का विचार कर उनके सम्वन्ध में प्रशस्त प्रकाश डालें और अपने विचार एव सम्मतिया हमारे पाम भेजने की कृपा करें । एनदर्थ ईी हम इस कार्य ३े नि स्वार्थ लगे और इसे प्रकाशित किया है।
विज्ञत्रि-प्रन्थ के मन्दिग्य शब्दों और गन्दार्थों के आगे प्रश्न दोतक चिह्न ? दे दिया गया है । भवदीय--
स्वामी व्रह्मुनि परिव्राजक
१० ६-१६५८ ई०
वृहदु विमानशास्त्र
संक्षिप्त विषयसूचि
कापी संख्या १--
विषय
पृष्ठ
महर्षिभरद्वाजकृत "यन्त्रसर्वस्व्र" प्रन्थ का एक प्रकरण यह "वैमानिक प्रकरण" है जिसमें ऐसे ४० प्रकरण थे । "वेमानिक प्रकरण का ८ अध्यायों १०० अधिकरणों ५ू०० सूत्रों में निवद्ध होना कहा गया है यन्त्रकला जैसे इस प्रन्थमें भी आस्तिकता का प्रदर्शन करने के लिये ओ३म् को मुमुक्षुओं का विमान वतलाया । वैमानिक प्रफरण से पूर्व 'विमानचन्द्रिका, व्योमयानतन्त्र यन्त्रकल्प यानविन्दु, खेटयानप्रदीपिका, व्योमयानार्कप्रकाश' हन विमानविषयक छ शास्त्रों का विद्यमान होना जोकि क्रमश नारायण, शौनक, गर्ग, वाचस्पति , चाक्रायणि, धुर्डिनाथ महपियों के रचे हुए थे । महर्षि भरद्वाज द्वारा वेद का निर्मन्थन कर "यन्त्रसर्वस्व " प्रन्थ को मक्खन के रूप में निकाल कर दिए जाने का कथना । विमान शब्द का अर्थ सूत्रकार महर्षि भरद्वाज तथा भाचार्य विश्वम्भर आदि के अनुसार वि-पक्षी की भाति गति के मान से एक देर से दूसरे देश एक द्वीप से दूसरे द्वीप और एक लोक से दूसरे लोक को चाकाश में उडान लेने - पहुॅचने में समर्थ यान है । अषितु पृरथिवी जल और आकाश में तीनों स्थानों में गति करने वाला बतलाया गया (जिसे श्रागे त्रिपुर विमान नाम दिया है ) । विमान के ३२ रहस्यों का निर्देश करना, यथा- विमान का अदश्यकरण, शब्दप्रसारगा, लन, रूपाकरण, शब्दाकर्षण, शत्रुओं पर धूमप्रसारण शत्र से बचाने को स्वविमान क्रा गेघावृत करना, शत्रु के विमानों द्वारा घिर जाने पर उन पर ज्वालाशक्ति को प्रसारित करना-फेंकना, दूर से आतेहुए शत्रुविमान पर ४०८७ तरङ्ग फैंक कर उडने में अममर्थ कर देना, शत्र सेना पर असह्य महाशब्द संघररूप (शাब्दबम) फेंक कर उसे भयभीत वधिर शिथिल तथा हृद्रोग से पीड़ित कर देना आदि । आकाश में विमान के सम्मुख बिमानविनाशक आकाशीय पाच आवर्त (बवर्डरों) का বিमंध्य तक दाम्बुधि भरद्वाबो महामुनि ।
मवनीत समुद्ध त्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम् ।। १० ।
(ख)
विषय
घृष्ठे
आना और उनसे विमान रक्षा का उपाय । विमान में विश्वक्रियादपण आदि ३१ यन्त्रों का स्थापन करना।।
कापी संख्या २--
१-२४
विमानचालक यात्रियों को ऋतुओं की २५ विषशक्तियों के प्रभाव स बचने के लिये ऋतु ऋतु के अनुसार पहिनने और ओढने के योग्य वस्त्रों और भिन्न भित्न भोजनों का विधान, अन्न भोजन के अभाव में मोदक आदि तथा कन्दमूलफलों एवं उनके मुरठ्बों रसों का विशेष सवन करना । विमान में उपयुक्त ऊष्मप लोहों के सौम, सौएडाल और मौ्त्विक तीन बीज लोहों का वर्णन एवं शोधन तथा वीज लोहों की उत्पत्ति में भूगर्भ की आकर्षण शक्ति तथा पृथिवी की बाहिरी कक्षाशक्ति और सूर्यकरणों भूततन्मात्राओं एवं प्रहों के प्रभाव को निमित्त बसलाना, तीन सहस्त्र भूगर्भस्थ खनिजरेखापक्तियों का निर्देश तथा सातवें रेखापत्तिस्तर मे तीन खनिजगर्कोशों में सौम, सौए्डाल, मौर्तिक लोहों की उत्पत्ति का कथन ।॥
कापी सख्या ३-
विमान के भिन्न भिन्न यन्त्रों, कीलों (पेंचों) को भिन्न भित्न लोहों से वनाने का विधान । लोहे की प्राप्ति के १२ प्रकार या स्थान बतलाए जिससे कि 'खनिज, जलज, ओषधिज, धातुज, कृमिज, क्षारज, अण्डज, स्थलज, भपभ्रंशक, कृतक' नामों से लोहटे कहे गए हैं । बीज लोहे सौम, सौए्डाल, मौतिविक कहे और प्रत्येक के ग्यारह ग्यारह भेद होने से ३३ भेद वतलाए हैं ॥
कापी संख्या ४--
विविध अनर्थो के ज्ञानार्थ विमान में दर्पणयन्त्र 'विश्वक्रियादर्पण, शक्तयाकर्षण, बैरूप्यदर्पण, कुस्टिणी दर्पण, पिठ्जुलादर्पण, गुहागर्भदर्परण, रौद्रीदपण लगाए २४-४३
४४-५५
जाना ।।
५६-७०
कापी संख्या ५-
विमान की मित्न भिन्न १२ गतिया चलन, कम्पन, ऊर्ध्वगमन, अधोगमन, भरडलगति--चक्रगति-चूमर्गात, विचित्रगति, अनुलोमगति - दत्तिणगति, विलोमगनि-बामगति, पराइमुखगति, स्तम्भनगति, तिर्यगति---तिरछीगति, विविधगति या नानागति' विद्य,तु के योग से या विद्यु तुशक्ति से होती हैं । विद्यू तु से चालित या विद्य नमय विश्वक्रयादर्श आादि ३२ यन्त्रों का बर| शत्रु के द्वारा किए समस्त क्रियाकलाप को दिखलाने वाला विश्वक्रियाकर्षणादर्श यन्त्र का विधान ॥ कापी संख्या ६--
शक्तयाकर्षण यन्त्र का बिधान, बिसके द्वारा आाकाशतरों भोर बातसूत्रों से होने वाली क्षति से विमान वच जाता है तथा परिवेषक्रियायन्त्र का स्थान जो कि ७१-८४
(ग)
विपय
पृष्ठ
विमान के मार्ग में आई सूर्यकिरणों को स्वाधीन करके विमान को निर्वाध गतिशील करता है॥
कापी संख्या ७-
द्रावक तारों पर लपेटने के लिए गेण्डे आदि चर्म का विधान । बातसयोजक, धूभत्रसारण आदि यन्त्रों का निर्माण । ३२ मणिवर्गों के १२ वें वर्ग में कही १०३ माणयों का विमान में सूर्यकिरणाकपणार्थ उपयोग लेना । परिवेषक्रियायन्त्रद्वारा विमान में वातसयोजन धूमप्रसारण सूर्यकिरणाकर्षण आदि व्यवहार ।। कापी संख्या ८-
१००-११०
प्रहों के चार अतिचार आदि विरोधी गनियों के संघर्ष से आकाश में वहती हुई विषशक्ति के आक्रमण या प्रभाव से विमान के अड्गों को निष्परभाव रखने के लिा अड्गोपसंहारयन्त्र का विधान तथा भूगर्भ से उद्भूत और प्रथिवी की बाह्यकक्षा ओं से प्रकट हुए अनिष्टों के निवारणार्थ विस्तृतास्यक्रियायन्त्र का स्थापन । शत्रुओं पर कृत्रिम विविध धूमप्रकाश को वैरुष्यदर्पणद्वारा फेंक कर उन्हें विरूप करना मूच्छ्छा आदि भिन्न भिन्न रोगों में प्रस्त करना! आकाशीय वातावरण से बिमान के अङ्गों तथा विशेषत उपरि अड्गों में शिथिलता आ जाने और उनपर मल लिप्त होजाने से बचाने को पद्मपत्रमुखयन्त्र का विधान ॥
कापी संख्या ६-
१११-१२७
ग्रीधमकाल मे उष्णकिरणों के मेल से कुलिका नाम की शक्ति विमान को भस्म कर देने वाली उत्पन्न हो जाती है उसे कुरिटणीशक्तियन्त्र के विविध अङ्गोंद्वारा पी लिये जाने का वर्णन, तथा प्रीष्म में विषयुक्त पश्म्शिखा नाम की घातिका शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो कि प्राणियों के जीवनरस का शोपण एवं अनेकविध रोगों का निमित्त है उमे नष्ट करने के लिये पुष्पिणीयन्त्र (पुष्पाकार अरायन्त्र ) लगाना, जो कि उसके विषयुक्तत्रवाहों को बाहिर निकाल देता है । दो यायुओं के आवर्त - चक्रघूम एवं सूर्यकिरणों के संसर्ग से व्रसमान विद्युत का पतन हो जाया करता है उससे बचने के लिये पिब्जुलादर्शयन्त्र का विमान में लगाना ॥ कापी संख्या १०-
शत्रु के द्वारा भूमि में दबाए-छिपाए हुए महागोलाग्नियन्त्र का गुहागर्भादर्श यन्त्र (दूरबीन जैसे यन्त्र) द्वारा सूर्यकिरणें (ऐक्सरे की भाति) पकड भूमि में प्रविष्ट कर निर्यासपट पर प्रतिबिम्ब (फोटो) लेलेना ।।
कापी संख्या ११--
१२८-१४५
१४६-१५४
হत्रु पर अन्धकार फैलाने वाला तमोयन्त्र। आकाशीय १३ वातावरण में हुए ( घ)
विषय
पृष्ठ
वातसंघर्ष से विमान को बचाने वाला पक्म्रातस्कन्धनालयन्त्र लगाना जिसके नालों से वातविषशक्तिया विमान से खिंचकर याहिर निकल जाती हैं । आवह आदि १२२ भेदों में हैं ७६ वा वातायन प्रवाह है जहा ग्रीष्म ऋतु में विमान को वक्रगति से यात्रियों को हानि की सम्भावना है विमान की वक्रगत को रोकने के लिये विमान के लिये विमान के नीचे पार्श्वकेन्द्र में वातस्तम्भनाल कीलयन्त्र लगाना। वर्षा ऋतु में विद्य त से उत्पन्न अग्निशक्ति की शान्ति विद्यू दुर्पणयन्त्र से हो जाना वर्फ के समान ठण्डा हो जाना| आकाशीय ३०४ शब्दों में मेघतरङ्ग वायु विद्य तू की कडक से ८ बें स्तर में श्रोत्रविदीर्णता और वधिरता आदि हानि से बचने को शब्द केन्द्रमुखयन्त्र लगाना ।। १५५-१७३
कापी संख्या १२-
आकाश में रोचिषी आदि १२ उल्काए विदय न मे भरी है उक्त उल्काओं में स्थित विव त के प्रहार में त्रिमान को बचाने के लिये विद्य दुद्रादशकयन्त्र लगाना । विमान में तिथित धूम, विद्युत् और वायु को नियम्त्रित करने और उपयोग में लेने के लिये प्राणकुए्डलिनीयन्त्र लगाना । जिससे विमान की विविध गतिया सिद्ध होती हैं ॥ कापी संख्या १३-
आकाश में प्रहों के प्रभाव से विमानपथरेखा में शीतरसधारा शीतधूमधारा शीतवायुधारा वेगसे आ जाया करती हैं जोकि विमानके कलपुजों को शिथिल और यात्रियों को रुग्ण तथा विमानपथ को अहृश्य कर दिया करती हैं उन्हें निवृत्त करने या उनके प्रहार से बचने के लिये शक्स्युद्गमयन्त्र लगाना । शत्रुद्वारा दम्भोलि (तारपीडो जैसे ) आदि विघातक आठ यन्त्र स्त्रविमान के मार्ग में फेंके हुओ मे वचाने के लिये स्वविमान की वक्रगति देने के निमित्त वक्रप्रसारणयन्त्र लगाना । विद्यतुशकि को सर्वत्र विमानाङ्गों में प्ररित करने के लिये विद्यान-शकि से पूर्ण तारों से घिरा पितरजरा जैसा शक्तिपळ्जरयन्त्र लगाना । मेघों से विद्य तु के पतन की आशद्का पर विमान के शिर पर छत्रो के आकार का घूमता हुआ शिर कील कयन्त्र लगाना जिससे विद्य त का प्रभाव को सों दूर रहे । विविध शब्दों भाषा भाषणो बाजे स्वर सङ्कल्प आदि को खींचनेवाला १७४-१८३
शब्दाकपणयन्त्र लगाना ।।
१८४-१६८
कापी संख्या १४-
भिन्न भिन्न भय आदि अवसरों पर बैसे बैसे रंग के वस्त्र का प्रसारण होना आठों दिशाओं में प्रहों और किरणो की सन्धियों में ऋतुकाल सम्बन्धी १५ कौवेर विद्य तू शक्तिपूर्ण वायुए हैं उनसे यात्रियों को विविध कष्ट सम्भावनीय हैं उनसे बचाने के लिये दिशाम्पतिय्त्र लगाना ।।
कापी संख्या १५-
१६६-२१२
प्रहों के सब्चार मार्गों में प्रहों के परस्पर, एक रेखाप्रवेश से ग्रहसन्धि में (इ )
विषय
उवालामुखविषशकि है जिससे यात्री मर जाते तक हैं उस विषशकि के नाशार्थ पट्टिकाभ्रक्रयन्त्र लगाना। शरद् और हेमन्त ऋतु की शीतता को निवृत्त करने के लिये सूर्यशक्त्यपकर्षण यन्त्र लगाना । शत्रु के विमानोंद्वारा अपना विमान घिर जाने पर उनके ऊपर अपस्मारधूमप्रमारणार्थ अपनी रक्षा के अर्थ अ१स्मारधूमप्रभारणयन्त्र लगाना। अभ्रमण्डलों एव वायुप्रवाहों के सघर्ष में विमान को अविचलित रखने के लिये स्तम्भनयन्त्र का होना अग्निहोत्रार्थ और पाकार्थ वैश्वानरनालयन्त्र भी लगाना ॥ कापी संर्पा १६--
२१३-२२८
मान्त्रिक, नान्त्रिक, कृतक ( यान्त्रिक ) नाम से वमानों के तीन जातिभेद । त्रेतायुग में मान्त्रिक--मन्त्रप्रभाव योगसद्धि से, द्वापर में तान्त्रिक तन्त्रप्रभावऔषध युक्ति से, कलियुग मे कृतक -यान्त्रिक- यन्त्रकलापरायण । मान्त्रिक विमान के २५ प्रकार "यन्त्रमर्वस्त्र" प्रन्थ में महर्षि भरद्वाज के अनुमार, किग्तु "मराणभद्रिका"
ग्रन्थ में गीतम के अनुमार ३२ हैं ।
कापी संख्या १७ --
२२६-२३६
तान्त्रिक विमान के भेद ५६ कहे हैं । कृतक अर्थात यान्त्रिक - यन्त्रकला से चालित विमान २५ प्रकार के हैं । कृतक ( यान्त्रिक) विमानों में प्रथम शकुन विमान है उसके पीठ पख पुच्छ आदि २८ अङ्गों का वर्णन और रचना भिन्न भिन्न ओषधि खनिज पदार्थों के पुट से बनाए हुए भिन्न भिन्नर कृत्रिम लोहों से करना । शकुन विमान की पीठ पर तीन बडे कमरे बनाना, प्रथम में विमान के अङ्गयन्त्रों और उपकरणों को रखना दूसरे में स्तम्भ के साथ यात्रियों के वैठने को घर ( Compartments ) तीसरे में विमान के सिद्ध यन्त्र आदि साधन । शकुन विमान में चार औष्य यन्त्र ( ऐविजिन ), चार बाताकर्पण यन्त्र वायु को खींचने के लिये, भूमि पर सत्रवार करने को भी चक लगाना ।।
२३७-२५२
कापी संख्या १८--
दूसरा सुन्दर विमान है, उसमें धूमोद्गम आदि ८ विशेष अग हों । पात्र में धूमा्जन तैल, हिगुल नैल, शुकतुए्ड तैल, कुलटी ( मन शिला ) का तैल भरना । विग् तु के संयोजनार्थ मणिर्ेच के अन्दर नालमार्ग से दो तार लगाना, नालस्तम्भ के को रोकने और फेंकने के अर्थ छिन्नसहित घूमने वाले तीन चक्र नाल सहित लगाना तैलधूम और जलधूम की नाले उन्हें बाहिर निकालने को लगाना एवं ४० य्त्र सुन्दर विमान में लगाना। शुर्डाल--शूएड जैसा यन्त्र १ बालिश्त मोटा १२ बालिश्न लम्बा ऊचा हो जिससे बिमान दौडता है । दूध गोन्द वाले वृक्षों के दूध गोन्द तथा विशेष निर्दिष्ट लोहे आदिको मिला कर शुए्डाल का बनाया जाना । शुएडाल से घूम निकालने और बायुको खींचने के द्वारा विमान का चलाना मंघर्षण, पाकजन्य, जलपात, অन्दर
धूम
(च)
विषय
धृष्ठ
सायोजक, किरणजन्य आदि ३२ विद्यूद्यन्त्र होते हैं परन्तु विमान में सांयोजक विद्यूययन्त्र का लगाया जाना अगस्त्य के शक्तितन्त्र के अनुसार कहा जाना ।। २५३-२६६
कापी संख्या १६---
त्रिद्य तु-शक्ति पूरक पात्र वनाने का प्रकार, विमानको भूमि से ऊपर उठाने के लिए बातप्रसारणयन्त्र (बायुके फेंकने वाला यन्त्र) लगाना, २६०० कक्ष्यगति (अश्वर्गात ) से वात को फेंकना, बायु के निकलने से विमान का वेग से दौडना । सुन्दरविमान का आवरण भी शकुनविमान की भाति राजलोहे से बनाया जाना, कमरे और शेष ३२ अग भी वैसे ही तनाना। विमान के चलने में घूम आदि निकालने का वेगप्रमाण गणित शास्त्र से निश्चित किया जाना, एक चुटकी वजाने जितने काल मे धूमोदगम यन्त्र ( ऐटिजन ) से औम्य वेग ३४०० लिङ्क ( डिग्री) प्रमाण में हो जाने पर विमान का क घड़ी मे ४०० योजन अर्थात् एक घरटे में ४००० कोस ( लगभग ८००० मीन ) परिमाण से गति करना ।।
कापी संर्या २०---
२७०-२६०
तीसरे रुकर्मत्रिमान का राजलोहे से बनना और पाकविशेष से रुक्म अर्थान स्वर्ण रंग वाला बन जाना अत एव उसका रुक्रम विमान नाम से कहा जाना । १२ बालिश्त लम्बा चौडा लोहपिएड चक्र श्ृ खला तन्त्री ( जव्जीर) द्वारा अन्य चक्रों से होने पर गतिशील होता है, अगूठे द्वारा बटनिका दबाने से सब कलायन्त्रों का चल पडना और विद्य तु के योग से धूम का ५०० लिंक ( डिग्री ) वेग हो जाना चकृताडनस्तम्भ के आकर्षण से विमान का वेग से उड़ना । रुक्म विमान में अभ्रक की भित्तिया आदि बनाया जाना ॥
कापी संख्या २१-
युक्त
पृष्ठ २६१-३०१
त्रिपुर विमान अपने तीन आवरणों से पूथिवी जल आकाश में चलने वाला होने से त्रिपुर विमान नाम से प्रसिद्ध होना। प्रथम भाग से पृथिवी पर दूसरे भाग से जल में तीसरे भाग से आकाश में गमन करता है । त्रिपुर विमान में किरणजन्य विद्य तु से काम लेना । त्रिपुर विमान के ऊपर नीचे चक्रों में शक्ति होने से उसका पर्वतों पर चढने तिरछे चलने में समर्थ होना । त्रिपुर विमान में अभ्रक का विशेष प्रयोग करना, ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र नाम से अभ्रक के चार भेद कहे गए, श्वेत ब्राह्मण रक्त क्षत्रिय पीत बैश्य और कृष्ण शूद्र अभ्रक वतलाया है । ब्राह्मण अभ्रक के १६, क्षत्रिय अभ्रक के १०, वैश्य अभ्रक के ७ और शूद्र अभ्रक के १५ भेद । त्रिपुर विमान में दिशाओं में घूमने वाले घर लगाना । उसका प्रथम आवरण सत से बड़ा दूसरा उससे छोटा तीसरा और भी छोटा होना । प्रथम आवरण के ऊपर नीचे मुखवाले पेंचों में घूमने वाले हम्त चक्रों मण्डूक हस्तचक्रों का लगाया जाना उनका विद्य तुतारों से युक्त हो जल में गति करना।।
पृष्ठ ३०२--३१८
(國)
विषय
घृष्ठ
कापी संख्या २२-
जल में गमनार्थ प्रथम आवरण का संकोच कर लेना दूसरे आवरण के नीचे यन्त्रों को ले आना क्षीरीपट का आवरण में उपयोग । ऊपर की वायु को चूमने के लिए सीत्कारी यन्त्र का लगाना जिससे सर्वत्र बायु प्राप्त हो । विमान में वेणीतन्त्री चिन्तासूचिका डोरी लगाना। भाषणाकर्षक दिशाप्रदर्शक, शीतोष्णत्वमापक यन्त्र भी तगाना कहा है । अत्यन्त वर्षा, वात, धूप आदि के प्रतीकार करने वाले यन्त्र भी लगाना । इम प्रकार वर्षोपसंहार यन्त्र, त्यास्यवातनिरसन यन्त्र आतपोपसंहारयन्त्र लगाने बतलाए हैं। वर्षोपमंदार यन्त्र क्रौफ्चिरिक (कृत्रिम ) लोहे से बनाना इस यन्त्र से विमानसम्बन्धी ऊर्ध्वगामी वायु के साथ पुरोवात-वर्षावात (पुर्वा हवा) का संघर्ष हो जाने से पुरोवात दो टुकड़ों में विभक्त हो जाती है जो कि जल की दो शक्तियों द्रव (पतलापन ) और प्राणन ( गीलापन ) हैं जिससे विमान पर जल वरस न सकेगा और
सकेगा। अयास्यवातनिरसन यन्त्र वरुण लोहे से वनता है उसके सर्पमुखी तीन पेंव ऊपर आकाश में खुलें रखने होते हैं जिन के द्वारा महावात को स्वशक्ति से तीन टुकहे कर आकाश में फेंक देता है । सूर्यातपोपसंहार यन्त्र आतपाशन कृत्रिम लोहे से बनाना इसमें आतपोपसंहारक एवं शीतप्रसारक मणियां उध्णता को हटाने वाले अभ्रक चक्र लगाये जाते हैं ।।
कापी संख्या २३-
गीला भी न कर
३१६-३३४
त्रिपुर विमान के तीसरे आवरण अर्थात् सबसे ऊपर वाले भाग में सूर्यकिरणों का आकर्षण करने वाली मणिया अशुपा मणि घूमने वाली मणियां एवं घूमने वाले तार और घूमने वाले पात्र भी लगाये जाते हैं तथा वेगमापक कालमापक उष्णतामापक यन्त्र लगाना कहा है, विद्युन् स्थान में इन तीनों यन्त्रों को लगाने का निर्दश किया है ।।
३३५-३४४
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